
- September 9, 2025
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कवियों की भाव-संपदा, विचार-वीथिका और संवेदन-विश्व को खंगालती इस डायरी का मक़सद प्रकाशन पूर्व पाठक-लेखक संवाद बनाना रहा, जो जल्द पुस्तकाकार प्रकाशित हो रही है। अब यहां इसे यहीं विराम दे रहे हैं...
जयप्रकाश मानस की कलम से....
पूर्वपाठ — एक कवि की डायरी : भाग-22
24 जून, 2020
चुरचुटिया के साथ एक दोपहर
आज घर में चुरचुटिया की महक है। वही ग्वारफली जिसके बिना छत्तीसगढ़ी रसोई अधूरी लगती है। माँ कहती थीं- “इसके बिना तो खाना खाने का मन ही नहीं करता।” बाज़ार से लाते समय कोचनीन ने कहा- “आजकल थोरेक महँगी चलत हे बाबू।” पर जब टमाटर और कोंचई के साथ पड़ी हुई देखी तो लगा- क़ीमत से ज़्यादा इसका रंग मूल्यवान है। हरा-हरा, जैसे बारिश के बाद का जंगल।
रसोई से आवाज़ आ रही है- “चुल्हा पर चढ़ गयी हे।” आलू-प्याज़ के साथ यह कैसा नाच रही है! जैसे कोई छत्तीसगढ़ी लोकगीत का ताल। एक मज़ेदार बात पता चली- जो लोग नाक पर ग़ुस्सा चढ़ाये रखते हैं, उनके लिए यह रामबाण है। पित्त को शांत करती है। शायद इसीलिए छत्तीसगढ़ के कवि इतने शांत स्वभाव के होते हैं। उनकी कविताओं में ग़ुस्सा नहीं, हरियाली बहती है। मन हुआ कि कुछ छत्तीसगढ़ी में वह भी गुनगुनाये-
“भाजी कस सुग्घर तोर लफरा लफरा बाल हे
पताल असन तोर गाल हे!
कुँदरु चानी कस ओंट हाबय
चुनचुनिया भाजी कस गोठ हे!
हाय रे मोर करेला चानी हाय रे मोर
चुरचुटिया!
तोर अँगरी लागाथे माकसम एकदम
रमकेलिया!
कसम से करथौं तोला अबढ मया!!
टुरी-
हत रे रोगहा तारीफ़ करे ल घलो नई आबय!
का मेहा तोला साग भाजी के पसरा दिखथंव रे?”
अचानक याद आया- कल ही एक शहरी मित्र ने पूछा था- “यह कौन सी सब्ज़ी है?” मैं चुप रह गया था। कैसे समझाता कि यह सिर्फ़ सब्ज़ी नहीं, हमारे जीने का तरीक़ा है। रसोई से आवाज़ आयी- “तैयार हे!” प्लेट में परोसी गयी चुरचुटिया देखकर लगा- यह नहीं, यह तो हमारी माटी की सोंधी खुशबू है, जो पेट में नहीं, मन में उतरती है।
कांति कुमार जैन और फ़िक्सिंग
डॉ. कांति कुमार जैन का नाम लेने से प्रतिष्ठित लेखक, समीक्षक और संस्मरण जैसी हाशिये की विधा को नयी पहचान दिलाने वाले ख्यात रचनाकार; अधिक से अधिक मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ के एक सुपरिचित शिक्षाविद् की छवि उभरती है।
शायद हिन्दी-संसार के बहुत कम लोगों को यह ख़बर हो कि वे बेहतरीन बाल-गीत भी लिखते हैं। बिलकुल पूरे बाल-मन से। बिलकुल नये अंदाज़ से। संयोग से इस पांडुलिपि की एक प्रति मेरे पास भी सुरक्षित है: ‘नयी सदी स्वागत है तेरा’। इसमें डॉ. साहब ने 21वीं सदी के बच्चों के लिए 21 गीत रचे हैं। पता नहीं-यह किताब छपी या नहीं पर ऐसी किताबें भी आग्रह के साथ ज़रूर छापनी चाहिए। एक बालगीत:
फ़िक्सिंग
मिस्टर बंदर बड़े खिलाड़ी
ख़ूब ख़रीदें बँगले गाड़ी
जब देखो तब मारें सिक्सर
जब देखो तब जायें खाड़ी
उनकी घुटती है क्रोन्ये से
जमा किये बैंकों में पैसे
फ़िक्सिंग करना आम हुआ था
क्रिकेट नहीं था, महज़ जुआ था
25 जून, 2020
झारखंड से खंडवा
सुबह-सुबह वरिष्ठ कवि-आलोचक विजय कुमार को पढ़ रहा था- 7 वर्ष पूर्व प्रकाशित उनका एक आलेख। युवा या समकालीन कविता पर पर विमर्श जैसी कुछ बातें। कुछ से सहमत, कुछ से व्यक्तिगत तौर पर असहमत होते हुए भी आलेख के अंत में पहुँचकर एकबारगी समकालीन कवियों और उनकी कविताओं की स्थिति पर पूर्णतः मुस्काते हुए उनकी पंक्तियाँ लगभग गा उठा:
ज़िंदगी झण्डवा
फिर भी घमण्डवा
कवित्त ही कवित्त
झारखण्ड से खण्डवा।
1 जुलाई, 2014
मिलें वैसे ही
नदी के भीतर पानी की दो बूँदे
बहती-बहती कहती-सुनती
एक दूजे की
जैसे मिल जातीं एक ही लय में
मिलें जब भी हम-तुम
मिलें वैसे ही
शब्दों की लय और दिन की धूप
आज सुबह खिड़की से झाँका तो देखा- धूप ने अपनी उँगलियाँ फैलाकर आँगन को छू लिया था। वही पुरानी धूप, नये ढंग से।
‘ली’ धातु से जन्मी लय की बात करनी थी। लगा- यह धूप भी तो ‘ली’ धातु से ही चल रही है। सुबह से शाम तक का सफ़र, फिर कल फिर आएगी। आवृत्ति का यह नृत्य। दोपहर में नल का पानी सुनने बैठ गया। टप-टप-टप… एक अनियमित लय। सोचने लगा- क्या अनियमितता भी एक लय है? शायद हाँ। जैसे बच्चे की हँसी में कोई ताल नहीं होता, पर वह भी तो लय ही है।
डॉक्टर साहब ने कल दिल की धड़कन गिनी थी- 72 बार एक मिनट में। यह शरीर की सबसे पुरानी कविता है। ‘धक-धक’ के दो अक्षर, जो जन्म से मृत्यु तक एक ही छंद में चलते हैं।
शाम को रिक्शेवाले ने पूछा- “कहाँ जाना है?” मैं चुप रहा। उसके पैडल चलने की आवाज़ सुनने लगा- चीं-चीं-चीं… यह भी तो लय है। शहर की लय, जो कहीं नहीं जाना चाहती, बस चलते रहना चाहती है।
रात में चाय की चुस्कियाँ लेते हुए सोच रहा हूँ- हमारी ज़िंदगी में लय कहाँ है? अख़बार के पन्ने पलटने में? मोबाइल की नोटिफ़िकेशन में? या उस पुराने पेड़ में जिसके नीचे बैठकर अब कोई नहीं पढ़ता? आज फ़ेसबुक वाले मित्र ने पूछा था- “लय क्या है?” अब जवाब देना चाहूँगा-
लय वह धागा है जो
हमारे सुबह के उठने से
रात के सोने तक
बिना बुने ही बुनता चलता है
और कभी टूटता नहीं,
बस कभी-कभी
हमारी सुनने की शक्ति कम हो जाती है
तो फिर बन जाइए विक्रम बुद्धि !
कल दीर्घ अंतराल के बाद अशोक शर्मा जी से भेंट हुई— वे जाने-माने टेक्नोक्रेट हैं, और प्रोद्योगिकी शब्दों के साथ न्याय करने वाले एक सधे हुए विचारक भी। बातचीत का सिलसिला इंटरनेट की दुनिया पर टिका, फिर धीरे-धीरे उसकी सबसे विकट समस्या तक जा पहुँचा: ‘बुलिंग’। शर्मा सर का मत स्पष्ट था— “इंटरनेट के पर्दे के पीछे छिपकर दुर्व्यवहार करने वालों को बिना किसी रियायत के सज़ा मिलनी चाहिए, नहीं तो ये आज़ाद घूमते साँड की तरह इस आभासी दुनिया को भी रौंद डालेंगे।”
तभी उन्होंने विक्रम बुद्धि का प्रसंग याद दिलाया: अड़तीस वर्षीय एक भारतीय इंजीनियर, पीएच.डी. का मेधावी शोधार्थी, चश्मे के पीछे से दुनिया को जाँचती दो चमकती आँखें। एक दिन, शायद मज़ाक़ में, शायद ग़लतफ़हमी में, या शायद जानबूझकर—उसने पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश, उपराष्ट्रपति डिक चेनी और उनकी पत्नियों को धमकी भरा ईमेल भेज दिया। नतीजा? शिकागो की अदालत ने इस ‘साइबर बुलिंग’ का जवाब 57 महीने की जेल की सज़ा से दिया— चार साल, नौ महीने का कारावास।
अब सोचिए, उसके भविष्य का क्या हुआ होगा? उसके माता-पिता के सपनों का क्या हुआ होगा? यदि आप इसकी गंभीरता नहीं समझ पा रहे हैं, तो फिर बन जाइए विक्रम बुद्धि!
कवि और उसका अद्वितीय संसार: एक विस्तार
कवि चीज़ों के बीच संबंध ढूँढ़ता है, पर यह खोज अक्सर एक विचित्र विडंबना को जन्म देती है– वह अद्वितीयता के आग्रह में इतना उलझ जाता है कि संसार के साथ साक्षात्कार की मूल भावना ही गौण हो जाती है। धीरे-धीरे, वह अपने निर्मित संसार में इस तरह समा जाता है कि उसकी कविता मिले हुए यथार्थ को विस्तार देने के बजाय उससे पलायन का मार्ग बन जाती है। यहाँ वह कुंठित होता है– क्या कविता वास्तव में दुनिया से मिलने का माध्यम है, या केवल स्वयं को सुरक्षित करने का एक साधन?
इस संदर्भ में केदारनाथ सिंह की प्रसिद्ध कविता “बाघ” (संग्रह: ‘अकाल में सारस’, 1988) याद आती है, जहाँ बाघ एक प्रतीक बनकर उभरता है– न केवल जंगल का, बल्कि उस अदृश्य आतंक का भी जो मनुष्य के भीतर छिपा रहता है। केदार जी ने इस कविता में बाह्य और आंतरिक यथार्थ का ऐसा साक्षात्कार किया है जो कवि के ‘अद्वितीय’ होने के आग्रह से आगे निकलकर सामूहिक चेतना तक पहुँचता है। पर आज का कवि? वह अक्सर इस सामूहिकता से कटकर अपने निजी बिम्बों के जंगल में भटक जाता है– जहाँ न तो बाघ का भय है, न ही उसकी उपस्थिति का सत्य।
और तब कविता क्या रह जाती है? एक सुरक्षित कोण से देखा गया दृश्य, जहाँ रूमानी अभिव्यक्तियाँ तो हैं, पर वह तीखी चुभन नहीं जो कविता को ‘घटना’ बनाती है। अशोक वाजपेयी जी ने एक जगह लिखा था– “कविता तभी कविता है जब वह हमें हमारे समय की जटिलता से रूबरू कराये।” पर आज का कवि अक्सर इस जटिलता से बचने के लिए अमूर्तता के गलियारों में भाग जाता है।
पानी और प्रलय
अब तक खेत में पानी ऐसा उतरता था जैसे मुँह में लार- अनायास, स्वाभाविक, शरीर और भूमि का अटूट सम्वाद। पर अब? किसने छेंक दिया है इस पवित्र संबंध को? कौन सा शैतानी हस्तक्षेप है जो गाँव-घर तक पहुँचने को आतुर राजधानी की प्यास को भी नहीं समझता? क्या बादल वास्तव में बैरी हो गये हैं? क्यों हवाएँ अपनी त्यौरियाँ चढ़ाकर हमारे खेतों के सामने से गुज़र जाती हैं जैसे कोई रिश्तेदार ऋण लेकर भाग जाता है?
अल्ला होता तो ज़रूर… वह मेघ देता, पानी देता, गुड़धानी देता। पर क्या हमने उस अल्ला को नहीं मार डाला? उस देवता को जो हमारी नदियों में बसता था, हमारे कुओं में झाँकता था, हमारे बचपन की गलियों में कागज़ की नावों के साथ बहता था। आज तो काग़ज़ पर भी पानी नहीं- शायद इसलिए कि कविता भी अब उस जल को नहीं पकड़ पाती जो कभी हमारे शब्दों में लबालब भरा रहता था।
पिछले कई दिनों से तन ही नहीं, मन भी उमस में डूबा है। यह उमस कोई साधारण गर्मी नहीं- यह तो मानवता को निगल जाने को आतुर एक अदृश्य राक्षस है। प्रकृति हमारी आकृति बिगाड़ रही है क्योंकि हमने ही उसे बिगाड़ने की सारी हदें पार कर दी हैं। यह कोई प्राकृतिक प्रतिकार नहीं, यह तो हमारी शैतानी का भस्मासुरी रूप है- वही राक्षस जो अंततः स्वयं को ही भस्म कर डालता है।
घर का अंतरिक्ष
घर कुछ ख़ाली-ख़ाली सा है। घर कुछ भरा-भरा सा है। यह ख़ालीपन वैसा है, जैसे तालाब का सारा जल अचानक फसलों की प्यास बुझाने निकल गया हो और अब केवल सूखे पत्थरों की याद बची हो। पर यह भराव भी उतना ही सच है, जैसे घाट-घाट पर लबालब जल की छवियों की चर्चा चल रही हो, जबकि तालाब तो दूर से ही सूखा दिखता है।
एक बेटे का पहली बार घर से दूर जाना- यह पीड़ा पिता तभी समझ सकता है जब माँ ने उसे समझा हो। क्या आपने कभी ग़ौर किया है? बेटे की पहली गुरु माँ होती है और पिता की भी गुरु वही माँ होती है- जो दोनों के बीच की भाषा बन जाती है। प्रशांत की यह अनुपस्थिति साल दर साल ऐसे घर में समायी हुई है, जैसे कोई दूसरा तुलसीदास राम के वनवास के नये दोहे गढ़ रहा हो- पर इस बार यह वनवास नियति नहीं, आधुनिकता की विवशता है।
दैत्य और दफ़्तर
जीवन में पहली बार आज एक दैत्य को देखा— कोई राक्षस नहीं, कोई पौराणिक चित्र नहीं, बल्कि इंसान का बेटा, जो इस देश में सबसे योग्य होने की परीक्षा पास करके भी पूर्ण अयोग्य सिद्ध हुआ। उसकी आईएएस की उपाधि देखकर मन ही मन थूक दिया— क्या यही है वह व्यवस्था जिसके लिए तुलसीदास ने लिखा था “जे गरिब पर हित करहिं, ते रघुकुल राजा”? आज के ये तथाकथित राजा तो ग़रीबों पर ही हाथ उठाने वाले दैत्य हैं— हमारे गणतंत्र के सबसे गंदे दीमक जो संविधान की लकीरों को कुतरकर अपने लिए महल बना रहे हैं।
ये कौन हैं? ज़ालिमज़ोर, तानाशाह, कागज़ी घोड़े जिन्हें उबड़-खाबड़ ज़मीन पर चलना तक नहीं आता। ये वे अव्यावहारिक योजनाकार हैं, जिनकी सनक ने गाँवों को काग़ज़ों में दफ़न कर दिया। इन्हें देखकर लगता है मानो कोई बच्चा चौपड़ के पासों से शहर बना रहा हो—जहाँ हर फ़ैसला एक जुआ है और हर नीति एक दाँव। क्या यही हैं वे ब्रह्मा जिन्हें हमने देश का भाग्य रचने का अधिकार दे दिया? ये तो रट्टू तोते हैं जो जंगल की भाषा भूल चुके हैं— न इन्हें पेड़ों की पीड़ा समझनी है, न जड़ों की जुबान आती है।
पुराने लोग ऐसे नहीं थे। वे इंसान थे— जिनकी आँखों में धूल थी, हाथों में छाले थे, और दिल में गाँवों की धड़कन बसती थी। ये नये दैत्य हैं— जिनके लिए फ़ाइलें ही फ़सलें हैं और स्क्रीन ही खेत। इनसे मुक्ति पाये बिना यह देश काग़ज़ों के जंगल में भटकता रहेगा। और अब नींद के लिए समय देना होगा— वर्ना वह पूछेगी: “मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?” शायद यही कि वह हमें इन दैत्यों के सामने बेबस छोड़ देती है— जागते रहने का साहस नहीं देती।

जयप्रकाश मानस
छत्तीसगढ़ शासन में वरिष्ठ अधिकारी जयप्रकाश मानस की कविताओं, निबंधों की दर्जन भर से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। आपने आधा दर्जन से अधिक साहित्यिक पुस्तकों का संपादन किया है और आपकी कविताओं का अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। यही नहीं, पाठ्यक्रमों में भी आपकी रचनाएं शामिल हैं और अनेक प्रतिष्ठित सम्मानों से आपको और आपकी पुस्तकों को नवाज़ा जा चुका है।
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