
- October 30, 2025
- आब-ओ-हवा
- 0
पाक्षिक ब्लॉग आलोक कुमार मिश्रा की कलम से....
जेंडर तटस्थ स्कूली पोशाक और समावेशी समझ
विद्यालयों में बच्चों के लिए एक जैसी वर्दी हो, इस बात पर कमोबेश हमारे समाज में आम सहमति है। इसे अमीर-ग़रीब के भेदभावों और जाति-धर्म जैसी पहचानों से परे लोकतांत्रिक समानता को महसूस करने और बढ़ावा देने के लिए जरूरी समझा गया है। हालाँकि कभी-कभी कुछ सांस्कृतिक, धार्मिक पहनावों और उनसे जुड़े अधिकारों से इसके अंतर्विरोध उजागर होने पर विवाद भी पैदा हो जाते हैं। हाल ही कुछ राज्यों में हुए हिजाब विवाद को इसी संदर्भ में देखा जा सकता है।
एक जैसी स्कूली वर्दी के इस व्यापक प्रचलन में भी अक्सर लड़कों और लड़कियों द्वारा पहने जाने वाले पोशाक में लैंगिक अंतर स्पष्ट रहता है। इसमें अमूमन लड़कों के लिए जहाँ पैंट-कमीज़ दिखायी देती है, वहीं लड़कियों के लिए सलवार और कुर्ती। कहीं-कहीं लड़कियों के लिए स्कर्ट पहनना अनिवार्य है। हालाँकि दोनों तरह के लैंगिक पहचान के लिए पोशाक का रंग अमूमन एक जैसा रखा जाता है। हाल के वर्षों में अन्य लैंगिक पहचानाें के प्रति बढ़ती संवेदनशीलता और स्वीकार्यता से महज़ लड़के-लड़कियों के द्वैध में बँटे स्कूली पोशाक की सीमाएँ उजागर हुई हैं और उन पर सवाल उठाते हुए विकल्प ढूँढा जाने लगा है।
हाल में जब राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद द्वारा विद्यालयी शिक्षा प्रक्रिया में ‘ट्रांसजेंडर सरोकारों के संयोजन’ शीर्षक से तैयार मसौदा सार्वजनिक हुआ तो इस विमर्श को और बल मिल गया। इस मसौदे का व्यापक उद्देश्य है विद्यालयों के अंतर्गत ट्रांसजेंडर लोगों के प्रति प्रचलित पूर्वाग्रहों और भेदभावों के प्रति जागरूक करना, ऐसे विद्यार्थियों द्वारा झेली जाने वाली चुनौतियों को पहचानना, प्रत्येक स्तर पर ऐसी शिक्षणशास्त्रीय प्रक्रियाओं को बढ़ावा देना जो जेंडर संवेदनशील हों और इसी के अनुरूप विद्यालयी नेतृत्व व समुदाय को बढ़ावा देना। इनकी पूर्ति के लिए जिन ढेर सारे उपायों की अनुशंसा की गयी है, उसमें जेंडर तटस्थ पोशाक की बात भी शामिल है। इसमें कहा गया है कि, कुछ विद्यार्थी, खासतौर से छठी कक्षा के आगे के विद्यार्थियों को स्कूली पोशाक को लेकर अपनी पसंद होती है। एक विशेष पोशाक में वे सहज नहीं महसूस करते। ऐसे में स्कूल जेंडर तटस्थ पोशाक पेश कर सकते हैं जो आरामदायक एवं जलवायु अनुकूल हों तथा किसी विशेष लैंगिक पहचान से ही जुड़ी न हो। हालांकि इस दस्तावेज़ पर अभी भी बहस जारी है।
