joker, digital, pixabay image
पाक्षिक ब्लॉग अरुण अर्णव खरे की कलम से....

व्यंग्य: इक्कीसवीं सदी के अछूते विषय

           समय के साथ बहुत-सी चीज़ें बदलती रहती हैं। जीवन-शैली बदलती है, परिवेश बदलता है, मान्यताएँ बदलती हैं, संस्कृति बदलती है, दृष्टि बदलती है, सोच बदलती है, और यदि व्यंग्यकार की दृष्टि से देखें तो विसंगतियाँ भी बदल जाती हैं। यह बात कुछ लोगों को अजीब लग सकती है। वे तर्क देंगे कि आस्था कहाँ बदली है? कूपमंडूकता कहाँ बदली है? दकियानूसी कहाँ बदली है? जातिवादी दुराग्रह कहाँ बदले हैं? स्त्री-पुरुष भेदभाव कहाँ बदला है? धार्मिक-अंधानुकरण कहाँ बदला है? सब कुछ तो पहले जैसा ही बदस्तूर जारी है।

स्थूल दृष्टि से देखने पर यह तर्क सही भी लगता है। किंतु जब हम गहराई में उतरकर देखते हैं, तो पाते हैं कि ये सारी विसंगतियाँ न केवल जस की तस बनी हुई हैं, बल्कि पहले से कहीं अधिक भयावह रूप में हमारे सामने खड़ी हैं। यही कारण है कि एक-डेढ़ शताब्दी बाद भी व्यंग्यकार इन विषयों पर लिख रहे हैं। हिंदी साहित्य के शुरूआती वर्षों में भी इन विषयों पर तबके लेखकों ने ख़ूब कलम चलायी थी और बाद में परसाई से लेकर विनोद विक्की तथा नवीन जैन तक की रचनाओं में इनकी गूँज सुनी जा सकती है।

दरअसल, ये विसंगतियाँ इतनी गहराई तक समा चुकी हैं कि समय के साथ पैदा हुई नयी विसंगतियाँ या तो हमें दिखायी नहीं देतीं या हम उन्हें सुविधानुसार नज़रअंदाज़ कर देते हैं। पुरानी विसंगतियाँ, सामाजिक और मानवीय दृष्टि से नासूर की तरह चिपकी हुई हैं, तो वर्तमान समय की अनेक विसंगतियाँ सीधे व्यक्ति को चुनौती दे रही हैं। व्यक्ति विशेष इनका निशाना है, और ये व्यक्ति नामक इकाई के लिए किसी कैंसर से कम नहीं हैं।
आज हमारे जीवन में जितनी विसंगतियाँ घर कर चुकी हैं, उतनी शायद किसी और कालखंड में नहीं रही होंगी। प्रश्न यह है कि इन विसंगतियों पर व्यंग्यकार की पैनी नज़र क्यों नहीं पड़ रही है? क्यों वे अब भी उन्हीं पुरानी विसंगतियों पर, पुराने शैलीगत उपकरणों का सहारा लेकर शर-संधान कर रहे हैं? आज लिखने के लिए विषयों की कोई कमी नहीं है, लेकिन उन पर गंभीरता से लिखा नहीं जा रहा है। यदि कहीं कुछ लिखा भी जा रहा है तो वह प्रायः बहुत सतही, सरसरी और सीमित दायरे में ही सिमटकर रह जाता है। ये विसंगतियाँ कौन-सी हैं, उनका स्वरूप क्या है और व्यंग्य के विषय किस प्रकार हो सकते हैं, यह चर्चा, हम यहाँ विस्तार से करेंगे।

