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शैलेन्द्र चौहान की कलम से....

बिहार में माताओं के स्तनदूध में यूरेनियम, समस्या व समाधान

            बिहार के छह ज़िलों— भोजपुर, बेगूसराय, समस्तीपुर, खगड़िया, नालंदा और कटिहार में माताओं के स्तनदूध में यूरेनियम की उपस्थिति एक साधारण “रिपोर्टेड फ़ैक्ट” नहीं है; यह ऐसे संकट का संकेत है, जिसकी जड़ें ज़मीन के भीतर भी हैं और व्यवस्था के भीतर भी। यह मामला जितना वैज्ञानिक है, उतना ही सामाजिक और राजनीतिक भी। और इसका विश्लेषण करने के लिए हमें उन परतों में उतरना पड़ता है, जहाँ भू-विज्ञान, मातृ-स्वास्थ्य, प्रशासनिक जवाबदेही और पर्यावरण न्याय एक-दूसरे से टकराते हैं। हमें इस प्रश्न का उत्तर भी खोजना होता है कि ऐसी स्थिति में क्या स्तनपान न कराना कोई विकल्प है!

समस्या की वैज्ञानिक पृष्ठभूमि

यूरेनियम, एक रेडियोधर्मी धातु, पृथ्वी की सतह पर प्राकृतिक रूप से मौजूद होती है। भू-जल में इसका जाना असामान्य नहीं, लेकिन इसकी मात्रा कई क्षेत्रों में “पैथोलॉजिकल” स्तर तक पहुँच जाती है यानी वह स्तर, जहाँ से मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव शुरू हो सकता है। भारत के उत्तर-पश्चिमी हिस्सों —पंजाब, हरियाणा, राजस्थान— में यह समस्या पहले से दर्ज है। बिहार इसकी सूची में नया जुड़ा हुआ प्रदेश है।

नयी रिपोर्ट के अनुसार, 17–35 वर्ष की 40 स्तनपान कराने वाली महिलाओं के दूध के नमूने लिये गये और हर नमूने में यूरेनियम पाया गया। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि दूध एक “बायो-इंडिकेटर” की तरह काम करता है। माँ के शरीर में जो भी खनिज, विष, प्रदूषक जाते हैं, उनका प्रतिफल दूध में मिलता है। अर्थात् यह सिर्फ़ एक जैविक तथ्य नहीं, बल्कि पर्यावरणीय चेतावनी है।

वैज्ञानिकों के अनुसार, यूरेनियम के दो प्रमुख जोखिम हैं। पहला रासायनिक— यह गुर्दों पर प्रभाव डालता है और बच्चों में वृद्धि व तंत्रिका-विकास (neurodevelopment) को प्रभावित कर सकता है। दूसरा जोखिम रेडियोधर्मी नहीं, बल्कि लम्बे समय तक सूक्ष्म ख़ुराक के संपर्क में बने रहने से जुड़ा “सबक्लिनिकल” प्रभाव है— जैसे स्मृति, ध्यान, प्रतिरोधक-क्षमता का प्रभावित होना। यह दोनों जोखिम शिशुओं में अधिक गंभीर इसलिए हैं क्योंकि उनका शरीर अभी निर्माण अवस्था में होता है।

वैज्ञानिक समुदाय ने इस जोखिम को “non-carcinogenic hazard” की श्रेणी में रखा है— अर्थात यह कैंसर पैदा करने वाली स्थिति की तुलना में, विकास और अंगों पर असर डालने वाली स्थिति है। यहाँ यह भी ज़रूरी है कि स्तनदूध में यूरेनियम की “सुरक्षित सीमा” दुनिया में तय नहीं हुई है; ऐसे में किसी निष्कर्ष पर कूदना ठोस वैज्ञानिक आधार के बिना संभव नहीं।

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भू-जल का संकट: समस्या की जड़ें

बिहार के इन जिलों में भू-जल की गुणवत्ता का संकट नया नहीं है— आर्सेनिक, फ्लोराइड, आयरन, लेड जैसी धातुओं के उच्च स्तर पहले से रिपोर्ट हो चुके हैं। गंगा के मैदानी क्षेत्र में नदियों के साथ-साथ तलछट (sediment) में कई प्रकार के रेडियो-धात्विक खनिज जमा रहते हैं, जो भू-जल में घुलकर हानिकारक हो जाते हैं। लेकिन समस्या केवल प्राकृतिक नहीं। कई क्षेत्र ऐसे हैं, जहाँ मानवजनित (man-made) कारण भू-जल को अधिक विषाक्त बनाते हैं— जैसे अत्यधिक भू-जल दोहन, खनन गतिविधियाँ, औद्योगिक कचरा और अनुपयुक्त जल-संचयन तरीके।

