
- July 30, 2025
- आब-ओ-हवा
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(शब्द और रंग, दोनों दुनियाओं में बेहतरीन दख़ल रखने वाली प्रवेश सोनी हाल ही, क़रीब महीने भर की यूरोप यात्रा से लौटी हैं। कवि और कलाकार की नज़र से, आब-ओ-हवा के लिए अपनी इस यात्रा के कुछ विशिष्ट अनुभव क्रमबद्ध ढंग से वह दर्ज कर रही हैं। उनके शब्दों में ऐसी रवानी है कि शब्दों से ही चित्र दिखने लगते हैं। साप्ताहिक पेशकश के तौर पर हर बुधवार यहां पढ़िए प्रवेश की यूरोप डायरी - संपादक)
प्रवेश सोनी की कलम से....
सैर कर ग़ाफ़िल...: एक कलाकार की यूरोप डायरी-9
30/4/2025
बर्लिन-2
बर्लिन ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहरों से भरा शहर है। यहां आधुनिकता और इतिहास का सुंदर संगम देखने को मिला। यह शहर अपनी अनोखी विरासत, संघर्षों और पुनर्निर्माण की गाथा के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध है। यहां घूमने का एक अलग ही उत्साह था मेरे मन में।
सुबह 11 बजे, नज़दीक के मेट्रो स्टेशन से पूरे दिन का टिकट लिया और बर्लिन घूमने निकले। कहां-कहां घूमा जाये, यह बिटिया ने पहले ही तय करके उस जगह के टिकट्स बुक करवा लिये थे। पहले चिड़ियाघर और एक्वेरियम उसके बाद ओपन बस से बर्लिन भ्रमण। जो जगह मुख्य रूप से ऐतिहासिक और प्रसिद्ध थी, वहां एक दिन में नहीं जा सकते थे। अतः बस से ही उन्हें देख लेना उचित लगा।
हम सबसे पहले चिड़ियाघर देखने निकले, मन में तो यही था कि आम चिड़ियाघर जैसा ही होगा, कुछ पिंजरे होंगे और उनमें बंदर, भालू, हिरन वग़ैरह। यहां भी थे तो पशु-पक्षी ही लेकिन कोई भी पिंजरे में नहीं था। सभी पशुओं के लिए प्राकृतिक वातावरण और स्थान बनाया हुआ था। यहां हमने अफ़्रीकन हाथी, पांडा, टाइगर, शेर, शुतुरमुर्ग, कंगारू, जिराफ़, गोरिल्ला, कई प्रजातियों के बंदर, सील, हिरण, चिंकारा…आदि पशु-पक्षी देखे यह चिड़ियाघर बहुत बड़े क्षेत्र में फैला हुआ था और जगह भी बहुत सुंदर। पूरा व्यवस्थित और साफ़।
व्यवस्था और नियमों की पालना के बारे में तो पूरे यूरोप में कहीं भी अवहेलना नहीं दिखायी दी। सड़क पर ट्राम, बस, कार, साइकिल सब साथ-साथ अपनी लेन में चलते हैं। सिग्नल तोड़ती कोई गाड़ी नहीं दिखायी दी, जल्दी में ओवरटेक करती हुई भी नहीं और चिल्ल-पों करती हॉर्न की आवाज़ तो कहीं नहीं सुनायी दी।
ज़ेब्रा क्रॉसिंग पर पैदल यात्री के लिए पहले रास्ता, उनके लिए ट्राम तक रुक जाती है। साइकिल के लिए सभी जगह अलग पाथ और पैदल चलने वालों के लिए अलग फुटपाथ।फुटपाथ पर कहीं अतिक्रमण नहीं। हमारे यहां तो दुकान का आधा सामान फुटपाथ पर होता है और पैदल चलने वाला इंसान रोड पर गाड़ियों से टकराता हुआ उठते-पड़ते घर पहुंचता है।
चिड़ियाघर के पास ही एक्वेरियम था। यह जगह मुझे बहुत ही सुंदर लगी। तीन मंज़िला इमारत में जल, थल और उभयचर जीवों को व्यवस्थित और प्राकृतिक वातावरण में रखा हुआ था। सुंदर-सुंदर रंगीन, छोटी मछलियों से लेकर बड़ी डॉल्फिन तक इसमें विचर रही थी। इनकी गतिविधियां और इनके घर बहुत ही आकर्षक लगे।