सोशल मीडिया अल्गोरिद्म

सबसे पहले बात करते हैं सोशल मीडिया से उपजी विसंगतियों की, जिसने किशोरों से लेकर बुजुर्गों तक, सभी को अपनी गिरफ़्त में ले रखा है। इसका सबसे गहरा असर पारिवारिक और सामाजिक ताने-बाने पर पड़ा है, रिश्तों में अजीब-सा रूखापन घुल गया है और आपसी संवाद लगभग समाप्ति की ओर बढ़ते जा रहे हैं। संवाद की परंपरा का आलम यह है कि स्वजन और मित्र भी एक-दूसरे को कॉल करने के बजाय ऑनलाइन स्टेटस देखकर संतोष कर लेते हैं। लोग सोशल मीडिया पर अपनी एक ऐसी काल्पनिक दुनिया रच रहे हैं, जो वास्तविकता से कोसों दूर है। कई तो अपनी पहचान छुपाकर इस आभासी संसार के अंधेरे को और गहराने में लगे हैं। ऑनलाइन डेटिंग ऐप्स ने रिश्तों को और अधिक जटिल व अस्थिर बना दिया है, जिससे बच्चे और युवा भटकाव की ओर खिंचते जा रहे हैं। अपराधी प्रकृति का कोई भी व्यक्ति फ़र्ज़ी प्रोफ़ाइल बनाकर उनका मानसिक और दैहिक शोषण करने के लिए घात लगाये बैठा है। हम आये-दिन अख़बारों में छपे ऐसे समाचारों से गुजरते रहते हैं। आज के बच्चे जिन समस्याओं को लेकर सर्वाधिक परेशान हैं, उनमें साइबर बुलिंग, साइबर स्टाकिंग, फिशिंग जैसे साइबर अपराध तथा छेडखानी किये जाने, पीछा किए जाने, बदनाम किये जाने जैसी समस्याएँ प्रमुख हैं। दुनिया के अनेक बड़े विद्यालय इन अपराधों से निपटने के लिए बड़ी राशि खर्च कर रहे हैं।

सोशल मीडिया ने जहाँ पूरी दुनिया से संपर्क को सहज बना दिया है, मित्रता के नये द्वार खोले हैं और सूचना के आदान-प्रदान को द्रुतगामी बनाया है, वहीं उसने अनाम दुश्मनों की भी फ़ौज खड़ी कर दी है। आपकी कोई बात पसंद न आने पर अनजान व्यक्ति भी आपको ट्रोल करने लगता है। ट्रोलिंग के शिकार अनेक लोग अवसाद में पहुँचते देखे गये हैं। इसी के साथ फ़ेक न्यूज़ का ऐसा जाल बुना जाने लगा है कि सामान्य समझ के व्यक्ति के लिए सच और झूठ के बीच अंतर करना कठिन हो गया है। ए.आई. के आगमन ने तो इसे और पेचीदा बना दिया है, आपके चिर-परिचित समाचार वाचकों के चेहरों के क्लोन बनाकर उन्हें फ़र्ज़ी-समाचारों का न्यूज़-रीडर बना दिया जाता है। सामान्य-समझ के व्यक्ति के लिए फ़ेक-न्यूज़ के सच और झूठ के बीच के अंतर को समझ पाना मुश्किल हो गया है। आजकल फेक न्यूज का हाल ये है कि अगर कोई बोले “सूरज पश्चिम से निकला” तो लोग पहले देखेंगे नहीं, दोस्तों को टैग कर पूछेंगे- “भैया, सच में?”

सोशल मीडिया ने आपको बाज़ारवाद का ऐसा मोहरा बना दिया है कि आपको पता ही नहीं चला कि आप कब उपभोक्ता में तब्दील हो गए। आपकी कोई जानकारी अब केवल आपकी नहीं रही; आपकी हर गतिविधि पर सोशल मीडिया की नज़र रहती है। आपस में किसी से बात कीजिए, और तुरंत वैसा ही विज्ञापन आपकी स्क्रीन पर प्रकट हो जाएगा। मसलन, आपने घुटनों के दर्द या प्रोस्टेटाइटिस की चर्चा छेड़ी, तो आपका अकाउंट जापानी तेल, आयुर्वेदिक इलाज और चमत्कारी मलहम के विज्ञापनों से भर जाएगा। प्रलोभन इस तरह परोसे जाते हैं कि बरबस ही खरीदारी की ललक जाग उठती है और यदि खरीद न पाएँ, तो पछतावे में घिर जाते हैं। यह इन्फ्लुएंसर्स और एल्गोरिद्म की अजीब दुनिया है, जो आपके मन को अपनी गिरफ्त में लेना भलीभाँति जानती है।