वैज्ञानिक समुदाय अब इस संभावना की ओर उंगली उठा रहा है कि बिहार में यूरेनियम की मात्रा बढ़ने का एक कारण भू-जल का गहरा दोहन हो सकता है। जब जल-स्तर नीचे जाता है तो पानी पुराने, गाढ़े तलछट वाले भू-तलों से गुज़रता है और रेडियोधर्मी धात्विक तत्व अधिक मात्रा में घुलकर ऊपर आते हैं। इसलिए यह समस्या केवल “एक अध्ययन की खोज” नहीं, बल्कि जलविज्ञान (hydro-geology) में गहरी संरचनात्मक गड़बड़ी का संकेत है।

माताएँ क्यों प्रभावित? और सामाजिक अर्थ

माँ के शरीर में जाने वाला हर अंश शिशु के शरीर का हिस्सा बन जाता है। ग्रामीण महिलाओं का पानी और भोजन अधिकतर स्थानीय भू-जल पर आधारित होता है। बिहार के अनेक जिलों में नल-जल योजनाएँ कागज़ पर मौजूद हैं, लेकिन गाँवों में लोग अब भी हैंडपंपों पर निर्भर हैं और कई हैंडपंप ऐसे हैं जिनकी जल-परीक्षण रिपोर्टें न वर्षों से सुधरीं, न बदलीं।

स्तनपान कराने वाली महिलाएँ एक संवेदनशील समूह हैं क्योंकि उनका पोषण अक्सर औसत से कम होता है, स्वास्थ्य सेवाओं की पहुँच सीमित होती है और पानी का विकल्प चुनने की आर्थिक-सामाजिक क्षमता भी कम होती है। ऐसे में भू-जल के प्रदूषण का असर सबसे पहले उन्हीं पर दिखता है।

यह प्रश्न भी उठता है कि माताओं के दूध की जाँच एक वैज्ञानिक लाइफ़-लाइन है या एक नैतिक चेतावनी? दोनों हैं। दूध में यूरेनियम का मिलना इस बात का संकेत है कि प्रदूषण सतही नहीं, बल्कि शरीर और अगली पीढ़ी की जैविक संरचना तक पहुँच चुका है।

प्रशासन और नीति: जवाबदेही की दरारें

इस अध्ययन ने एक असहज सत्य को सामने रखा है, हमारे यहाँ पानी की गुणवत्ता को लेकर न तो पर्याप्त निगरानी (monitoring) है और न ही पारदर्शिता। सरकारें अक्सर नल-जल योजनाओं के निर्माण का दावा करती हैं, लेकिन जल-गुणवत्ता परीक्षण का डेटा या तो सार्वजनिक नहीं होता, या नियमित रूप से अपडेट नहीं किया जाता।

भारत में पीने के पानी में यूरेनियम के लिए कोई ठोस राष्ट्रीय मानक अभी तक तय नहीं। कई देशों में 30µg/L (माइक्रोग्राम प्रति लीटर) या उससे कम को सुरक्षित माना जाता है, लेकिन भारत में यह सीमा राज्यों के विवेक पर छोड़ दी गयी है। ऐसी स्थिति में भू-जल का संकट और गंभीर हो जाता है।

एक और समस्या है—बायोमॉनिटरिंग का अभाव। यदि पानी में विषाक्त पदार्थ घुलते हैं, तो उन्हें शरीर में प्रवेश कर चुके हैं या नहीं, यह जाँचने का कोई बड़ा तंत्र नहीं है। यह अध्ययन मूलतः इसी कमी को उजागर करता है।

क्या संकट से बड़ा है भ्रम? वैज्ञानिक समझ का महत्व

ऐसी ख़बरें अक्सर एक दिशा में ले जाती हैं— भय। और भय से पैदा होता है भ्रम। कई मीडिया रिपोर्टें ऐसे हेडलाइन बनाती हैं कि लोगों में यह भ्रम फैल जाता है कि स्तनपान करवाना असुरक्षित है। वैज्ञानिक समुदाय ने साफ़ कहा है कि स्तनपान कभी भी बंद नहीं किया जाना चाहिए। दूध में यूरेनियम की उपस्थिति जोखिम का संकेत है, लेकिन स्तनपान उसके लाभों की तुलना में कहीं कम हानिकारक है।

स्तनदूध में एंटीबॉडीज़ होती हैं, पोषण अत्यंत संतुलित होता है और शिशु की रोग-प्रतिरोधक शक्ति विकसित करती है। इसलिए दुनियाभर के डॉक्टर इस पर सहमति रखते हैं कि यूरेनियम की मौजूदगी चिंताजनक है, लेकिन स्तनपान बंद करना कोई समाधान नहीं—समाधान है प्रदूषण रोकना।