हमारा काफ़ी समय यहां व्यतीत हो गया। यहां से निकलकर हमने भोजन किया और हॉप-एन-हॉफ की टूरिस्ट आडियो गाइड की बस पकड़ी, जिसने हमें लगभग पूरे बर्लिन की सैर करवा दी। ऑडियो में भाषा के चयन का विकल्प था तो हिंदी भाषा चुनकर हमने बर्लिन के ऐतिहासिक स्थलों के बारे में जाना। इनमें से कुछ- ब्रांडनबर्ग गेट, बर्लिन दीवार स्मारक, राइखस्टाग-यह जर्मन संसद का भवन है, म्यूज़ियम आइलैंड, बर्लिन कैथेड्रल…
श्लॉस चार्लोटनबर्ग- यह एक भव्य शाही महल है जो बर्लिन के शाही इतिहास और विकास का अद्भुत उदाहरण है। यह महल 15 दिन तक आग की लपटों से घिरा रहा और आज शान से सुसज्जित सिर उठाये खड़ा है।
विक्ट्री कॉलम- थोड़ी दूरी पर है विजय और आत्मविश्वास का यह प्रतीक।
होलोकास्ट मेमोरियल- यह यहूदियों के नरसंहार की स्मृति में बना स्मारक है, जिसमें सैकड़ों कंक्रीट के स्तंभ हैं, बाहर से यह दो से ढाई फीट के दिखायी देते हैं लेकिन जैसे जैसे अंदर की ओर जाते है वहां इनकी ऊंचाई बढ़ती दिखती है। अंत में सियाह सन्नाटा जो लाखों लोगों के सामूहिक नरसंहार की याद दिलाता है। पास में एक छोटा संग्रहालय भी है, जिसमें इस ऐतिहासिक त्रासदी के कुछ अवशेष देखने को मिलते हैं।
यहां सफाई के साथ एक बात और देखी कि कहीं भी दीवार पर कोई पोस्टर या विज्ञापन चिपका हुआ नहीं। ऐतिहासिक बर्लिन की दीवार पर आर्टिस्टिक तरीक़े से सजावट की गयी है। इसका एक बचा हुआ भाग और इसका म्यूज़ियम, शीत युद्ध के दौर की गवाही देता है।
ईस्ट साइड गैलरी, जहाँ दीवार पर कलाकृतियाँ बनायी गयी हैं, देखने योग्य है। यह इस बात का प्रतीक है कि जो बीता वो बुरा था, लेकिन अब जो है वो अच्छा है।
बहुत सुंदर शहर है बर्लिन। सबसे अच्छी बात यह लगी कि इतना विनाश होने के बावजूद भी इतने कम समय में यह शहर दुनिया की आंखों में अपनी खूबसूरत पहचान बना चुका है। शिक्षा के लिए बड़ी-बड़ी यूनिवर्सिटीज़ इस शहर में हैं, जहां पूरी दुनिया से स्टूडेंट पढ़ने आते हैं। बर्लिन एक ऐसा शहर है जो अतीत से सीखकर, भविष्य की ओर बढ़ता है। यह इतिहास की चोटों को सहेजते हुए आधुनिकता, कला, संस्कृति और स्वतंत्रता का उत्सव मनाता है।
शाम का समय हमारा आइस बार के लिए बुक था। आधुनिक समय के बच्चे अब माता-पिता को बार भी दिखा सकते हैं। ख़ैर, कुछ नहीं तो अनुभव तो मिलेगा। बिटिया से पूछा कि वहां क्या होगा तो उसने बोला कि आप चलिए आप याद रखेंगे, ऐसी जगह है यह। जब हमने बार में प्रवेश किया तो स्वागत ड्रिंक का काउंटर मिला, जहां आप अपनी पसंद से कोई भी ब्रांड की शराब पी सकते हैं। टिकट्स के साथ तीन ड्रिंक फ़्री थे, जिसमें से एक बाहर और दो बार के अंदर मिलने वाले थे।
हम सॉफ़्ट ड्रिंक पीकर अंदर जाने के लिए लाइन में लगे। भीतर से हाई वॉल्यूम में म्यूज़िक की आवाज़ आ रही थी। एक और दरवाज़ा पार करके अंदर गये तो मूवी दिखाकर समझाया गया कि सोल्जर किस तरह माइनस टेंप्रेचर में रहते है और ठंड से अपना बचाव कैसे करते हैं। फिर हमें ग्लव्स और जैकेट्स पहनने के लिए दिये गये। बताया गया कि अंदर माइनस दस डिग्री तापमान है। बिज़नेस करने वाला दिमाग़ कुछ भी करके पैसा कमा सकता है। यह बार इस बात का सबूत था।