गेमिंग और रील्स

ऑनलाइन गेमिंग ने बच्चों के जीवन में एक क्रूर कारनामा किया है। इन खेलों ने उनके भीतर उत्तेजना तो भरी ही, धीरे-धीरे जुए की लत भी उनके भीतर अधिरोपित कर दी है। आपने देखा होगा कि रोब्लॉक्स अथवा फोर्टनिट जैसे खेल, खेलते समय बच्चे किस तरह चीखते-चिल्लाते हैं। इन खेलों में हर दिन नये फीचर जोड़े जाते हैं, जिन्हें डाउनलोड करने के लिए पैसों की ज़रूरत होती है। जब बार-बार पैसे माँगना संभव नहीं होता, तो वे अक्सर ग़लत रास्ते अपनाने लगते हैं। इत्तेफ़ाक से यदि बच्चे के पास ये खेल खेलने के साधन ही न हों, तो उसमें एक अलग क़िस्म का हीनभाव (इनफीरियर कॉम्प्लेक्स) पनपने लगता है। बच्चों को ख़तरनाक और मौत तक के टास्क देने वाले ‘ब्लू व्हेल गेम’ का आतंक कुछ वर्ष पहले भले ही थम गया हो और इस पर प्रतिबंध लग चुका हो, लेकिन उसकी दहशत आज भी लोगों के मन में ताज़ा है। ऐसे खेलों ने बड़ों को भी नहीं बख्शा है। उनके लिए भी अब खास तरह के खेल डिज़ाइन किए जाने लगे हैं। ‘माइंड-स्टॉर्मिंग’ के नाम पर कभी सपनों की क्रिकेट टीम चुनवाकर, तो कभी कार्ड गेम खेलवाकर बड़ी राशि जीतने का प्रलोभन दिया जाता है। असल में यह खेल नहीं, लत है, जहाँ उम्मीदें खिलती हैं और जेबें खाली होती जाती हैं।

आज के दौर में रील्स की दीवानगी भी कम ख़तरनाक नहीं। 15 से 60 सेकंड की रील बनाकर रातो-रात स्टार बनने की ललक बच्चों को अपनी असलियत और सुरक्षा तक दाँव पर लगाने के लिए मजबूर कर देती है और हद तो तब हो जाती है, जब माता-पिता भी अपने बच्चों को वायरल होने के गुर सिखाते दिखायी देते हैं। इस वर्चुअल दुनिया में ‘वायरल’ होने की सनक ने नयी-नयी विसंगतियों को जन्म दिया है, जो न केवल समाज बल्कि अगली पीढ़ी के भविष्य को भी ख़तरनाक मोड़ पर पहुँचा रही हैं।

ऐप्स और निजता

बैंकिंग ऐप्स ने घर बैठे पैसों का लेन-देन बेहद आसान बना दिया है। डिजिटल पेमेंट्स ने इस सुविधा को और व्यापक बनाया है, लेकिन इसके साथ ही एक ऐसे खतरनाक मुहाने पर भी खड़ा कर दिया है, जहाँ ज़रा-सी लापरवाही आपका पूरा बैंक अकाउंट खाली कर सकती है। अक्सर किसी दोस्त या परिचित के नाम से आई लिंक पर क्लिक करते ही आपके अकाउंट की जानकारी दूर बैठे साइबर ठगों तक पहुँच जाती है और फिर आपके पास पछताने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता। अब तो ये इंबेडेड लिंक बड़े लुभावने ऑफ़रों, त्योहारों पर शुभकामना संदेशों, बैंक अकाउंट बंद होने की चेतावनी, के.वाई.सी. अपडेट करने के नोटिस, कूरियर/पार्सल की स्थिति जानने के बहाने, घर बैठे पाँच सौ रुपए रोज़ कमाएँ जैसे प्रलोभनों और सरकारी योजनाओं का लाभ उठाने के नाम पर रजिस्ट्रेशन जैसे संदेशों के रूप में सामने आते हैं। इनका असली उद्देश्य केवल आपकी निजी जानकारी चुराना और आपको ठगना होता है। तकनीकी दुनिया में यह पूरी प्रक्रिया फिशिंग (Phishing) या ऑनलाइन स्कैम कहलाती है, जो आज की सबसे घातक डिजिटल ठगी का रूप बन चुकी है। फिशिंग द्वारा आपकी बैंक डिटेल, पासवर्ड, ओटीपी चुरा लिए जाते हैं तथा मोबाइल/कंप्यूटर में वायरस या स्पाईवेयर डाल दिया जाता है जिससे हमेशा आपकी गोपनीय जानकारियाँ ठगों के पास पहुँचती रहती हैं।

