muzaffar hanfi, bashir badr
गूंज बाक़ी... पिछली पीढ़ियों के यादगार पन्ने हर गुरुवार। इस शृंखला में यह खुली चिट्ठी, जो साहित्यिक गलियारों में एक वक़्त बेहद चर्चा में रही। लेखक, अनुवादक व समाजसेवी फ़िरोज़ मुजफ़्फ़र के सौजन्य से हमें विशेष तौर से प्राप्त। (लिप्यंतरण व शब्दार्थ: ग़ज़ाला तबस्सुम)
खुली चिट्ठी कीर्तिशेष शायर मुज़फ़्फ़र हनफ़ी की कलम से....

बशीर बद्र के नाम मुज़फ़्फ़र हनफ़ी का वो चर्चित ख़त

           बशीर बदरम
तुम्हारा ख़त और दीपक क़मर का मजमुआ कलाम (काव्य संग्रह) मिल गये थे, मजमुए की रसीद शायर को फ़ौरन भेज दी थी। ख़त का जवाब तफ़सील तलब था(विस्तार मांग रहा था) इसलिए रुका रहा। फिर मेरी भाभी बीमार हो गयीं, उनका ऑपरेशन हुआ और फिर इंतक़ाल। इस सिलसिले में कई बार खंडवा, नागपुर वगै़रह जाना पड़ा, चुनांचे ताख़ीर हो गयी। उम्मीद है तुम माज़ूर जानकर इसके लिए मुझे मुआफ़ कर दोगे।

अफ़सोस है नुसरत मियां को हम लोग बावजूद ख़्वाहिश एम.ए. में दाखि़ला नहीं दे सके। अव्वल तो उन्होंने बी.ए. पांच साल क़ब्ल (पहले) किया था और हमारे यहां ज़्यादा से ज़्यादा दो साल के गैप की गुंजाइश है। दूसरे उन्होंने बी.ए. का दो साल का कोर्स किया था और यूनिवर्सिटी के नये क़ायदे के मुताबिक़ ऐसे उम्मीदवारों को जिन्होंने तीन साल बी.ए. कोर्स मुकम्मल ना किया हो, दाखि़ला नहीं दिया जा सकता। मैं और मेरे तमाम साथी मजबूर होकर रह गये। वह बच्चा बहुत ज़्यादा ज़हीन और तुमसे ज़्यादा समझदार है, ख़ुदा उसे कामरान व शादमां रखे।

तुमने एम.ए. (उर्दू) अलीगढ़ में रिकॉर्ड तोड़ नंबर लाने की बात की है और साथ ही अदब से बेनियाज़ हो जाने की ख़्वाहिश भी ज़ाहिर की है। और फिर इसी सांस में गै़र मुमालिक (परदेस) की महफ़िलों में फ़िल्मी अदाकारों से ज़्यादा मक़बूल व मशहूर होने पर फ़ख़्र किया है। ऐसा ही एक वाक़या कभी और हुआ था, पंडित नेहरू के जलसे में सामईन (श्रोता) कम थे और दिलीप कुमार की तक़रीर में नाज़रीन (दर्शक) ज़्यादा, तो उससे क्या यह साबित होता है प्यारे? यही ना कि तुम मुशायरा के बहुत मक़बूल शायर हो। अब इस हक़ीक़त से इनकार न कर देना कि बेकल उत्साही, कैफ़ भोपाली, मुनव्वर राना, राहत इंदौरी, साग़र आज़मी वग़ैरह अवामी मुशायरा में तुमसे भी ज़्यादा मक़बूल हैं तो? और मेरे भाई तुम मुझसे क्या ख़फ़ा हुए, उर्दू के तमाम शोअबों (विभागों) की अहमियत के मुनकिर (विरोधी) हो गये। हालांकि ऐसे ही एक शोअबा उर्दू ने तुम्हें कांस्टेबल से डॉक्टर बना दिया है और दूसरे ने प्रोफ़ेसर।

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बेशक रजि़या हामिद मेरी अज़ीज़ शायरा हैं और तुम्हारी मद्दाह (प्रशंसक)। हमारे तलबा (विद्यार्थियों) में राज़ इलाहाबादी और आलिम फ़तेहपुरी के फ़ैन भी होते हैं और ख़ुदा का शुक्र है कि हम जामिया में अपने शागिर्दों की सोच पर कदग़न (निषेधाज्ञा) नहीं लगाते। लेकिन इससे यह कहां तय पाया कि हम ख़ुद भी बशीर बद्र या एक्स/वाई/ज़ेड को पूजने लगेंगे। तुम बेशक मेरे दोस्त हो लेकिन ‘दोस्त आख़िर सनम नहीं होता’। तनक़ीद में दोस्ती सच बोलकर भी निभायी जाती है।

ज़ोए अंसारी ने मेरी किताब ‘एक्स रेज़’ को सख़्त नापसंद किया और मैंने उनकी दो तहरीर इस किताब में न सिर्फ़ पेशे लफ़्ज़ (प्रस्तावना) के तौर पर शामिल कीं बल्कि उस किताब का इंतसाब (समर्पण) भी ज़ोए के नाम किया। फिर मौसूफ़ (उल्लेखित, जिसका उल्लेख पहले किया गया हो) ने मेरी एक और किताब ‘वज़ाहती किताबयात’ के बखिये उधेड़े तो मैंने अपनी किताब “जाएज़े” उनके नाम मअनून (नामज़द करना) कर दी। ज़ोए और हम आज भी एक दूसरे के क़रीब हैं। तुमने दोस्ती के फ़राइज़ में हाशिया बरदारी (हाली मुहाली, दरबारी) भी शामिल कर रखी है क्या? मेरे यहां इसकी जगह खु़लूस (निश्छलता) और हक़गोई की अहमियत ज़ियादा है।

हां, रजि़या आयी थीं और अपने पर्चे के लिए तुम्हारे फ़न पर मुझसे मज़मून की ख़्वास्तगार (इच्छुक) थीं। क़ब्ल अज़ जयपुर के ‘इंतख़ाब’ वाले, इटावा के ‘लम्हे लम्हे’ वाले और लुधियाना के किसी जश्न वाले भी यह फ़रमाइश कर चुके थे और सभी ने कहा कि वह फ़रमाइश तुम्हारी ख़्वाहिश पर कर रहे हैं। मैंने हर एक से माज़रत (क्षमा याचना) की। आख़िर तुम मुझे अपना मद्दाह बनाने पर क्यों तुले हुए हो और सीधा-सादा मुंहफट दोस्त क्यों नहीं रहने देते? मैंने डॉक्टर रज़िया को समझाया था कि बावह ज़र्फ़ क़दहख़्वार (शराबी) के मुताबिक़ दिया जाता है। एक मज़मून के मुख़्तसर पैराग्राफ़ में जो बमुश्किल पांच छः सतरों पर मुश्तमिल (शामिल) था मैंने बशीर बद्र के बारे में इज़हार ख़याल (मंतव्य प्रकट) किया। उनमें से निस्फ़ हिस्सा (आधा हिस्सा) तो सैफ़ी (कोसना) था और ढाई तीन सतरें (पंक्तियां) शायरी की ख़ामी से मुतअ्ललिक थीं, जो शख़्स इन छह सात बरसों में वो ढाई तीन सतरें हज़म नहीं कर सका वह मुफ़स्सिल (सविवरण) मज़मून का मुस्तहमिल (हक़दार) क्या होगा?

यह मज़मून (नयी ग़ज़ल के बीस साल हिंदुस्तान में) 1980 में हिंद पाक के कई जरीदों (अखबार, पत्रिका) मसलन ‘शायर’ (मुंबई) ‘नैरंग हयाल’ (रावलपिंडी) में छपा था और बाद अजआं (उसके बाद) मेरे मजमुआ मक़ालात (विस्तृत समीक्षा) ‘जहात व जुस्तजू’ में शाया हुआ। इसकी इशाअत (प्रकाशन) के बाद तुम मुझसे कितना झगड़े थे, याद है? जमशेदपुर में तुमने मेरे साथ-साथ ग़ालिब, बेगाना और शाद आरफ़ी जैसे उमायदीन शेर-ओ-अदब (जैसे बड़े अहम शायर) को अच्छे ग़ज़लगोइयों की सफ़ (पंक्ति) से ख़ारिज कर दिया था क्योंकि ये सब नर्म व नाज़ुक़ जज़्बात व ख़्यालात की जगह ग़ज़ल में तल्ख़ हक़ीक़तें पेश करने की रोश (अंदाज़) पर ग़ामज़न (अग्रसर) थे। वापसी में हमारा कई घंटे ट्रेन पर साथ भी रहा और तुमने मुशायरा में पसंद की जाने वाली अपनी मक़बूल ग़ज़ल (कोई फूल दर्द की पत्तियों में हरे रिबन से बंधा हुआ) पर मेरी राय जाननी चाहिए थी और मैंने हर मिसरे का तजज़िया (विश्लेषण) करके तुम्हें इस रम्ज़ (रहस्य) से आशना किया था कि बक़ौल तुम्हारे जिन अशआर पर मुशायरे उलट जाते हैं, वो मुआएब (त्रुटिपूर्ण) की पोट से कम न थे।

बअदअज़ां (बाद इसके) यह ग़ज़ल बदली हुई शक्ल में देखकर मुझे फिराक़ गोरखपुरी याद आये, जिन्होंने अपनी ग़ज़ल का एक मतला बदलकर बाक़ायदा रिसाले (पत्र) में ऐतराफ़ (स्वीकार) किया था कि यह इसलाह शाद आरफ़ी की तनक़ीद (आलोचना) क़बूल करते हुए की गयी है। यही अच्छे और सच्चे शायरों का वतीरा (चाल-ढाल) है। जिस मज़मून से तुम इतने बरहम हो वह नासिर शर्मा (प्रोफेसर ज़ामिन अली मरहूम की साहबज़ादी) की फ़रमाइश पर जेएनयू कैंपस में मुनअक़िद (आयोजित) एक अदबी जलसे में पढ़ा गया था। यक़ीन न आये तो हसन नईम शाहिद हैं, आखि़री दम तक उन्होंने इस तनक़ीद पर किसी कबीदगी (रंजीदगी, मलाल) का इज़हार नहीं किया। और अक्सर मेरी ताज़ा ग़ज़लों के अशआर सुनाकर अपनी पसंदीदगी का इज़हार करते रहे। उन खरे शायरों के बरअक्स तुम हो कि जब तन्हाई मिले तो रवैया लचकदार और मसालहा (अच्छा) ना रहा। लेकिन जलसों में या दूसरों के सामने हमेशा बनावटी शान के साथ पेश आये। प्यारे बशीर बद्र खु़लूस (निश्चलता) सिर्फ अच्छी शायरी का ही जौहर नहीं, अच्छे शायर की पहचान भी है।

तुमने मेरी एक ग़ज़ल पर इज़हारे ख़्याल किया। बहुत-बहुत शुक्रिया। तुम्हारे नज़रयात को तब्दील करने की कोशिश मैं हरगिज़ नहीं करूंगा। यही क्या कम है कि इतनी कशीदगी (मनमुटाव, नाराज़गी) और असाब ज़दगी (बेचैनी, विफलता) के आलम में तनक़ीद करते हुए तुम्हें इसका एक शेर पसंद आ गया। मैंने ऐसी-ऐसी पंद्रह सौ ग़ज़लें कही हैं। बाक़ी रह जाने वाले कुछ शेर तो होंगे इनमें।

माद्दी असरात (आत्मिक) या ताल्लुक़ात के तहत मेरे क़सीदा लिखने की बात तुमने जिस सादालोही के साथ कही है, इस पर मर मिटा मैं तो। क्या तुमने अब्दुल लतीफ़ आज़मी साहब की शान में मेरा क़सीदा पढ़ा है? पढ़ा है तो इसे समझा भी है क्या? एक बार फिर पढ़कर देखो इसके माद्दी असरात कहां-कहां कारफ़रमा (असर डालने वाला) हैं! अगर तुम्हारा इशारा मुनव्वर राना से मुताअल्लिक़ मेरे मज़मून की जानिब है, तो वह ख़ुद तुम्हारे उस मज़मून के जवाब में लिखा गया था जो ‘शायर’ (मुंबई) में छपा था और जिसमें तुमने इंकशाफ़ (पर्दा उठाना) किया था कि ग़ज़लों की कोई ज़ुबान या इलाक़ा नहीं है। उर्दू के मिट जाने पर भी ग़ज़ल बाक़ी रहेगी।

मैं तो भाई मुनव्वर राना को तुमसे बेहतर मानता हूं हालांकि उन्होंने मेरी आज तक एक भी दावत नहीं की। न बड़े मुआवज़े पर किसी मुशायरा में मदऊ (दावत देना, बुलाना) किया। ये फ़ायदे तुमने उनसे ज़रूर हासिल किये हैं। मेरे ग़रीबख़ाने पर तो एक हूर्द (अच्छा) दोस्त की तरह आते हैं और कभी कोलकाता जाता हूं तो वहां अदब से पेश आते हैं। यही माद्दी असर मैंने क़बूल किया है उनसे। इसके बरअक्स मुझे भोपाल, कोलकाता, जमशेदपुर वग़ैरह की कई ऐसी नशिस्तें और मुशायरे याद आ रहे हैं, जहां तुम्हारे मुक़ाबले पर ‘कम मक़बूल’ फ़नकार सराहे गये और तुम्हें हूट किया गया। जहां तुम बानियाने मुशायरा (मुशायरे के आयोजक) की घंटों खुशामदें करते पाये गये। क्या ऐसी याददाश्तों को क़लमबंद करना पड़ेगा हम जैसे ‘छुटभइयों’ को! तुम्हारी फ़रमाइश पर मैं हंसता हूं। तुम भी इस हंसी में मेरा साथ दो लेकिन मेरे दोस्त याद रखो कि मुझे हंसी शाद आरफ़ी का यह शेर पढ़कर आयी है:

चंद बड़े लोगों से मिलकर मैंने ये महसूस किया है
अपनी बाबत नाअह्लों को क्या दिलचस्प ग़ुमाँ होते हैं

-तुम्हारा मुज़फ़्फ़र हनफ़ी

muzaffar hanfi, मुज़फ़्फ़र हनफ़ी

मुज़फ़्फ़र हनफ़ी

1 अप्रैल 1936 को खंडवा में जन्म। उर्दू में एम.ए. और पी.एच.डी. के बाद वन विभाग, एनसीईआरटी जैसे संस्थानों में सेवा के बाद जामिया मिल्लिया इस्लामिया के उर्दू विभाग में पदस्थ हुए। कलकत्ता विश्वविद्यालय में इक़बाल चेयर के प्राध्यापक रहे व उर्दू विभाग के प्रमुख। सौ से ज़्यादा किताबों के लेखक, प्रसिद्ध शायर और इस उर्दू साहित्यकार ने 10 अक्टूबर 2020 को संसार से विदा ली।

2 comments on “बशीर बद्र के नाम मुज़फ़्फ़र हनफ़ी का वो चर्चित ख़त

  1. लोग तो नाम कमाने में लगे रहते हैं
    आदमी काम से ज़िंदा हो तो मरता है कभी
    कांच पर बाल जो पड़ जाए निकलता है कहीं
    फूल अगर दिल में खिला हो तो बिखरता है कभी
    मुजफ़्फ़र हनफ़ी

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