
- October 30, 2025
- आब-ओ-हवा
- 2
विवेक रंजन श्रीवास्तव की कलम से....
विकास अवधारणा, बिजली परियोजनाएं और संकट में हिमालय
मानवीय हस्तक्षेप और जलवायु परिवर्तन के गठजोड़ ने हिमालय की नाज़ुक पारिस्थितिकी पर हाल के दिनों में संकट गहरा दिया है। लगातार बढ़ रही जल विद्युत परियोजनाओं के पर्यावरणीय, सामाजिक और भू-वैज्ञानिक प्रभावों को नियंत्रित करते हुए अब हमें एक सतत् स्थायित्व की राह तलाशना होगी।
विश्व की ‘छत’ और ‘तीसरे ध्रुव’ के रूप में विख्यात हिमालय, केवल एक प्राकृतिक भौगोलिक संरचना मात्र नहीं है, बल्कि एक जीवंत पारिस्थितिकी प्रणाली है, जो करोड़ों लोगों, फ्लोरा-फॉना की जीवन रेखा का आधार है। हिमालय अपनी विशालता के बावजूद अत्यंत नाज़ुक और अपेक्षाकृत नया वलित पर्वत है, जो अभी भी भू-वैज्ञानिक दृष्टि से सक्रिय है और प्रतिवर्ष लगभग 5 मिलीमीटर ऊँचा उठ रहा है। प्रकृति द्वारा इसके भूभाग का स्थाई सेटलमेंट होना शेष है। इस निरंतर चल रही नैसर्गिक प्रक्रिया में भूस्खलन होते रहते हैं। पिछले कुछ दशकों में ‘विकास’ के नाम पर इस क्षेत्र में जिस पैमाने पर जलविद्युत परियोजनाओं का निर्माण हुआ है, उसने न केवल इसकी नैसर्गिक सुंदरता को विकृत किया है, बल्कि इसके अस्तित्व के लिए ही गंभीर संकट खड़ा कर दिया है। जलविद्युत विकास का विस्तार और प्रभाव व्यापक होता है।
हिमालयी क्षेत्र को भारत का ‘पावर हाउस’ माना जाता है, जहाँ 46,850 मेगावाट की स्थापित क्षमता के साथ 1,15,550 मेगावाट की संभावित जलविद्युत क्षमता है। नवंबर 2022 तक इस क्षेत्र के 10 राज्यों और दो केंद्रशासित प्रदेशों में 81 बड़ी जलविद्युत परियोजनाएँ (25 मेगावाट से अधिक उत्पादन क्षमता की) कार्यशील थीं और 26 अन्य निर्माणाधीन, जबकि 320 और बड़ी परियोजनाएँ विभिन्न स्तरों पर क्रियान्वयन स्वीकृति हेतु विचाराधीन हैं। हिमाचल प्रदेश की केवल सतलुज नदी घाटी में ही यदि सभी प्रस्तावित परियोजनाओं का निर्माण हो जाता है तो 22% नदी बाँध के पीछे झील के रूप में खड़ी रहेगी और 72% सुरंगों के भीतर बहेगी!