हम अंदर गये तो वहां पर दो मिनिट्स में ही कंपकंपी लगने लगी, पांवों में बूट पहने होने के बावजूद गलन हड्डियों तक जा रही थी। नीली रोशनी में वो जगह बहुत सुंदर लग रही थी। चारों और बर्फ़ ही बर्फ़। बर्फ़ की कुछ आकृतियां बना रखी थीं, जैसे पोलर बियर, एक्सिमो के घर आदि, जिनके साथ लोग फ़ोटो ले रहे थे। हमें वहां भी एक ड्रिंक और पीने को दिया, जो बर्फ़ से बने ग्लास में था। ठंड की वजह से ग्लास पकड़ा भी नहीं जा रहा था।
हमने उसको पीने की रस्म अदायगी की, कुछ फ़ोटो लिये। यह देखना था कि लोग कितनी देर वहां रुक सकते हैं। पीने वाले लोग पीकर एंजॉय कर रहे थे। एक बार में दस लोग ही अंदर जा सकते थे और 30 मिनिट्स से ज्यादा वहां रुक नहीं सकते। यह बार का नियम था। हम पंद्रह मिनट्स में ही बाहर आ गये। यह था आइस बार का आनंद।
उसके बाद हम अलेक्ज़ेंडरप्लात्ज़ (Alexanderplatz) गये, बर्लिन का प्रसिद्ध चौक और व्यस्त इलाक़ा। यहाँ टीवी टावर (Fernsehturm) है, जो जर्मनी की सबसे ऊँची इमारतों में से एक है। हालांकि दिन में बस से घूमते हुए उसे देख लिया था, लेकिन इस जगह से वो काफ़ी नज़दीक दिख रहा था। ऊपर रेस्टोरेंट बना हुआ था, जिसमें भोजन करते हुए शहर का नज़ारा देख सकते हैं।
लेकिन जैसा नाम वैसे दाम, इतनी ऊंचाई पर सस्ते में थोड़े ही चढ़ सकते हैं। हमने चौक में ही खड़े होकर उसकी ऊंचाई का आभास किया। रेस्टोरेंट के बाहरी हिस्से में लगा हुआ झूला नीचे से हमें बच्चों के खिलौने वाला झूला जैसा दिख रहा था। लोग वहां एडवेंचर के लिए भी जाते हैं। लाइटिंग बहुत सुंदर थी चारों ओर। पानी के फ़व्वारों से यह जगह चौपाटी जैसी लग रही थी। आस-पास बड़े-बड़े ब्रांड की शॉप्स और मॉल थे। हमने भी वहां कुछ शॉपिंग की। आठ बज गये थे और यहां 8 बजने से पहले ही ग्राहकों की एंट्री बंद हो जाती है और ठीक आठ बजे सब बंद।
ऐसा नहीं कि ख़रीदार हैं तो थोड़ी देर से बंद कर दें, सब समय के पाबंद हैं। ऐसे नियम और अनुशासन हों तो देश का विकास कौन रोक सकता है। अगले दिन हमें यात्रा करनी थी ज़्यूरिक (स्विट्ज़रलैंड) की। तो मिलते हैं यात्रा के अगले पड़ाव पर।
क्रमशः

प्रवेश सोनी
कविता और चित्रकला, यानी दो भाषाओं, दो लिपियों को साधने वाली प्रवेश के कलाकार की ख़ूबी यह है कि वह एक ही दौर में शिक्षक भी हैं और विद्यार्थी भी। 'बहुत बोलती हैं औरतें' उनका प्रकाशित कविता संग्रह है और समवेत व एकल अनेक चित्र प्रदर्शनियां उनके नाम दर्ज हैं। शताधिक साहित्य पुस्तकों के कवर चित्रों, अनेक कविता पोस्टरों और रेखांकनों के लिए चर्चित हैं। आब-ओ-हवा के प्रारंभिक स्तंभकारों में शुमार रही हैं।
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Feels like we are traveling with you . Beautiful words framing …
धन्यवाद आपका