
- August 6, 2025
- आब-ओ-हवा
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(शब्द और रंग, दोनों दुनियाओं में बेहतरीन दख़ल रखने वाली प्रवेश सोनी हाल ही, क़रीब महीने भर की यूरोप यात्रा से लौटी हैं। कवि और कलाकार की नज़र से, आब-ओ-हवा के लिए अपनी इस यात्रा के कुछ विशिष्ट अनुभव क्रमबद्ध ढंग से वह दर्ज कर रही हैं। उनके शब्दों में ऐसी रवानी है कि शब्दों से ही चित्र दिखने लगते हैं। साप्ताहिक पेशकश के तौर पर हर बुधवार यहां पढ़िए प्रवेश की यूरोप डायरी - संपादक)
प्रवेश सोनी की कलम से....
सैर कर ग़ाफ़िल...: एक कलाकार की यूरोप डायरी-10
1/5/2025
बर्लिन से ज़्यूरिक (स्विट्ज़रलैंड)
एक मई, अंतरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस। शाम चार बजे हमारी फ्लाइट थी बर्लिन से ज़्यूरिक के लिए। वहां से आगे की यात्रा ट्रेन से करनी थी। बिटिया ने कहा हमारे पास दिन में काफ़ी समय है कुछ बाज़ार या घुमक्कड़ी के लिए। जब आंखों में स्विट्ज़रलैंड का ख्याल हो तो अब बर्लिन में क्या घूमना जो ख़ास था वो देख चुके थे। शॉपिंग कर नहीं सकते थे क्योंकि सब जगह मज़दूर दिवस का अवकाश था। अतः हम जा बैठे नदी के किनारे। बड़ी सुंदर जगह थी, कैपिटल बीच कहते हैं उसे। वहां काफ़ी लोग छुट्टी का आनंद ले रहे थे। समंदर के बीच जैसा ही लग रहा था। एक किनारे चौपाटी तो दूसरी तरफ़ बड़ी बड़ी बिल्डिंग्स जिनकी छाया पानी में ऐसे दिख रही थी जैसे एक बिल्डिंग पानी में भी है, नाव भी आ—जा रही थी। पास में बड़ा—सा गार्डन था।
समय हो गया था फ़्लाइट का। औपचारिकताएं पूरी करके हम उड़कर स्विट्ज़रलैंड के शहर ज़्यूरिक पहुंचे। स्विट्ज़रलैंड एक ख़ूबसूरत और समृद्ध यूरोपीय देश है, जो अपनी प्राकृतिक सुंदरता, शांतिपूर्ण वातावरण, ऊँचे पहाड़ों, घड़ियों, चॉकलेट और वित्तीय सेवाओं के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध है। हमारे देश में आम जन की ज़ुबान पर आये शब्द- स्विस बैंक और काला धन यहीं के बैंकों की ही देन हैं।
ज़्यूरिक से हमें ट्रेन से बर्न (Bern स्विट्ज़रलैंड की राजधानी) होते हुए इंटरलॉकन शहर पहुंचना था। वहां से थोड़ी दूरी एक विलेज घई (Ghei) में हमारा होमस्टे था। इस दौरान हमारे साथ जो घटना घटित हुई वो हमेशा के लिए यादगार बन गयी।
कुछ सेकिंड्स की देर होती तो…
हुआ यूं कि एयरपोर्ट पर पहले तो कैब लेने के लिए हम ग़लत साइड पहुंच गये। वहां कोई कैब आ ही नहीं रही थी। एक गार्ड ने हमारी उलझन समझी और हमें सही जगह पहुंचने का रास्ता बताया। इस पार से उस पार पहुंचना, मतलब जहां से आये उसी जगह वापिस जाना। एयरपोर्ट छोटी जगह पर तो होते नहीं हैं, बहुत चलना पड़ा फिर सही स्थान पर पहुंचे। इस भटकन में हमारा बहुत समय बर्बाद हो गया। एक, दो, तीन कैब कैंसिल होने के बाद जब चौथी कैब आयी और उसमें बैठे तो ड्राइवर मस्ती में मस्त होकर ड्राइव करने वाला मिला। ट्रेन का समय नज़दीक था और रेल्वे स्टेशन से दूरी कम ही नहीं हो रही थी। सबकी धड़कन दौड़ने लगी। अब क्या होगा ट्रेन छूट गयी तो..!