जलविद्युत परियोजनाओं के लिए बड़े पैमाने पर वनों की कटाई की जाती है। किन्नौर ज़िले में ही, 2014 तक विकास परियोजनाओं के लिए 984 हेक्टेयर वन भूमि का हस्तांतरण किया जा चुका था, जिनमें से 90% जलविद्युत परियोजनाओं और ट्रांसमिशन लाइनों के लिए था। क्षतिपूरक नवीन वनीकरण की नीति भी प्रभावी नहीं रही है क्योंकि नये पौधारोपण के वृक्ष बनते तक अक्सर रोपण असफल हो जाते हैं और वनों के वास्तविक नुक़सान की भरपाई नहीं कर पाते। इसके अलावा, परियोजनाओं के निर्माण से पहाड़ों में व्यापक भू-स्खलन की घटनाएँ बढ़ी हैं, जैसा कि रुद्रप्रयाग और टिहरी ज़िलों में देखा गया। केदारनाथ की घटना, बादल फटने की मार का दर्द भूला नहीं जा सकता।
स्थानीय समुदायों को इन परियोजनाओं से भारी क़ीमत चुकानी पड़ रही है। उनकी आजीविका के मुख्य स्रोत, वन और जल स्रोत नष्ट हो रहे हैं। जनसांख्यिकीय बदलाव आ रहे हैं, जहाँ युवाओं का पलायन बढ़ रहा है, जिससे आत्मनिर्भरता में कमी आयी है और महिलाओं व बुज़ुर्गों पर घरेलू ज़िम्मेदारी का बोझ बढ़ा है।
हिमालय भूकंपीय रूप से सक्रिय क्षेत्र का हिस्सा है और इसके नदी घाटी क्षेत्र प्राकृतिक रूप से भूस्खलन के प्रति संवेदनशील हैं। जलवायु परिवर्तन ने इस स्थिति को और भी गंभीर बना दिया है। ग्लेशियरों के पिघलने, पर्माफ्रॉस्ट के अस्थिर होने, तड़ित बिजली और बादल फटने जैसी घटनाओं में निरंतर वृद्धि ने इस क्षेत्र को आपदाओं के प्रति और अधिक संवेदनशील बना दिया है। हाल के वर्षों में जलविद्युत परियोजनाओं से जुड़ी आपदाओं की आवृत्ति चिंताजनक रूप से अधिक रही है:
- 2013 में केदारनाथ बाढ़ से फाटा-ब्युंग, सिंगोली-भटवारी और विष्णुप्रयाग परियोजनाओं को गंभीर क्षति हुई थी।
- 2021 के भूस्खलन और हिमस्खलन से ऋषि गंगा परियोजना का विनाश, विष्णुगढ़-तपोवन परियोजना क्षतिग्रस्त होना, 200 से अधिक लोगों की मौत भूली नहीं जा सकती।
- 2022 किन्नौर में भूस्खलन 1,091 मेगावाट की करछम वांगटू जलविद्युत संयंत्र का निर्माण कार्य प्रभावित हुआ है।
इसके अलावा हर साल पूरे हिमालयी क्षेत्र में कहीं न कहीं जन और संपदा की क्षति होने की घटनाएं अनवरत हैं। उपर्युक्त हालिया घटनाओं से स्पष्ट है कि हिमालय जैसे संवेदनशील क्षेत्र में जलविद्युत परियोजनाएँ न केवल पर्यावरण के लिए, बल्कि मानव जीवन के लिए भी गंभीर जोखिम उत्पन्न कर रही हैं।
हिमालय के संरक्षण और सतत सस्टेनेबल विकास के लिए एक संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
वैज्ञानिक पुनर्मूल्यांकन ज़रूरी
- हिमालय में अधिकांश मौजूदा या निर्माणाधीन परियोजनाओं की परिकल्पना पिछले 10-15 वर्ष पहले की गयी थी। वर्तमान वैज्ञानिक आँकड़ों के आधार पर इन परियोजनाओं का पुनर्मूल्यांकन करने की सख़्त आवश्यकता है।
- विशेषज्ञ समितियाँ (जैसे रवि चोपड़ा समिति) गठित कर इन परियोजनाओं के प्रभाव का गहन अध्ययन किया भी गया है, इस अध्ययन का विस्तार किये जाने की ज़रूरत बनी हुई है। स्थानीय समुदायों की भागीदारी बढ़ाना होगी, परियोजना पर निर्णय लेने से पूर्व स्थानीय पंचायत की लिखित सहमति ली जानी चाहिए। सभी नीतियों और योजनाओं में स्थानीय जनता, विशेषकर महिलाओं की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए।
