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शम्अ, दीया और दीपक शब्द भी शायरी में बख़ूबी बरते जाते रहे हैं लेकिन हमने इस दीवाली के मौक़े पर चुना है लफ़्ज़ 'चराग़' (या चिराग़)। इस लफ़्ज़ को हिंदोस्तानी शायरी में इस तरह बरता गया है कि इसके दायरे में क्या मोहब्बत क्या सियासत, समाज का हर पहलू आता रहा है। इस लफ़्ज़ से बुने गये सारे बेहतरीन अशआर जुटाना तो बड़ा शोध होगा, पर पुराने और समकालीन शायरों के ख़ज़ानों से ऐसे कुछ बाकमाल अशआर आब-ओ-हवा के पाठकों के लिए...
संकलन : देवदत्त संगेप...

हिन्दी-उर्दू शायरी में 'चराग़'

शाम से कुछ बुझा-सा रहता है
दिल हुआ है चराग़ मुफ़लिस का
मीर तकी मीर
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शब-ए-विसाल है गुल कर दो इन चराग़ों को
ख़ुशी की बज़्म में क्या काम जलने वालों का
दाग़ देहलवी
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वो जिसके नक़्शे-क़दम से चिराग़ जलते थे
जले चिराग़ तो ख़ुद बन गया धुआँ वो शख़्स
क़तील शिफ़ाई
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वो सर-फिरी हवा थी सँभलना पड़ा मुझे
मैं आख़िरी चराग़ था जलना पड़ा मुझे
अमीर क़ज़लबाश
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समझते थे मगर फिर भी न रखीं दूरियाँ हमने
चराग़ों को जलाने में जला लीं उंगलियाँ हमने
वाली आसी
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हमारा दिल सवेरे का सुनहरा जाम हो जाये
चराग़ों की तरह आँखें जलें जब शाम हो जाये
बशीर बद्र
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यक़ीन हो तो कोई रास्ता निकलता है
हवा की ओट भी लेकर चराग़ जलता है
मंज़ूर हाशमी
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जलाने वाले जलाते ही हैं चराग़ आख़िर
ये क्या कहा कि हवा तेज़ है ज़माने की
जमील मज़हरी
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आ गयी याद शाम ढलते ही
बुझ गया दिल चराग़ जलते ही
मुनीर नियाज़ी
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शहर के अंधेरे को इक चराग़ काफ़ी है
सौ चराग़ जलते हैं इक चराग़ जलने से
एहतिशाम अख़्तर
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इस उम्मीद पे रोज़ चराग़ जलाते हैं
आने वाले बरसों बाद भी आते हैं
ज़ेहरा निगाह
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चराग़ों के बदले मकाँ जल रहे हैं
नया है ज़माना नयी रौशनी है
ख़ुमार बाराबंकवी
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चराग़ अपनी थकन की कोई सफ़ाई न दे
वो तीरगी है कि अब ख़्वाब तक दिखाई न दे
मेराज फ़ैज़ाबादी
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अंधेरे चारों तरफ़ साएँ-साएँ करने लगे
चराग़ हाथ उठाकर दुआएँ करने लगे
राहत इंदौरी
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मुझे सहल हो गयीं मंज़िलें वो हवा के रुख़ भी बदल गये
तेरा हाथ हाथ में आ गया कि चराग़ राह में जल गये
मजरूह सुल्तानपुरी
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इस शहर-ए-बे-चराग़ में जाएगी तू कहाँ
आ ऐ शब-ए-फ़िराक़ तुझे घर ही ले चलें
नासिर काज़मी
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शम्म-ए-नज़र, ख़याल के अंजुम, जिगर के दाग़
जितने चिराग़ हैं तेरी महफ़िल से आये हैं
फैज़ अहमद फैज़
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नेज़े पे रखके और मेरा सर बुलंद कर
दुनिया को इक चिराग़ तो जलता दिखायी दे
ज़फ़र गोरखपुरी
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जहाँ रहेगा वहीं रौशनी लुटाएगा
किसी चराग़ का अपना मकाँ नहीं होता
वसीम बरेलवी
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ये रात खा गयी इक एक कर के सारे चराग़
जो रह गया है वो बुझता हुआ-सा लगता है
उबैदुल्लाह अलीम
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अंधेरे में थे जब तलक ज़माना साज़-गार था
चराग़ क्या जला दिया हवा ही और हो गयी
परवीन शाकिर
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कहां तो तय था चराग़ां हर एक घर के लिए
कहां चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
दुष्यंत कुमार
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जो थके-थके से थे हौसले वो शबाब बन के मचल गये
वो नज़र नज़र से गले मिली तो बुझे चराग़ भी जल गये
शायर लखनवी
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कोई बज़्म हो कोई अंजुमन ये शिआ’र अपना क़दीम है
जहाँ रौशनी की कमी मिली वहीं इक चराग़ जला दिया
कलीम आजिज़
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बुझा है दिल तो न समझो कि बुझ गया ग़म भी
कि अब चराग़ के बदले चराग़ की लौ है
शमीम करहानी
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उन चराग़ों को अब हुआ क्या है
जो कहा करते थे हवा क्या है
सिराज खान टोंकी
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पलकों पे सो गयी है उम्मीदों की रौशनी
रख दो उठा के सारे चराग़ों को इक तरफ़
सिया सचदेव
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छिपा रहे हैं चराग़ों की लौ हथेली से
तो क्या हवा भी समझने लगे बहुत से लोग
शाहिद जमाल
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हम से ज़रा चराग़ों का जो मान हो गया
यानी अँधेरी रात का नुक़सान हो गया
शिवओम मिश्र
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चराग़-ए-ज़र्ब की तस्दीक़ मान लो शारिक़
क़मर की दूसरी जानिब भी रौशनाई है
शारिक़ क़मर
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चराग़ों को बुझा देता हूँ नींद आने से पहले ही
किसी का रात भर जलना मुझे अच्छा नहीं लगता
शेषधर तिवारी
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इन बुझते चराग़ों की ग़मगुसारी में
लाज़िम है मैं भी बुझा दिया जाऊँ
शारिक़ हयात
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बढ़ाया जबसे चराग़ों ने दायरा अपना
अंधेरे जाके हवाओं के कान भरने लगे
सलीम चौहान
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तेरी यादों के चराग़ों को जला देते हैं
रात हो जाये तो हम शम्मा बुझा देते हैं
सयद वसीम नक़वी
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मैंने रौग़न की तिजारत तो नहीं की लेकिन
शहर के सारे चराग़ों के नसब जानता हूँ
सलीम सिद्दीक़ी
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वो हवा के ख़िलाफ़ चलता है
फिर भी उसका चराग़ जलता है
वाहिद हैराँ
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जो तरबतर हो चराग़ों के ख़ूने-नाहक़ में
उसी को हक़ है यहां आफ़ताब होने का
ज़मीर दरवेश
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जिस घर में इक चराग़ भी बरसों न जल सका
उस घर के ज़ुल्मतों में तू इक नूर बन के देख
ज़फर कलीम
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हमने अंधेरों ही तक रक्खा चराग़
और हुनरवाले उजाले खा गये
अनंत नांदुरकर ख़लिश
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हरसू बिखेरता हो बराबर-सी रौशनी
ऐसा भी एक चराग़ जलाएँ जहाँ पनाह
अहया भोजपुरी
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रोशनी से रोशनी का सिलसिला है
इन चरागों को बुझाओगे कहाँ तक?
आनन्द पाठक
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मैं चराग़ से जला चराग़ हूँ
रौशनी है पेशा खानदान का
इरशाद ख़ान सिकंदर
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अंधेरों में चराग़ों की मुझे आदत लगी ऐसी
कि दिन की रौशनी में साफ़ दिखता ही नहीं है अब
आरोही श्रीवास्तव
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तुम आदमी को बहुत होशियार कहते हो
चराग़ ले के वो करता है रोशनी की तलाश
अशोक मिजाज़ बद्र
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जो रायग़ां है उसे रायग़ां समझते हैं
हम इस चराग़ की लौ को धुआँ समझते हैं
अमीर इमाम
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हम मुहब्बत करके रौशन कर रहे हैं कुछ चराग़
अब चराग़ों को भी अपनी चाल चलनी चाहिए
अरमान जोधपुरी
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इन चराग़ों से हसद की आग भड़केगी नहीं
बेवजह लेकिन हवाएँ आज़माना छोड़ दें
अंजुमन मंसूरी
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आंधी से लड़ रहे हैं चराग़ों के हौसले
घबरा के चराग़ों से हवा लौट रही है
अता पटियालवी
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मैंने खाई है चराग़ों की हिफ़ाज़त की क़सम
आँधियाँ रहती कहाँ हैं ये पता दो मुझको
अब्दुल रहमान मंसूरी
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जल रहा है वुजूद मिस्ले चराग़
रौशनी ही मिरी हवा है मुझे
बकुल देव
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मेरा वादा है यूँ ही जलता रहेगा ये चराग़
तुम अगर रौशनी की दाद न दो भी तो भी
चराग़ शर्मा
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अँधेरों में चराग़ों की शुआएँ काम करती हैं
दुआ रौशन करो “लोगो” दुआएँ काम करती हैं
धीरेंद्र सिंह ‘फैयाज़’
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कैसे-कैसे चराग़ रौशन हैं
ऐसी-वैसी हवा न चल जाये

हमारी बज़्म से उठ-उठ के जा रहे हैं लोग
कोई चराग़ के बुझने का मुन्तज़िर भी नहीं
फ़हमी बदायूँनी
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मैंने कुछ ऐसे चरागों को पिलाया है लहू
ये हवा जिनके उजालों से मुझे जानती है
फ़ैज़ ख़लीलाबादी
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रात को उसके ख़्यालों से सजाया जाये
शाम में अब न चराग़ों को जलाया जाये
ग़ज़ाला तबस्सुम
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न जाने कितने चराग़ों को मिल गयी शोहरत
एक आफ़ताब के बे-वक़्त डूब जाने से
इक़बाल अशहर
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सिर्फ शब-भर का तमाशा है चराग़ों की हयात
तेरी मर्ज़ी जहाँ चाहे जलाकर छोड़ दे हमको
इम्तियाज़ कुरैशी
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घुप अंधेरे में जल रहे हैं जो
उन चराग़ों की नींद पूरी हो
इमरान फ़ारिस
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नग़्मे ख़्याल शायरी सब कुछ उसी से है
बाती बिना च़राग़ तो जलता नहीं कभी
जगजीत काफ़िर
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हवाएं मेरे चराग़ों से बैर रखती हैं
मिरे चराग़ हवाओं की लाज रखते हैं
जावेद अकरम
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डूबता सूरज न दे पाया चराग़
शाम की भी कोख बंजर रह गयी
भवेश दिलशाद

देवदत्त संगेप, devdutta sangep

देवदत्त संगेप

बैंक अधिकारी के रूप में भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त। शायरी के प्रति ख़ास लगाव। उर्दू, हिन्दी और मराठी ग़ज़लों में गहरी दिलचस्पी। मिज़ाह शायरी करने के भी शौक़ीन और चुनिंदा शेरों और ग़ज़लों के संकलनकर्ता के रूप में पहचान।

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