कुछ साल पहले केरल के एर्नाकुलम में एक स्कूल ने यूनिसेक्स ड्रेस कोड लागू किया। इसमें लड़कियों के लिए स्कर्ट की जगह घुटनों तक के पतलून और शर्ट पहनने की व्यवस्था की गई। यही ड्रेस कोड लड़कों के लिए भी रखा गया। स्कूल के इस क़दम को काफ़ी लोकप्रियता मिली तथा कुछ और स्कूलों ने भी इसे अपनाया। बाद में राजनीतिक हलक़ों में भी इसे लेकर आवाज़ उठायी जाने लगी। यद्यपि कुछ सांस्कृतिक संगठनों, धार्मिक अल्पसंख्यकों व राजनीतिक दलों ने इसे धार्मिक, लैंगिक अधिकारों के ख़िलाफ़ बताकर इसका विरोध करना शुरू कर दिया। अंततः केरल सरकार ने विधानसभा में यह बताया कि ऐसी कोई योजना नहीं है कि स्कूलों में जेंडर निरपेक्ष पोशाक लागू किया जाएगा।
सुनने में जेंडर तटस्थ पोशाक की बात जितनी अच्छी और सहज लगती है व्यावहारिक धरातल पर उतनी है नहीं। एनसीईआरटी द्वारा पेश मसौदे में ही कई जगहों पर जेंडरगत विविधता को मान्यता देने, जेंडर समावेशन करने और जेंडर तटस्थता बरतने की ज़रूरत पर बल दिया गया है। जैसे ऐसी ‘कहानियों, गीतों, कविताओं, लोक कलाओं, चित्रों आदि माध्यमों’ को अपनाने की बात की गयी है, जो जेंडर विविधता से परिचित कराती हों और मान्यता देती हों। साथ ही जेंडर समावेशी भाषा गढ़ने और बरतने की आवश्यकता को भी रेखांकित किया गया है। जैसे मसौदे के अनुसार, ‘लड़के-लड़कियों की जगह बच्चे और विद्यार्थी कहना’ ज्यादा उपयुक्त होगा। इसी तरह ‘जेंडर तटस्थ या निरपेक्ष खिलौनों और खेलों जैसे कठपुतली, बिल्डिंग ब्लॉक, पज़ल, जानवर और अन्य खेल वस्तुओं का प्रयोग करने’ की बात भी कही गयी है। हालाँकि विविधता, समावेशन और तटस्थता के संदर्भ में आए ये तीनों सुझाव और सद् इच्छाएं आपस में टकराती भी हैं।
विविधता और समावेशन को अपनाने की रणनीतियों में जेंडर तटस्थता का व्यवहार कई बार अधिक उपयुक्त नहीं होता। तटस्थता अधिकांश मामलों में पहले से विद्यमान वर्चस्वशील संरचना, इकाई या व्यवहार को ही आगे बढ़ाने और मजबूत बनाने का कार्य करती है। इसे स्कूली पोशाक के मामले में भी समझा जा सकता है। इस मसौदे के जारी होने से पहले भी कई विद्यालयों में जेंडर तटस्थता को अपनाने के क्रम में लड़के-लड़कियों के लिए एक समान वर्दी अपनायी गयी है। इसमें अक्सर पहले से ही लड़कों और पुरुषों के लिए प्रचलित और उनके अभ्यस्त पहनावे पैंट और शर्ट को ही शामिल किया गया। कभी किसी ने इसकी कल्पना भी नहीं की कि सभी के लिए स्कर्ट, सलवार-कमीज़ या लड़कियों में प्रचलित पहनावे को सामान्य स्कूली पोशाक बनाया जाये। इसके पीछे सबसे मज़बूत और बार-बार दुहराया जाने वाला तर्क यह दिया जाता रहा है कि पैंट-शर्ट खेलों सहित शारीरिक गतिविधियों में सभी के लिए अधिक उपयुक्त हैं। कुछ मामलों में यह सही होते हुए भी कहीं न कहीं इसके पीछे हमारे समाज में लड़कों के लिए स्त्रैण पहनावे को कमतर या अपमानजनक मानने और पुरुषोचित पहनावे व व्यवहार को अधिक सम्मानीय मानने की सोच ही कारण है। जब लड़कियों की जेंडरगत पहचान, जो मानव सभ्यता के प्रारंभिक समय से ही मान्यता प्राप्त है, के मामले में ही हमारी सामूहिक समझ की इतनी सीमाएँ हैं, तो ट्रांसजेंडर पहचानों के लिए उपजी अपेक्षाकृत नयी संवेदनशीलता के लिए तो हमें और भी सचेत होने की ज़रूरत है।