- पर्यावरणीय नियमों का कड़ाई से पालन करने वाला सामाजिक वातावरण बनाना चाहिए। केदारनाथ त्रासदी (2013) से जुड़ी परियोजनाओं को अनुमति दिये जाने जैसे निर्णयों पर पुनर्विचार करना होगा। भागीरथी इको-सेंसिटिव ज़ोन (BESZ) जैसी सुरक्षात्मक व्यवस्थाओं के पालन को कड़ाई से सुनिश्चित करना होगा।
- वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों को प्रोत्साहन: हिमाचल प्रदेश सरकार द्वारा राजीव गांधी स्वरोज़गार सौर ऊर्जा योजना जैसी पहल स्वच्छ ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों को बढ़ावा देने की दिशा में सराहनीय क़दम हैं। ऐसे प्रयासों को और बढ़ावा देने की आवश्यकता है।
- नियामक ढाँचे को मज़बूत करना: हिमाचल प्रदेश में ग्रामीण क्षेत्रों में निर्माण गतिविधियों को विनियमित करने के लिए आदर्श उपनियमों के प्रारूप को अंतिम रूप देने हेतु समिति गठन जैसे क़दम सही दिशा में हैं।
हिमालय की रक्षा केवल किसी एक क्षेत्र या देश की ज़िम्मेदारी नहीं, बल्कि यह एक वैश्विक अनिवार्यता है। जलविद्युत परियोजनाओं के माध्यम से स्वच्छ ऊर्जा प्राप्त करने का लक्ष्य निस्संदेह महत्वपूर्ण है, परंतु यह लक्ष्य हिमालय जैसी नाज़ुक पारिस्थितिकी प्रणाली की क़ीमत पर पूरा नहीं किया जाना चाहिए। आवश्यकता इस बात की है कि हम विकास की अपनी अवधारणा पर पुनर्विचार करें और एक ऐसे मॉडल को अपनाएँ, जो मानव की आवश्यकताओं और प्रकृति के संरक्षण के बीच सामंजस्य स्थापित कर सके। हिमालय केवल एक पर्वत शृंखला नहीं, बल्कि करोड़ों लोगों की आशा और अस्तित्व का प्रतीक है और इसकी रक्षा करना हमारी सामूहिक ज़िम्मेदारी है।

विवेक रंजन श्रीवास्तव
सेवानिवृत मुख्य अभियंता (विद्युत मंडल), प्रतिष्ठित व्यंग्यकार, नाटक लेखक, समीक्षक, ई अभिव्यक्ति पोर्टल के संपादक, तकनीकी विषयों पर हिंदी लेखन। इंस्टीट्यूशन आफ इंजीनियर्स के फैलो, पोस्ट ग्रेजुएट इंजीनियर। 20 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित। हिंदी ब्लॉगर, साहित्यिक अभिरुचि संपन्न, वैश्विक एक्सपोज़र।
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साहित्य और कला के साथ पूरे परिवेश पर चाहे वह राजनीतिक हो या पर्यावरणीय आबोहवा में सभी पर अनिवार्य चर्चा, विमर्श होता है जो प्रशंसनीय है।
विकास अवधारणा बिजली परियोजनाओं और हिमालय पर संकट पर चिंतन भी इसी की एक कड़ी है। विकास के नाम क्या परियोजनाएँ हैं –इनके परिणाम- जलस्रोतों का नष्ट होना , भूस्खलन,बादल फटना इत्यादि बढ़कर अब इस क्षेत्र का अस्तित्व ही संकट में है ; इसका आँकड़ों सहित सराहनीय लेखन है।
इस बहुत गंभीर मुद्दे पर
वैज्ञानिक पुनर्मूल्यांकन का परामर्श देते हुए हिमालय की रक्षा को वैश्विक अनिवार्यता कहना विवेक रंजन की विद्वतापूर्ण दूरदर्शिता है।
विकास के अंधी दौड़ का पुनर्मूल्यांकन होना ही चाहिए।
सदैव कि भांति विवेक जी ने सुगठित, शोधपूर्ण आलेख प्रस्तुत किया है।
साधुवाद।