निजता की सुरक्षा आज के समय की सबसे बड़ी चुनौती है। जब भी आप इंटरनेट पर कुछ खोजते हैं, किसी वेबसाइट पर जाते हैं, या सोशल मीडिया पर लाइक-कमेंट करते हैं, तो उसका डिजिटल फुटप्रिंट बन जाता है। यही डिजिटल फुटप्रिंट्स वेबसाइट्स के सर्वर पर सुरक्षित रहते हैं और धीरे-धीरे आपके प्रोफाइल, आदतों और पसंद-नापसंद का पूरा डेटा तैयार कर लेते हैं। बड़ी टेक कंपनियाँ और ऐप डेवलपर्स अक्सर इस डेटा को थर्ड-पार्टी कंपनियों को बेचते हैं। यदि आपने एक बार ऑनलाइन “जूते” सर्च किए, तो अगले कई दिनों तक आपके सामने जूतों के विज्ञापन ही विज्ञापन तैरते रहते हैं, ऐसा आपकी निजता के हनन के कारण होता है।

साइबर वर्ल्ड का खेल

आतंकवादी संगठन भी डिजिटल क्रांति का दुरुपयोग साइबर हमला करने की नई विधियां खोजने में कर रहे हैं। साइबर क्राइम एक गंभीर चुनौती बन गया है। साइबर टेररिज्म और साइबर वार के खतरे लगातार बढ रहे हैं। आई.एस.आई.एस. इंटरनेट के जरिए भर्तियाँ कर रहा है। ई मेल और चैट जैसे पारंपरिक माध्यमों से इतर अपराधिक तत्व अपनी पहचान छोड़े बिना ‘वायस ओवर इंटरनेट प्रोटोकाल’ के जरिए काल करने लगे हैं। ट्विटर जैसे माइक्रो ब्लागिंग साइट का प्रयोग कर वे एक दूसरे की गतिविधियों से अवगत रहते हैं। सूचना भेजने के लिए भी आधुनिकतम कूटलेखन (इंक्रिप्शन) का उपयोग किया जाता है।

आपके मोबाइल ऐप्स भी लगातार आपकी लोकेशन ट्रैक करते रहते हैं, जिससे आपकी दिनचर्या, घर का पता, ऑफिस और यात्रा-पैटर्न उजागर हो जाते हैं। लोग अपनी निजी जानकारियाँ- जन्मदिन, परिवार की तस्वीरें, बच्चों के नाम, ट्रिप की डिटेल्स, सोशल मीडिया पर सहज ही डाल देते हैं। मनोरंजन और लाइक्स पाने के लिए साझा की गयी यही जानकारियाँ ठगों और अपराधियों के लिए ख़ज़ाने से कम नहीं होतीं। कंपनियाँ इन्हीं को कच्चा माल बनाकर मुनाफ़ा कमाती हैं, और अपराधी इन्हीं से ठगी का जाल बुनते हैं।

