
- September 30, 2025
- आब-ओ-हवा
- 7
तीस लाख की रॉयल्टी और छत्तीस तरह के विवाद... रायपुर में हुआ चौथा हिन्द युग्म उत्सव साहित्य की दुनिया में आख़िर क्यों निशाने और चर्चा में बना हुआ है?
विश्लेषण अशोक शर्मा की कलम से....
खिड़की में दीवार बनाने की ख़ुराफ़ात में लोग
हिन्द युग्म प्रकाशन ने विनोद कुमार शुक्ल की चार पुस्तकों की गत छह माह की बिक्री पर तीस लाख रुपये की रॉयल्टी का भुगतान रायपुर में आयोजित एक भव्य समारोह में किया। हिन्दवी और हिन्द युग्म द्वारा रायपुर में चौथे साहित्य उत्सव के दो दिवसीय संयुक्त आयोजन के दौरान पहले दिन एक विशेष सत्र में प्रकाशक शैलेष भारतवासी और अन्य उपस्थित प्रतिष्ठित साहित्यकारों द्वारा सार्वजनिक रूप से इस राशि का चेक विनोद जी को सौंपा गया। प्रकाशन संस्थान ने रॉयल्टी से संबंधित पुस्तकों की बिक्री का रिकॉर्ड भी प्रदर्शित किया। प्रकाशक के अनुसार इस अवधि में चारों पुस्तकों की कुल 92507 प्रतियों की बिक्री हुई है। इनमें भी विनोद जी की बहुचर्चित पुस्तक ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ की बेची गयी प्रतियों की संख्या 86897 घोषित की गयी है। इसके बाद से इस राशि को लेकर, प्रकाशक की मंशा को लेकर, और असली आयोजक को लेकर साहित्यकारों में ही हाय-तौबा मची हुई है। विशेष रूप से सोशल मीडिया पर तरह-तरह की टिप्पणियां हो रही हैं। कुछ लोग तो विनोद कुमार शुक्ल के लेखन को भी प्रश्नाधीन करने में लगे हुए हैं। अनेक लोगों ने ऐसी बिक्री संख्या को असंभव बता दिया है। अनेक लोग रॉयल्टी के प्रतिशत के अपने-अपने अनुमान के आधार पर तीन करोड़ से लेकर बारह करोड़ रुपये तक की बिक्री, प्रकाशक का लाभ, आईटी रिटर्न में सच्चाई सामने आने जैसे दावे को लेकर तरह-तरह की आलोचना करने में लगे हुए हैं।
अनेक लोगों की दृष्टि में बिक्री के घोषित आंकड़े अविश्वसनीय हैं क्योंकि वे मानते हैं हिन्दी की साहित्यिक पुस्तकें इतनी बड़ी संख्या में बेची नहीं जा सकती। अनेक लोगों को लगता है कि हिन्द युग्म प्रकाशन एक प्रोपेगैंडा के तहत जानबूझकर पुस्तकों की बिक्री को बढ़ा-चढ़ाकर बता रहा है और दूसरे प्रकाशकों को नीचा दिखाने का प्रयास कर रहा है। जबकि कुछ लोगों को यह लगता है कि इस पूरे आयोजन के पीछे वर्तमान भाजपा सरकार और उनसे जुड़े हुए दक्षिणपंथी विचारधारा के लोग शामिल हैं और इसके पीछे उनका कोई छुपा हुआ षडयंत्र है अन्यथा किसी प्रकाशन संस्थान के लिए बिना आर्थिक मदद इतना खर्चीला और भव्य आयोजन संभव नहीं था। इन्हें लगता है कि आयोजन के पीछे कोई षड़यंत्र है, जिसमें विनोद जी जैसे संत क़िस्म के साहित्यकार को फंसा लिया गया है।