बिटिया ने गूगल मैप दिखाकर ड्राइवर से विनती की, भाई थोड़ा तेज़ चलाकर हमें हमारी मंज़िल पर पहुंचा दे। ‘फ़ाइव मिनिट… ओनली फ़ाइव मिनिट..’ स्टेशन पर सामान उठाकर लगभग दौड़ते हुए सूचना बोर्ड तक पहुंचे। मुझे तो कुछ समझ नहीं आया बिटिया ने कहा, मम्मी दौड़ो हमें 35वें प्लेटफ़ॉर्म पर पहुंचना है! और हम जहां खड़े थे वहां से गिनती शुरू हो रही थी। हमारे पास दस मिनिट की मोहलत थी ट्रेन पकड़ने के लिए…
यहां ट्रेनें समय की पाबंद और पूरी तरह ऑटोमेटिक हैं, अपने कल—पुर्जों के अलावा किसी और की एक न सुनें। हम दोनों पति पत्नी बेटी के पीछे और बेटी 25 किलो का सूटकेस घसीटती हुई रास्ते के ऐरो देखती हुई पूरी गति से दौड़ रही थी। दो एस्कैलेटर सीढ़ियों की तरह उतरकर प्लेटफ़ॉर्म पर पहुंचे तो ट्रेन सामने थी। और हमारे पास थी 2 मिनिट की जीवन रेखा।
अब असमंजस कि क्या यही ट्रेन है हमारी, नंबर मिलाने का समय नहीं और कोच भी पता नहीं हमारा कहां है। ले प्रभु का नाम जो कोच सामने था, हम उसमें ही चढ़ गये। कुछ ही सेकिंड्स के बाद ट्रेन के ऑटोमैटिक दरवाज़े बंद हो गये। ट्रेन सही है तो हमसे ज़्यादा ख़ुशक़िस्मत कोई नहीं और यदि ग़लत है तो भारी जुर्माना देना पड़ सकता है, कोई एक्सक्यूज़ यहां काम नहीं करता। एक महाशय को बेटी ने टिकिट दिखाकर पूछा कि क्या यह इसी ट्रेन का टिकिट है? उन्होंने इतनी तसल्ली दी कि यह बर्न जाएगी। डूबते को तिनके का सहारा मिला।
थोड़ी देर में टिकिट चेक करने वाली आंटीजी आयीं। वो मोबाइल में टिकिट देख रही थीं और हम तीनों उसके चेहरे को ऐसे देख रहे थे जैसे भगवान के सामने प्रार्थना में हाथ फैला रखे हों और उनके तथास्तु कहने का इंतज़ार हो। तसल्ली होने के बाद उसने कहा कि आप ग़लत कोच में चढ़ गये हैं, यह फ़र्स्ट क्लास है आपको सेकिंड क्लास में जाना है। उसके बताये गये मार्ग से हम अपने कोच में पहुंचे और लम्बी सांस लेकर अपनी सीट पर जमे तो उस समय हमें अपने सारे पुण्य याद आ रहे थे।
यह घटना किसी फ़िल्मी दृश्य जैसी घटित हुई। जैसे यश चोपड़ा की फ़िल्म ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ की अभिनेत्री काजोल का ट्रेन छूटने जैसा दृश्य। हम थे भी लगभग उसी लोकेशन पर। स्विट्ज़रलैंड में यश चोपड़ा की फ़िल्में बहुत बनीं। डीडीएलजे की शूटिंग की लोकेशन पर स्टेच्यू भी बने हुए हैं, इनमें से एक यश जी का भी है। यह भी प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है यहां का।
आख़िर हम स्विट्ज़रलैंड पहुंच चुके थे। जब होम स्टे पहुंचे तो बड़ी बेटी फ़्रैंकफ़र्ट से डायरेक्ट पहले ही पहुंच चुकी थी। हमारे लिए खाना भी बनाकर लायी थी। हमने भोजन के साथ—साथ अपनी यात्रा के क़िस्से ऐसे सुनाये, जैसे बहुत बड़ा युद्ध जीतकर लौटे हों।
होम स्टे बहुत ही सुंदर था। बाहर छोटा—सा बाग़ीचा, जिसमें आराम कुर्सियों के साथ टेबल और सेल वाली मोमबत्तियां जल रही थीं। यह स्थान था तो गांव लेकिन यहां के गांव भी बहुत सुंदर हैं। खुले आसमान में तारे चमक रहे थे। हमारे यहां ऐसा साफ़ और सितारों वाला आसमान कोविड के समय दिखा था। झील भी नज़दीक थी। तय हुआ कि अगली सुबह जल्दी वॉक करेंगे और सुहाने रास्ते और लुभावने पहाड़ों को निहारेंगे।
वैसे अगले दिन जुंगफ़्राऊ (Jungfrau) जो स्विट्ज़रलैंड की सबसे प्रसिद्ध और आकर्षक पर्वत चोटियों में से एक है, वहां जाना था। यह एक शानदार पर्यटन स्थल है जो अपने बर्फ़ से ढंके पहाड़ों, ग्लेशियरों और अद्भुत रेलवे यात्रा के लिए दुनियाभर के पर्यटकों को आकर्षित करता है। तो मिलते हैं अगले हफ़्ते बर्फ़ीले पहाड़ों पर…
क्रमशः

प्रवेश सोनी
कविता और चित्रकला, यानी दो भाषाओं, दो लिपियों को साधने वाली प्रवेश के कलाकार की ख़ूबी यह है कि वह एक ही दौर में शिक्षक भी हैं और विद्यार्थी भी। 'बहुत बोलती हैं औरतें' उनका प्रकाशित कविता संग्रह है और समवेत व एकल अनेक चित्र प्रदर्शनियां उनके नाम दर्ज हैं। शताधिक साहित्य पुस्तकों के कवर चित्रों, अनेक कविता पोस्टरों और रेखांकनों के लिए चर्चित हैं। आब-ओ-हवा के प्रारंभिक स्तंभकारों में शुमार रही हैं।
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