क्या हम समता और समावेशन के लिए ऐसी स्कूली पोशाक की परिकल्पना को साकार कर सकते हैं, जो सभी जेंडर पहचान की गरिमा और पसंद को समाहित कर सके? या फिर कुछ साझी विशेषताओं के साथ सभी को अपनी पसंद के अनुसार पोशाक चयन की आज़ादी मिलनी चाहिए? हम मिलकर सोचें तो रास्ता निकल सकता है। संस्थाओं और विशेषज्ञों को इस पर सोचना ही चाहिए।
जेंडर तटस्थ या निरपेक्ष स्कूली पोशाक की अनुशंसा कई बार समावेशिता और विविधता के ख़िलाफ़ जाती है। पहले भी कुछ स्कूलों में इसे अपनाने के नाम पर लड़के लड़कियों और ट्रांसजेंडर सभी के लिए पुरुषों/लड़कों के लिए मान्य पहनावे पैंट-शर्ट को अपना लिया गया है। ज़ाहिर सी बात है, बहुत से मामलों में तटस्थता पहले से वर्चश्वशील विचारों, व्यवहारों और संरचनाओं को सपोर्ट करती है। स्कूली पोशाक के मामले में भी यही हो रहा है या आगे इस अनुशंसा के बाद भी यही होने की संभावना अधिक है जब स्त्रैण पहनावे जैसे सलवार-कुर्ता को पुरुषोचित पहनावे पैंट-शर्ट से हीन मानकर इसे ही सभी जेंडर पहचानों पर थोप दिया जाएगा।
जेंडर संवेदनशीलता, समावेशिता और समानता शिक्षा के क्षेत्र में हमेशा से प्रमुख सरोकार रहे हैं। पहले जहाँ इसमें स्त्री-पुरुष पहचान को ही तरजीह दी जाती थी, वहीं अब इसके दायरे में अस्तित्वमान और पहचान ली गयी हर जेंडर पहचान को समाहित किया जाने लगा है। इसे हम जीवन के हर दायरे में जगह बनाते और गहराते लोकतंत्र और मानवीय गरिमा की स्वीकार्यता के रूप में भी समझ सकते हैं। इस दिशा में जितना अधिक संवेदनशील होकर सोचा जाएगा और काम किया जाएगा, उतना ही समाज बेहतर बनेगा। पर ध्यान रहे, कोई जल्दबाज़ी उल्टी भी पड़ सकती हैं।
संदर्भ –
एनसीईआरटी (2021), ‘विद्यालयी शिक्षा में ट्रांस जेंडर बच्चों का समावेशन : चिंताएं और रोडमैप’, 2021-22, डिपार्टमेंट ऑफ जेंडर स्टडी, एनसीईआरटी, नई दिल्ली।

आलोक कुमार मिश्रा
पेशे से शिक्षक। कविता, कहानी और समसामयिक मुद्दों पर लेखन। शिक्षा और उसकी दुनिया में विशेष रुचि। अब तक चार पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। जिनमें एक बाल कविता संग्रह, एक शैक्षिक मुद्दों से जुड़ी कविताओं का संग्रह, एक शैक्षिक लेखों का संग्रह और एक कहानी संग्रह शामिल है। लेखन के माध्यम से दुनिया में सकारात्मक बदलाव का सपना देखने वाला मनुष्य। शिक्षण जिसका पैशन है और लिखना जिसकी अनंतिम चाह।
Share this:
- Click to share on Facebook (Opens in new window) Facebook
- Click to share on X (Opens in new window) X
- Click to share on Reddit (Opens in new window) Reddit
- Click to share on Pinterest (Opens in new window) Pinterest
- Click to share on Telegram (Opens in new window) Telegram
- Click to share on WhatsApp (Opens in new window) WhatsApp
- Click to share on Bluesky (Opens in new window) Bluesky