आपने कभी ग़ौर किया होगा कि अचानक ही आपके पास एक ख़ास विचारधारा से जुड़े, आपकी ही तरह की रुचियों वाले और आपके व्यक्तित्व से मेल खाते लोगों के मित्रता संदेशों की बाढ़ आ जाती है। साथ ही, आपको ऐसे ही लोगों को मित्रता अनुरोध भेजने के लिए भी प्रेरित किया जाने लगता है। यह सब संयोग नहीं होता, बल्कि आपकी ही दी गई जानकारियों का इस्तेमाल करके आपके दिमाग़ को प्रभावित करने का एक सुनियोजित खेल होता है। कई बार अनजाने में आप इस खेल के शिकार भी हो जाते हैं।

व्यंग्य के नये विषय

ये सभी विसंगतियाँ हमारे दैनिक जीवन से गहराई से जुड़ी हुई हैं और हमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित कर रही हैं। इन पर लिखे जाने वाले संभावित विषय हो सकते हैं- ‘आभासी दुनिया’, ‘रिश्तों में आई खामोशी’, ‘ऑनलाइन दोस्ती, ऑफलाइन दूरी’, ‘फेक न्यूज़ की फैक्टरी’, ‘अनाम दुश्मनों के हाथ में निजता’, ‘ट्रोललोक की दुनिया’, ‘उपभोक्तावाद’, ‘बाजारवाद का जाल’, ‘आपका डेटा, आपका नहीं’, ‘लाइक्स की कैद में ज़िंदगी’, ‘इन्फ्लुएंसर्स का मायाजाल’, ‘गेमिंग – नई पीढ़ी का नशा’, ‘रील्स और वायरल कल्चर’, ‘वायरल होने की सनक’, ‘15 सेकंड का स्टारडम’, ‘वायरल होने की बीमारी’, ‘साइबर अपराध’, ‘लुभावनी लिंक, खाली खाते’, ‘फिशिंग: आधुनिक ठगी का हथियार’, ‘साइबर ठगों के नए हथकंडे’, ‘एक क्लिक का अंजाम’, ‘निजता का संकट’, ‘आपकी जानकारी, सबकी संपत्ति’, ‘लोकेशन ट्रैकिंग’ तथा ‘आभासी दोस्त- सच या छल’। ऐसे ही कुछ और शीर्षक भी हो सकते हैं, जो विषय की गहराई में उतरने पर स्वतः ही लेखनी के दौरान आकार लेते जाएँगे।

इन विषयों पर अब तक पर्याप्त लेखन नहीं हुआ है, और जो कुछ लिखा गया है, वह बहुत कम है। अध्ययन के आधार पर कुछ नाम ध्यान में आते हैं, जिन्होंने इन विषयों पर लिखा है। इन व्यंग्यकारों में रमेश सैनी, गिरीश पंकज, कमलेश पांडेय, विवेक रंजन श्रीवास्तव, रवि प्रकाश, मुरली श्रीवास्तव, अभिजीत दूबे, बजरंग सोनी, सुरेश कुमार उरतृप्त और अरुण अर्णव खरे के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। हाल ही प्रकाशित अरुण अर्णव खरे का व्यंग्य-संग्रह “डियर! तुम बुद्धू हो” पूरी तरह से सोशल मीडिया की विसंगतियों पर केंद्रित है। इसमें कुल 34 व्यंग्य शामिल हैं, जो सोशल मीडिया के अलग-अलग पहलुओं और उसके प्रभावों पर चोट करते हैं।