यह सच है कि पूरा आयोजन बहुत भव्यता और तामझाम के साथ आयोजित था, जिसमें विभिन्न सत्रों में साहित्य, संगीत, लोककला, फ़िल्म, सोशल मीडिया और अन्य विषयों पर उनसे जुड़े हुए देश-प्रदेश के अनेक कलाकारों और साहित्यकारों ने भाग लिया। युवाओं की अच्छी-ख़ासी संख्या ने ‘मंच खुला है’, ‘काव्य प्रतियोगिता’ जैसी गतिविधियों के अलावा स्वंयसेवक के रूप में भी जोश-ख़रोश के साथ उपस्थिति दी। निश्चित रूप से इस पूरे आयोजन के पीछे एक बड़ी राशि खर्च हुई होगी। लेकिन आलोचकों द्वारा इस कथित षडयंत्र को उजागर करने के लिए जिस तरह से विनोद जी को भुगतान की गयी तीस लाख रुपये की रॉयल्टी राशि और विनोद जी को निशाना बनाया गया, वह बहुत दुखद था। ऐसी आलोचना और टिप्पणियों से विनोद जी और उनके साहित्य के प्रशंसकों के अलावा भी अनेक लोगों को दुःख पहुंचा है। विनोद जी और हिन्द युग्म प्रकाशन के समर्थन में तथा ऐसे आलोचकों के विरोध में भी बहुत बड़े वर्ग की व्यापक प्रतिक्रिया सामने आयी है।

यह सच है हिन्दी लेखन के क्षेत्र में तीस लाख रुपये की रॉयल्टी का भुगतान बहुत दुर्लभ क्षण है, लेकिन क्या यह बिल्कुल असंभव है! जिस देश में अनुमानित रूप से पचास करोड़ से अधिक लोग हिन्दी पढ़ना-लिखना जानते हैं, वहां एक लाख की प्रतियों की बिक्री मामूली बात हो सकती है बशर्ते कि हिन्द युग्म की तरह पुस्तकें बेचने का यह मार्केटिंग गुर अन्य प्रकाशकों को भी आता हो। पुस्तक बिक्री की इस चर्चा के कारण ही कुछ समय पूर्व मानव कौल द्वारा सामने लाये गये राजकमल और वाणी प्रकाशन जैसे प्रतिष्ठित प्रकाशकों द्वारा विनोद जी की उक्त पुस्तक सहित अन्य पुस्तकों पर औसतन 15 हज़ार रुपये और छह हज़ार रुपये के वार्षिक भुगतान किये जाने संबंधी कुछ पुराने विवाद भी फिर से चर्चा में आये। हिन्दी के प्रकाशकों द्वारा हिन्दी लेखकों के शोषण के अनेक क़िस्सों, उदाहरणों के बीच चर्चा तो इस बात पर भी हो रही है कि संभव है पहले भी विनोद जी की पुस्तकें बहुत बड़ी संख्या में बिकी हों, किन्तु प्रकाशकों ने अपने लाभ के लिए इसे छुपाया हो। इस चर्चा को इस बात से और अधिक बल मिलता है कि हिन्द युग्म द्वारा प्रकाशित पुस्तकें इसके बहुत पहले से अन्य प्रकाशकों द्वारा छापी और बेची जा रही हैं, बल्कि इस बीच विनोद जी को साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कार मिलने के बाद पूर्व प्रकाशकों ने उनकी पुस्तकों के नये संस्करण भी प्रकाशित किये। जबकि यह भी सर्वविदित है कि इस दौरान भी विनोद जी को भुगतान की गयी रायल्टी राशि नगण्य ही रही।
आयोजन के दौरान एक समय ऐसा भी आया, जब किसी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के बिना छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान विधानसभाध्यक्ष डॉ. रमन सिंह कुछ समय के लिए इस आयोजन में उपस्थित हुए। उन्होंने विनोद जी से मंच पर भेंट की और उन्हें उनकी उपलब्धियों के लिए बधाई दी। डॉ. रमन सिंह की इस अचानक उपस्थिति के कारण भी आलोचकों के इस क़यास को हवा मिली कि इस भव्य आयोजन के पीछे भाजपा और दक्षिणपंथियों का हाथ है और उनका कोई हिडन एजेण्डा इसके पीछे हो सकता है। हालांकि जिस तरह से और जितनी देर के लिए डॉ. रमन सिंह वहां उपस्थित हुए, उससे यह बात दूर की कौड़ी ही लगती है। पूरे आयोजन के दौरान भी किसी सत्र या विमर्श से अथवा प्रचार के किसी माध्यम से यह प्रकट नहीं हुआ कि आयोजन में उनकी भागीदारी है।
यह पहली बार नहीं है कि हिन्दी के इस तरह के किसी साहित्यिक आयोजन को लेकर हिन्दी के साहित्यकारों ने आयोजन, आयोजक, प्रतिभागियों और आयोजक की मंशा को लेकर हो-हल्ला मचाया हो। वर्ष 2014 में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की तर्ज़ पर और लगभग उसी भव्यता और प्रारूप में रायपुर में आयोजित पहले रायपुर साहित्य महोत्सव को लेकर भी कमोबेश इसी तरह का वबाल काटा गया था। हालांकि वह आयोजन घोषित रूप से तत्समय के भाजपा शासन का सरकारी आयोजन था, फिर भी उस आयोजन में अनेक वामपंथी साहित्यकार और कलाकारों ने भाग लिया और अपनी विचारधारा के अनुसार ही अपनी बात खुले मंच से रखी। संभवतः इस वाद-विवाद के कारण ही अपने पहले आयोजन के बाद ही दूसरा रायपुर साहित्य महोत्सव नहीं हो पाया। स्वाभाविक रूप से इसका नुक़सान अंचल के साहित्यकारों और कलाकारों को विशेष रूप से नवोदितों को ही हुआ।
वर्चस्व और विचारधारा को लेकर ख़ेमे में बँटे हिन्दी साहित्यकारों ने ऐसी ही लड़ाइयों और विवादों के चलते हिन्दी साहित्य और साहित्यकारों का पहले भी बहुत नुक़सान किया है। एक समय में और बहुत हद तक अभी भी वामपंथी विचारधारा और ख़ेमे में शामिल लोगों को कथित रूप से पूंजीवादी प्रकाशनों में प्रकाशन और भागीदारी की सख़्त मनाही थी। जिसके चलते अनेक प्रतिभाशाली साहित्यकार और कलाकारों ने बिना मानदेय या बहुत कम मानदेय में अपनी रचनाओं का प्रकाशन और कलाओं के प्रदर्शन को विचारधारा से संबंधित प्रकाशनों और मंचों तक सीमित रखा और फटेहाली में जीवन गुज़ारते रहे। जबकि ख़ेमे के नेतृत्व करने वाले अनेक लोगों ने अपनी पोज़ीशन का फ़ायदा लेकर स्वंय को उसी पूंजीवादी सत्ता में फ़िट कर लिया और हर तरह का लाभ प्राप्त किया।
वैसे हिन्द युग्म के इस आयोजन और विनोद जी को भुगतान की गयी तीस लाख रुपये की रॉयल्टी के विवाद और आलोचना के असली कारणों को समझने का प्रयास किया जाये तो लगता है अपने आपको बहुत बड़ा मानने वाले और एक हद तक आत्ममुग्ध साहित्यकारों और कलाकारों का एक वर्ग इसलिए नाराज़ है कि आयोजन में उन्हें पर्याप्त भागीदारी अथवा महत्व नहीं दिया गया। यही कारण है प्रदेश के स्थापित और कथित रूप से बड़े साहित्यकारों और कलाकारों ने न केवल स्वयं आयोजन से दूरी बनाये रखी बल्कि इस बात का भी पूरा प्रयास किया कि अन्य लोग भी इससे दूर रहें। एक दूसरा और बड़ा कारण यह भी था कि हिन्द युग्म प्रकाशन को आमतौर पर लुगदी प्रकाशन की संज्ञा दी जाती है और साहित्यिक प्रकाशन के क्षेत्र में इसे बड़ी मान्यता नहीं मिली है बल्कि उसे ‘नई वाली हिन्दी’ जैसी टैगलाइन लेकर सोशल मीडिया लेखन के प्रकाशन के साथ युवाओं के बीच लोकप्रिय होने के लिए जाना जाता है। जिसे लेकर साहित्यिक प्रकाशन उसे दोयम दर्जे का मानते हैं इसलिए अनेक आलोचकों ने यह माना है कि हिन्द युग्म इस आयोजन में तीस लाख की रॉयल्टी और विनोद जी के बहाने साहित्यिक प्रकाशन के रूप में प्रतिष्ठित होना चाहता है और अन्य प्रकाशकों पर रॉयल्टी भुगतान की पारदर्शिता के लिए दबाव बनाने का प्रयास कर रहा है।
