ghazal lau aur dhuan
नियमित ब्लॉग आशीष दशोत्तर की कलम से....

ज़माने की बात को अपनी बात बनाने का शऊर

             रहगुज़र बेशक हर वक़्त तैयार रहती है मुसाफ़िर के क़दमों को आगे बढ़ाने के लिए, मगर यह मुसाफ़िर को तय करना होता है कि वह उस रहगुज़र पर चले या अपनी नयी राह बनाये। या उस रहगुज़र पर चलते हुए कुछ ऐसा करे, जिससे उस राह पर उसके पैरों के नक़्श आने वाला वक़्त पहचाने। ग़ज़ल की रहगुज़र भी कुछ ऐसी ही है। वह हर मुसाफ़िर के लिए हर वक़्त तैयार रहती है। इस पर चलने वाले को ही यह तय करना होता है कि वह बनी बनायी राह पर चलता रहे या उस पर चलते हुए कुछ ऐसा कहे जो उसे अलग पहचान दे।

इस लिहाज़ से बीते वक़्तों से लेकर आज के दौर में भी बहुत अलहदा प्रयोग शाइरी में हो रहे हैं। ये ऐसे प्रयोग हैं जो हमारी ज़िन्दगी से जुड़े हैं। हमारी बातचीत के लहजे में शामिल हैं, इसलिए ये सीधे असर कर रहे हैं। आज सामईन बहुत उलझने या कहन के दाव-पेंच में पड़ना नहीं चाहते। वे कुछ ऐसा चाहते हैं, जो उनके बिल्कुल क़रीब का हो। उन्हें छूता हुआ गुज़रे। जैसे शकील जमाली कहते हैं-

ये विल्स का पैकेट, ये सफ़ारी, ये नग़ीने
हुजरों में मेरे भाई ये नक़्शे नहीं चलते

एक पूरा का पूरा फ़लसफ़ा बहुत सादा ज़ुबान में कह देना आज की शाइरी में शुमार हो चुका है। जो कहा जा चुका है उसे बार-बार दोहराने से बेहतर है कि कहन में कुछ ऐसी नवीनता हो, जो पढ़ने वाले को ताज़गी का एहसास करवाये। उसे यह लगे कि यह मेरे भीतर की ही बात है। शाइर विजय वाते कहते भी हैं-

यूं तो कहते हैं यहां पर कुछ न कुछ हम तुम सभी
बात मेरी थी, तुम्हें अपनी लगी, अच्छा लगा

बात बहुत नज़ाकत से भी कही जा रही है, बहुत सलासत से भी और बहुत हिफ़ाज़त से भी। कहन का यही सलीक़ा आज की शाइरी को लोगों के और क़रीब ला रहा है। बहुत आमफ़हम ज़ुबान में ज़िन्दगी के वे अल्फ़ाज़ हमारी शाइरी में शामिल हो रहे हैं जिनसे कभी परहेज़ किया जाता था। आज का शाइर उन्हें अपनी शाइरी में ढालकर अपने हर शेर को लोगों के क़रीब लाने की कोशिश कर रहा है। यहां अनिरुद्ध सिन्हा के कहन की शैली मानीख़ेज़ है-

दुल्हन-सी पत्तियां जो शाखों से जुड़ी थीं
कंप-कंप के गिरीं एक दिन झोकों के बहाने

यक़ीनन बहुत कुछ ऐसा है जिसे ‘डिलीट’ करने की ज़रूरत है। मगर बहुत कुछ ऐसा भी है जिसे ज़िन्दगी की फाइल में ‘सेव’ भी करना है। यह आज के दौर की शाइरी को तय करना है कि वह किसे ‘डिलीट’ करे और किसे ‘सेव’। कहीं इस आपाधापी में फ़हमी बदायूंनी का यह शेर मौज़ूं न लगने लगे-

ख़ुशी से काँप रही थीं ये उँगलियाँ इतनी
डिलीट हो गया इक शख़्स सेव करने में

बदलते वक़्त की शाइरी ने हर दौर में बहुत कुछ बदला है। इस दौर में भी बहुत कुछ बदल रही है। बदलाव का यह सिलसिला शाइरी को ख़ूबसूरत मोड़ तक ले जाये, यही उम्मीद करें।

आशीष दशोत्तर

आशीष दशोत्तर

ख़ुद को तालिबे-इल्म कहते हैं। ये भी कहते हैं कि अभी लफ़्ज़ों को सलीक़े से रखने, संवारने और समझने की कोशिश में मुब्तला हैं और अपने अग्रजों को पढ़ने की कोशिश में कहीं कुछ लिखना भी जारी है। आशीष दशोत्तर पत्र पत्रिकाओं में लगातार छपते हैं और आपकी क़रीब आधा दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हैं।

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