विज्ञान मात्र नहीं—पर्यावरण न्याय की कहानी

इस घटना में एक पैटर्न दिखायी देता है: पर्यावरणीय प्रदूषण सबसे पहले ग़रीब समुदायों पर असर डालता है। यह एक वैश्विक पैटर्न है—अफ्रीका से लेकर एशिया तक, उत्तर-अमेरिका के ‘ब्लैक बेल्ट’ से लेकर भारत के ‘बेल्ट ऑफ टॉक्सिसिटी’ तक।

बिहार के ये जिले वही हैं, जहाँ स्वास्थ्य ढांचा कमज़ोर है, शिक्षा-स्तर औसत से कम है और स्थानीय प्रशासन संसाधनहीन। यहाँ के लोग अपने पानी को जांचने या बदलने की क्षमता नहीं रखते। ऐसी परिस्थितियों में पर्यावरण प्रदूषण एक सामाजिक अन्याय बन जाता है, जहाँ एक वर्ग प्रदूषण पैदा करता है, और दूसरा वर्ग उसे झेलता है।

आगे की राह: विज्ञान, नीति, समाज के बीच सेतु

इस संकट से निपटने के लिए तीन स्तरों पर बदलाव ज़रूरी हैं:

  • —भू-जल निगरानी का विस्तार। हर ज़िले में जल-गुणवत्ता का मासिक परीक्षण एक मानक प्रक्रिया बने। डेटा सार्वजनिक हो, डिजिटल हो और स्थानीय भाषा में पढ़ने-लायक़ हो।
  • —बायोमॉनिटरिंग। माताओं, बच्चों, और संवेदनशील समूहों के लिए नियमित स्वास्थ्य मूल्यांकन ज़रूरी है। अगर विषाक्त तत्व उनके शरीर में जा रहे हैं तो पता चल सके।
  • —विकेन्द्रीकृत जल-शुद्धिकरण। गाँव-स्तर पर सामुदायिक जल-फिल्टर संयंत्र, रेन-वाटर हार्वेस्टिंग और सुरक्षित जल स्रोतों की पहचान इस समस्या को आंशिक रूप से कम कर सकती है।

और सबसे अहम— इस संकट को “स्वास्थ्य समस्या” नहीं, “पर्यावरण-अन्याय की समस्या” के रूप में समझना चाहिए। क्योंकि जब प्रदूषण अगली पीढ़ी के शरीर में पहुँचने लगे तो वह सिर्फ़ वैज्ञानिक तथ्य नहीं, बल्कि सामाजिक चेतावनी बन जाता है।

यह संकट एक अवसर भी

बिहार के स्तनदूध में यूरेनियम की मौजूदगी एक चिंता है, लेकिन सत्य को उजागर करना हमेशा पहला क़दम होता है। अब यह समाज, सरकार और वैज्ञानिक समुदाय पर निर्भर है कि इस सत्य के साथ कैसे व्यवहार किया जाये।

अगर इसे केवल “अजीब घटना” समझकर छोड़ दिया गया, तो आने वाली पीढ़ियाँ इसका दंश झेलेंगी। अगर इसे “आँकड़ों की जागरूक चेतावनी” मान लिया गया, तो यह देश के जल-प्रबंधन और पर्यावरण नीति में उस सुधार को जन्म दे सकता है जिसकी भारत को दशकों से ज़रूरत है।

संप्रति आवश्यकता इस बात की है कि विज्ञान का यह संकेत केवल भय पैदा न करे, बल्कि बदलाव की दिशा में एक वास्तविक क़दम बने क्योंकि विषाक्त भू-जल केवल रासायनिक समस्या नहीं, बल्कि मानवीय अस्तित्व का प्रश्न है। यह मुद्दा आज की माताओं से नहीं, आने वाली पीढ़ियों से जुड़ा हुआ है, और वहीं इसकी गम्भीरता भी निहित है।

शैलेंद्र चौहान, shailendra chauhan

शैलेंद्र चौहान

नियमित लेखन एवं स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहे शैलेंद्र चौहान जयपुर में रहते हैं। 1983 से क​काव्य संग्रह के प्रकाशन का सिलसिला शुरू हुआ और अब तक गद्य एवं पद्य की दर्जन भर पुस्तकें खाते में हैं। 1979 से 'धरती' पत्रिका का संपादन करते हुए कई चर्चित विशेषांक एक और उपलब्धि रहे। संपर्क-7838897877

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