यदि यह सच भी हो तो इसमें बुराई क्या है। हम हिन्दी के साहित्यकार हमेशा यह रोना रोते रहते हैं कि हिन्दी का पाठक वर्ग सिमटता जा रहा है। युवाओं का रुजहान हिन्दी साहित्य के पठन-पाठन से दूर होता जा रहा है और हिन्दी साहित्यकारों को उनकी रचनाओं के बदले पर्याप्त मानदेय नहीं मिल रहा है। हिन्द युग्म के इस आयोजन के दौरान बुक स्टॉलों में साहित्यिक पुस्तकों की खरीदी को लेकर जो भीड़ उमड़ी और जिस पैमाने पर पुस्तकें खरीदी गयीं, वह अनूठा अनुभव है। विशेष रूप से युवा पाठकों ने पुस्तकों की जमकर खरीदी की और उपस्थित लेखकों से पुस्तकों पर लगातार हस्ताक्षर कराते दिखे। विनोद जी की लिखी पुस्तकों की खरीदी और पुस्तकों पर उनसे हस्ताक्षर कराने का आलम तो यह था कि युवा पाठकों को देर तक लम्बी कतार में खड़े होना पड़ा।
यह सब देखकर तो यही लगा कि अब जब कोई प्रकाशक साहित्यिक पुस्तकों के प्रकाशन, रॉयल्टी के पारदर्शी और ईमानदार भुगतान और युवा पाठकों को साहित्य की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए कुछ नये प्रयोग और अच्छे प्रयास कर रहा है तब भी किसी न किसी बात को लेकर एक वर्ग द्वारा की जा रही आलोचना के पीछे ‘तेरी कमीज़ मेरी कमीज़ से ज़्यादा सफ़ेद कैसे’ या फिर ‘हम न हुए’ जैसे मनोविज्ञान से अधिक संचालित है। ऐसे युवाओं को हिन्दी साहित्य के प्रति आकर्षित करने के नये उपक्रम कर रहा है तो भी आलोचना का यह तेवर पाठकों, दर्शकों और साहित्यकारों के एक बड़े वर्ग को न तो उचित लगा न ही अच्छा। बरबस ही ‘थ्री ईडियट्स’ फ़िल्म का वह संवाद याद आ रहा है कि ‘दोस्त जब फ़ेल हो जाये तो दुख होता है लेकिन दोस्त जब फ़र्स्ट आ जाये तो अधिक दुख होता है’… क्योंकि विनोद जी को मिलने वाली तीस लाख रुपये की रॉयल्टी पर प्रश्न उठाने वाले लोगों में बहुत से वे लोग भी हैं जो कुछ समय पूर्व राजकमल और वाणी प्रकाशन द्वारा विनोद जी की पुस्तकों पर उन्हें दी गयी असंगत, अतार्किक और पारदर्शिता विहीन तरीक़े से बहुत कम भुगतान की गयी रॉयल्टी राशि को लेकर, विनोद जी द्वारा प्रकाशकों से किये गये विरोध के समर्थन में खड़े हुए थे। आज जब विनोद जी को पारदर्शी तरीक़े से एक सम्मानजनक रॉयल्टी राशि का भुगतान किसी प्रकाशक द्वारा किया जा रहा है, तब भी यह आलोचना और संदेह स्वाभाविक रूप से यह प्रकट करता है कि यह सब कुछ ईर्ष्यावश ही हो रहा है।
आलोचक मित्र ‘दीवार में खिड़की’ के अच्छे प्रयास को ‘खिड़की में दीवार’ बनाने के प्रयास में बदल देने उद्यत दिखायी दे रहे हैं। होना तो यह चाहिए था कि ऐसे आयोजन और प्रकाशक के ऐसे प्रयास की, भले ही उसके अपने कारण कुछ भी हों, खुले मन से प्रशंसा होती और विनोद जी जैसे प्रतिष्ठित लेखक को तीस लाख रॉयल्टी के भुगतान को कोई अजीबो-ग़रीब घटना नहीं बल्कि उनके साहित्यिक अवदान के लिए न्यायोचित और सामान्य घटना माना जाता। ऐसा कुछ होना हिन्दी साहित्यकारों के भले के लिए भी होगा ताकि भविष्य में उन्हें भी अच्छा लिखने, पाठकों के नये समूह तक अपनी पहुंच बनाने की प्रेरणा मिले। इस बात का आश्वासन भी कि उन्हें अपने लेखकीय कर्म का पर्याप्त और न्यायसंगत मानदेय भी मिलेगा। इस अप्रिय प्रसंग पर स्वतंत्र लेखक और विचारक अपूर्व गर्ग ने बहुत संतुलित टिप्पणी करते हुए लिखा है, “यह शहर (रायपुर) आलोचना पसंद है। यह प्रगतिशील जनवादी लेखकों का शहर है। यहाँ वाद-विवाद होता है ताकि संवाद हो सके। बस हमारे शहर में कुतर्कों और कुसंस्कारों… चाहे साहित्य के लिए क्यों न हो.. जगह नहीं है।”

अशोक शर्मा
छत्तीसगढ़ शासन से सेवानिवृत्त राजपत्रित अधिकारी अशोक शर्मा मिज़ाज से कवि, लेखक और साहित्य प्रेमी हैं। चार दशकों से अधिक सक्रिय लेखन, मूलतः ग़ज़ल लेखन तथापि अनेक गीत, दोहे, स्वतंत्र आलेख, कविताएं और कहानियाँ भी। एक स्वतंत्र ग़ज़ल संग्रह 'बाप से परिचय हुआ' तथा कुछ साझा ग़ज़ल संग्रह और दोहा संग्रह प्रकाशित। देश विदेश की पत्र-पत्रिकाओं में अनेक रचनाएं नियमित प्रकाशित, आकाशवाणी, दूरदर्शन और अन्य टीवी चैनलों से नियमित प्रसारण।
Share this:
- Click to share on Facebook (Opens in new window) Facebook
- Click to share on X (Opens in new window) X
- Click to share on Reddit (Opens in new window) Reddit
- Click to share on Pinterest (Opens in new window) Pinterest
- Click to share on Telegram (Opens in new window) Telegram
- Click to share on WhatsApp (Opens in new window) WhatsApp
- Click to share on Bluesky (Opens in new window) Bluesky

सादर आभार भावेश जी
यह लेख पढ़ा। यह भी एक पक्ष है। वैसे ताज्जुब हुआ यह देखकर कि इस विषय को इस लेख ने बड़े पॉजिटिव ढंग से उठाया जबकि कल जो लेख पढ़ा इसी पोर्टल पर भावेश दिलशाद वाला, उसने इसी टॉपिक पर धज्जियां उड़ा दीं…
सभी लेखकों के विचार अपने हैं, यह घोषणा वेबसाइट पर है। वैसे माहताब जी, आप ध्यान से और नियमित यहां आ रहे हैं, पढ़ रहे हैं, तदर्थ शुक्रिया…
आदरणीय अशोक शर्मा जी की लेख बहुत ही विचारोत्तेजक है। आदरणीय विनोद कुमार शुक्ल जी को मिली रायल्टी की राशि को सम्मान एवं सहज ज्ञान लिया जाता तो साहित्य विरादरी एवं साहित्यकारों के लिए शुभ संकेत होता।
आदरणीय अशोक शर्मा जी की लेख बहुत ही विचारोत्तेजक है। आदरणीय विनोद कुमार शुक्ल जी को मिली रायल्टी की राशि को सम्मान एवं सहज मान लिया जाता तो साहित्य विरादरी एवं साहित्यकारों के लिए शुभ संकेत होता।
बहुत बहुत आभार
अतुलनीय है एक साहित्यकार की लेखनी का मर्म समझना