सोशल मीडिया की विसंगतियों के अतिरिक्त भी ऐसे अनगिनत विषय हैं, जिन पर लिखा जाना देशहित में अत्यंत आवश्यक है। इनमें से कुछ सनातन विसंगतियाँ हैं, लेकिन आज इनका स्वरूप बदला हुआ है। इन विसंगतियों में बौद्धिक संपदा का पलायन, संस्थानों की गिरती साख, अफ़सरशाही की हठधर्मिता, सत्ता-शिखर पर बैठे लोगों का अमर्यादित आचरण और भाषा का गिरता स्तर, बढ़ता प्रदूषण, अनियंत्रित विकास, आपदा प्रबंधन की अनदेखी, तकनीक का दुरुपयोग, समलैंगिकता, बाबाओं का पाखंड, एलियंस की दुनिया, किसान समस्या, राजनीति का पतन और ज़िम्मेदार व्यक्तियों के ग़ैर ज़िम्मेदार बयान जैसी अनगिनत विसंगतियाँ शामिल हैं। पढ़े-लिखे, उच्च-शिक्षित बच्चे देश में रहना नहीं चाहते। व्यवस्था की जड़ता और खामियाँ आज भी इस राह की सबसे बड़ी रुकावट बनी हुई हैं। राजनीति का स्तर दिनो-दिन नीचे गिरता जा रहा है। दल-बदल विरोधी तथा सूचना के अधिकार जैसे कानून बेमानी बना दिये गये हैं। राजनीति आपराधिक तत्वों की सुरक्षित शरणस्थली बनती जा रही है। भ्रष्टाचार पर दोमुँही नीतियाँ अपनायी जाती हैं। अनियंत्रित विकास का दुष्परिणाम हम पहाड़ी इलाकों में आये-दिन देखते हैं और अब तो मैदानी क्षेत्रों में भी बारिश का कहर आम हो गया है। कुछ बाबा उच्छृंखलता की सीमा तक धार्मिक पाखंड फैला रहे हैं। धार्मिक सभाओं में नरसंहार का आह्वान करने और दूसरे धर्मों के ख़िलाफ़ आग उगलने की प्रवृत्ति अचानक बढ़ गयी है। अंध-आध्यात्मिकता और बाबाओं की अंधभक्ति ने विवेक को तिलांजलि देकर आस्था को तमाशा बना दिया है। एक सौ चालीस करोड़ की आबादी के बावजूद हमारी संस्कृति के तथाकथित ठेकेदार हर किसी को तीन से अधिक बच्चे पैदा करने की सलाह देने से बाज़ नहीं आ रहे। तकनीक का दुरुपयोग भी विकराल रूप ले चुका है। देश में फ़र्ज़ी टेलीफ़ोन एक्सचेंज, फ़र्ज़ी कार्यालय, फ़र्ज़ी इंस्पेक्टर, यहाँ तक कि फ़र्ज़ी अदालतें चलाते हुए लोग पकड़े जा चुके हैं। क़ानून के हाथ लगातार छोटे होते जा रहे हैं। जेल में बंद बाबाओं को चुनाव के समय पैरोल मिल जाता है और बलात्कारियों के छूटने पर सम्मान समारोह आयोजित किये जाने लगे हैं…

ये कुछ ऐसी विसंगतियाँ हैं जो समय के साथ और भी विकराल होती जा रही हैं। इन पर पहले भी लिखा गया है और आज भी लिखा जा रहा है, लेकिन अब लेखन में वह आँच, वह तीखापन नहीं दिखता, जो इन विसंगतियों के जनकों को झकझोर सके। आज सबसे पहली ज़रूरत है कि इन विषयों की विसंगतियों से सबको जागरूक किया जाये। यह तभी संभव है, जब व्यंग्यकार स्वयं इन विसंगतियों के मूल कारणों की पहचान करने का प्रयास करें और उन्हें समझने के लिए पर्याप्त अध्ययन करें।

अरुण अर्णव खरे, arun arnaw khare

अरुण अर्णव खरे

अभियांत्रिकीय क्षेत्र में वरिष्ठ पद से सेवानिवृत्त। कथा एवं व्यंग्य साहित्य में चर्चित हस्ताक्षर। बीस से अधिक प्रतिष्ठित सम्मान प्राप्त। अपने माता-पिता की स्मृति में 'शांति-गया' साहित्यिक सम्मान समारोह आयोजित करते हैं। दो उपन्यास, पांच कथा संग्रह, चार व्यंग्य संग्रह और दो काव्य संग्रह के साथ ही अनेक समवेत संकलनों में शामिल तथा देश भर में पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन। खेलों से संबंधित लेखन में विशेष रुचि, इसकी भी नौ पुस्तकें आपके नाम। दो ​विश्व हिंदी सम्मेलनों में शिरकत के साथ ही मॉरिशस में 'हिंदी की सांस्कृतिक विरासत' विषय पर व्याख्यान भी।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *