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नियमित ब्लॉग विजय कुमार स्वर्णकार की कलम से....

क़ाफ़िया कैसे बांधें : भाग-2

            हम क़ाफ़िये के सुसंगत होने के लिए आवश्यक शर्तों को समझने के लिए यह विवेचना कर रहे हैं। जो ग़ज़ल प्रेमी क़ाफ़िये के सभी हर्फ़ों से परिचित हैं, मैं उनका ध्यान ‘मुकय्यद रवी’ और ‘मुकय्यद रिद्फ़’ की ओर खींचना चाहता हूं। जो पाठक इनसे परिचित नहीं हैं वे व्याकरण की किसी भी पुस्तक से इनके बारे में जानकारी ग्रहण कर सकते हैं। फ़िलहाल सुविधा के लिए यह लिखना उपयुक्त होगा कि ‘कमर’ और ‘समर’ अगर मतले में हैं तो ‘म’ यहां “मुकय्यद रवी” है और ग़ज़ल के आगे के अशआर में इसकी बंदिश बनी रहेगी। इसी तरह “कलाम” और “सलाम” अगर किसी मतले में हैं तो “ल” मुकय्यद रिद्फ़ है और आगे के अशआर में इस “ल” की बंदिश बनी रहेगी। इन दोनों शर्तों से किसी को क्या आपत्ति हो सकती है, मुझे भी नहीं है।

आपत्ति का विषय और उसे यहां प्रस्तुत करने का कारण कुछ और है। हिन्दी ग़ज़ल के आलोचक और व्याकरण के जानकार जब अधोलिखित मतलों में क़ाफ़ियों की विसंगति को सिद्ध करते हैं तो स्पष्टता के लिए इस विषय पर चर्चा आवश्यक है।

“वो अपने घर में मिले या वो रहगुज़र में मिले
मिले तो एक अलग ताज़गी नज़र में मिले”

“मैं मानता हूँ कि तू है लहूलुहान यहां
है तेरे सब्र का इक ख़ास इम्तिहान यहां”

“उसी सफ़र में अंधेरी सुरंग होना है
जहां पहुंच के हमें रंग रंग होना है”

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ये तीनों शे’र हरजीत सिंह के हैं। वे हिन्दी के अग्रणी ग़ज़लकारों में से एक हैं। उनके लेखन की ख़ामियों को इंगित करते हुए वरिष्ठ ग़ज़लकार एवं आलोचक सुल्तान अहमद लिखते हैं इन मतलों में “तक़रार” भर है और “तनव्वो” के न होने से क़ाफ़िये ग़लत हो गये हैं। उनकी दृष्टि में गुज़र/नज़र इसलिए सही काफ़िये नहीं हैं क्योंकि ज़र से पहले दोनों में कोई विशिष्ट स्वर एक सा नहीं है। “गुज़र” में “ज़र” से पहले “उ” की मात्रा है और “नज़र” में “अ” की मात्रा। पहली बात तो यह कि क़ाफ़िये के नौ हरफ़ों में “ग” और “न” कोई हर्फ़ नहीं हैं। “ज़” की स्थिति भी ऐसी ही है। “ज़” मुक़य्यद रवी तब होता जब “गु” और “न” की मात्रा एक सी होती। अब अगर कोई ग़ज़लकार क़ैद नहीं रखना चाहता तो ज़बरदस्ती क्यों क़ैद रखने को विवश किया जाये। यही बात राम चरितमानस की चौपाई में है।

तात अनुज तव नीति विभूषण
सो उर धरहु जो कहत विभीषण

अगर वहां ग़लत नहीं है, हसरत मोहानी के यहां ग़लत नहीं है तो हरजीत सिंह के यहां ग़लत क्यों हैं। “दाग़” उस्ताद शायर थे और उनके हजारों शिष्य थे। “दाग़” का एक शे’र देखिए:

ख़ातिर से या लिहाज़ से मैं मान तो गया
झूठी क़सम से आप का ईमान तो गया (दाग़)

दिल तेरे तग़ाफ़ुल से ख़बरदार न हो जाये
ये फ़ितना कहीं ख़्वाब से बेदार न हो जाये (सीमाब अकबराबादी)

उपर्युक्त अशआर की ग़ज़लों में आगे के शेर मान/दार की बंदिश से मुक्त हैं। और हों भी क्यों नहीं ऐसी कोई बंदिश है ही नहीं। यह भ्रम इस कारण से पनपा है कि कुछ लोगों का मत है कि मतले में क़ाफ़िये के समान अक्षर वस्तुतः रदीफ़ ही का हिस्सा हैं और इसलिए इन समान अक्षर समूह के पहले कोई विशिष्ट स्थाई स्वर न होने से क़ाफ़िये ग़लत हो जाते हैं। रदीफ़ रदीफ़ है और क़ाफ़िया क़ाफ़िया। दो विशिष्ट चीज़ों को अलग अलग ही देखा जाना चाहिए।

उपर्युक्त अशआर के बारे में कुछ लोग यह भी कहते पाए जाएंगे कि इनके ग़ज़लकार ने अगर ग़लती की तो क्या हमें भी करनी चाहिए। बिल्कुल नहीं। उन्होंने कोई ग़लती नहीं की है आप भी मत कीजिए। ये सब उस्ताद शायर हैं और मीर के ज़माने के भी नहीं हैं। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध के उस्ताद शायर हैं। अतः इस ज़माने तक ग़ज़ल के व्याकरण में स्थायित्व आ चुका था। निष्कर्ष यह है कि क़ाफ़िये के हर्फ़ को ध्यान में रखते हुए रवी से आगे बढ़िए। गुज़र/नज़र में “ज़र” की जगह “अर” ही की बंदिश रहेगी। “ज़” मुकय्यद रवी नहीं है क्योंकि उससे ठीक पहले दोनों क़ाफियों (गुज़र और नज़र) में कोई एक सा विशिष्ट स्वर नहीं है।

आइए इसे अलग तरीक़े से समझते हैं। दवा/हवा की जोड़ी को मतले में लेते हैं। यहां “आ” की मात्रा हर्फ़ ए रवी है। हवा को इस तरह तोड़कर देखते हैं: ह्+अ+व्+अ+अ… अगर इसे ह+व+अ की तरह देखते हैं तो “ह वअ/द वअ” और “कमर/समर” की समानता पर ग़ौर कीजिए। और अगर हिन्दी के नज़रिये से सीधे “आ” को हर्फ़ ए रवी मानते हुए देखें तो “ह व्आ”। अब चूंकि “आ” हिन्दी में एक अक्षर है और यहां हर्फ़ ए रवी है तो ‘व्’ रवी मुकय्यद हो गया। लेकिन यह क़ैद तभी है जब “ह” और “द” में एक समान विशिष्ट स्वर (अ) है। दवा/सुवा की जोड़ी मतले में आने पर “व्” की क़ैद नहीं होगी क्योंकि “द” में “अ” की मात्रा है और “स” मे “उ” की मात्रा अर्थात “व्” से पहले कोई एक सा स्वर नहीं है। दवा/सुवा मतले में आये तो आगे वफ़ा, सदा, छुआ, पिता आदि काफ़िये बांध सकते हैं, कोई क़ैद या बंदिश नहीं है।

अब समझते हैं “सारा” और “गारा” के हमक़ाफ़िये “मारा”, “दारा” आदि क्यों हैं। “सारा” को तोड़कर देखिए- “स्+अ+अ+र्+अ+अ” या इसे सीधे यूं भी लिखा जा सकता है सारअ। “र” स्वयं “अ” से युक्त है। “र” में “अ” और जोड़ने से “रा” बनता है। यहां “सारअ” में “अ” रवी है और “सा” में लगी “आ” की मात्रा तासीस है। बीच का “र” लघु मात्रा सहित है और “हर्फ़ ए दख़ील” की शर्तें पूरी कर रहा है। यह “र” अगर मतले के दोनों काफियों में उपस्थित हो, तो इस “र” की बंदिश होगी (हालांकि इस क़ैद/बंदिश का अलग से कोई नाम नहीं है) और इस कारण से सारा, गारा, मारा, दारा जैसे क़ाफ़ियों में “रा” जस का तस रखा जाता है और उससे पहले “आ” की मात्रा भी। “मीरा” और “मेरा” उस ग़ज़ल के क़ाफ़िये नहीं हो सकते, जिसके मतले में “सारा/गारा” के क़ाफ़िये हैं। यहां “रा” तो है लेकिन तासीस की जगह “ई” और “ए” की मात्रा “आ” से अलग है। अतः ये क़ाफ़िये सुसंगत नहीं हैं। दूसरी तरह से देखते हैं। हिन्दी में “सारा” में “आ” हर्फ़ ए रवी है। रवी से पहले “र्” और उससे पहले दीर्घ की मात्रा का होना “र्” को “हर्फ़ ए रिदफ़ मुरक़्क़ब” घोषित करता है, अतः बंदिश होगी।

शेष अगले भाग में…

विजय कुमार स्वर्णकार, vijay kumar swarnkar

विजय कुमार स्वर्णकार

विगत कई वर्षों से ग़ज़ल विधा के प्रसार के लिए ऑनलाइन शिक्षा के क्रम में देश विदेश के 1000 से अधिक नये हिन्दीभाषी ग़ज़लकारों को ग़ज़ल के व्याकरण के प्रशिक्षण में योगदान। केंद्रीय लोक निर्माण विभाग में कार्यपालक अभियंता की भूमिका के साथ ही शायरी में ​सक्रिय। एक ग़ज़ल संग्रह "शब्दभेदी" भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित। दो साझा संकलनों का संपादन। कई में रचनाएं संकलित। अनेक प्रतिष्ठित संस्थाओं द्वारा सम्मानित।

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