अली सरदार जाफ़री, ali sardar jafri
पाक्षिक ब्लॉग ज़ाहिद ख़ान की कलम से....

अली सरदार जाफ़री - नवम्बर मेरा गहवारा है...

          कोई ‘सरदार’ कब था इससे पहले तेरी महफ़िल में
          बहुत अहल-ए-सुख़न उट्ठे बहुत अहल-ए-कलाम आये

अली सरदार जाफ़री का यह शे’र उनकी अज़्मत और उर्दू अदब में अहमियत बतलाने के लिए काफ़ी है। अली सरदार जाफ़री एक अकेले शख़्स का नाम नहीं, बल्कि एक पूरे अहद और तहरीक का नाम है। उनका अदबी काम, सियासी-समाजी तहरीक में हिस्सेदारी और तमाम तहरीरें इस बात की तस्दीक़ करती हैं। वे न सिर्फ़ एक जोशीले अदीब, इंक़लाबी शायर थे, बल्कि मुल्क की आज़ादी की तहरीक में भी उन्होंने सरगर्म हिस्सेदारी की। उन्होंने अपनी ज़िन्दगी के लिए जो उसूल तय कर रखे थे, उन पर आख़िरी दम तक चले। अली सरदार जाफ़री तरक़्क़ी—पसंद तहरीक के बानियों में से एक थे और आख़िरी वक़्त तक वे इस तहरीक से जुड़े रहे। मुल्क भर में तरक़्क़ी—पसंद तहरीक को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने काफ़ी कुछ किया। वे जब तक ज़िन्दा रहे, तरक़्क़ी—पसंदों की ओर से मोर्चा लेते रहे। आलम यह था कि क़दामत-पसंद और तंग-नज़र जे़हनियत वाले उनसे बहस करने से घबराते-कतराते थे। अली सरदार जाफ़री की शख़्सियत में भी एक पुर-असर कशिश थी। वे जब अपनी नज़्म पढ़ते हुए या तक़रीर करते वक़्त अपने लम्बे बालों को पेशानी से पीछे करते, तो नौजवानों ख़ास तौर पर ख़वातीन के दिल में एक हूक सी उठती।

यह आब व ख़ाक व बाद का जहाँ बहुत हसीन है
अगर कोई बहिश्त है, तो बस यही ज़मीन है।

अली सरदार जाफ़री का संघर्ष मुल्क की आज़ादी तक ही महदूद नहीं रहा, आज़ादी के बाद उन्होंने एक अलग लड़ाई लड़ी। और यह लड़ाई थी देश में लोकतांत्रिक मूल्यों, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, राष्ट्रीय एकता और अखंडता क़ायमी की। देश की समृद्ध विरासत और गंगा-जमुनी तहज़ीब को बचाने की। साल 1913 का नवम्बर, अली सरदार जाफ़री की पैदाइश का महीना है। अपनी एक नज़्म में वे इस बात का ज़िक्र कुछ इस अंदाज़ में करते हैं:

नवम्बर मेरा गहवारा है, ये मेरा महीना है
इसी माह-ए-मुन्नवर में
मिरी आँखों ने पहली बार सूरज की सुनहरी रौशनी देखी
मिरे कानों में पहली बार इंसानी सदा आयी।

अली सरदार जाफ़री का साम्यवाद पर गहरा यक़ीन था और इस विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने अपना सक्रिय योगदान दिया। अंग्रेज़ हुकूमत के ख़िलाफ़ आंदोलन और साम्राज्य विरोधी नज़्मों की वजह से उन्हें कई मर्तबा जेल भी जाना पड़ा। लेकिन उनका हौसला पस्त नहीं हुआ। अली सरदार जाफ़री की कई बेहतरीन नज़्में जेल की सलाख़ों के पीछे ही लिखीं गई हैं। सरदार जाफ़री की शायरी में कई मर्तबा विचार इतना हावी हो जाता था कि कुछ रूमानी-इश्क़िया शायरी करने वाले शायरों को उनके शायर होने पर भी ऐतराज़ था। लेकिन अपनी इन आलोचनाओं के बाद भी उन्होंने अपनी शायरी का मौजू़अ और स्टाइल नहीं बदला। जो उनके दिल को सही लगा, वही लिखा। उन मसलों और मुद्दों पर भी लिखा, जिसे शायर ग़ज़ल या नज़्म का मौजू़अ नहीं मानते। मिसाल के तौर पर उनके इन अशआर पर नज़र डालिए:

गाय के थन से निकलती है चमकती चाँदी
धुँए से काले तवे भी चिंगारियों के होंठों से हँस रहे हैं।

अली सरदार जाफ़री, ali sardar jafri

अली सरदार जाफ़री, मिज़ाज से इंक़लाबी शायर हैं। उन्होंने ग़ज़लों के बजाय ज़्यादातर नज़्में लिखीं और उनकी इन नज़्मों में वर्ग चेतना साफ़ तौर पर दिखलाई देती है। सरदार जाफ़री सियासी और समाजी मसलों को यथार्थवादी नज़रिए से देखते हैं। दुनिया भर के घटनाक्रमों पर उनकी नज़र रहती थी। लिहाज़ा कहीं पर भी कुछ ग़लत होता, किसी के साथ ना-इंसाफ़ी और ज़ुल्म होता उनकी क़लम आग उगलने लगती। ‘नई दुनिया को सलाम’ नज़्म में वे मेहनत और मेहनत-कशों की अहमियत का ज़िक्र इन अल्फ़ाज़ के साथ करते हैं:

चाँद की तरह गोल और सूरज की मानिंद गर्म
आह ये रोटियाँ आसमानों में पकती नहीं हैं
ये हैं इंसान के हाथों की तख़्लीक़
उसकी सदियों की मेहनत का फल।

वहीं ‘जमहूर’ नामक अपनी सियासी मसनवी में वे किसानों और कामगारों को आवाज़ देते हुए लिखते हैं:

मसीहा के होंठों का एजाज़ हम
मुहब्बत के सीने की आवाज़ हम
हमारी ज़बीं पर है मेहनत का ताज
हमीं ने लिया है जमीं से खि़राज।

साल 1944 में आये अली सरदार जाफ़री के पहले काव्य संग्रह ‘परवाज़’ में ऐसी कई रचनाएँ मिल जाएंगी, जिनमें किसानों और मज़दूरों की दुर्दशा का ही अकेला चित्रण नहीं है, बल्कि इन रचनाओं के आख़िर में वे उन्हें क्रांति के लिए आवाज़ भी देते हैं। सरदार जाफ़री यह बात अच्छी तरह से जानते थे कि मुल्क में यदि जम्हूरियत की क़ायमगी होगी, तो वह इन्हीं के दम पर मुमकिन होगी। यही नहीं वे आदमी-औरत में भी कोई फ़र्क़ नहीं करते थे। उनकी नज़र में ये दोनों ही समान हैं। किसी अहद के बदलाव के लिए दोनों की ही ज़रूरत और अहमियत है। ‘मज़दूर लड़कियाँ’ नज़्म में सरदार जाफ़री लिखते हैं:

बेकसी इनकी जवानी मुफ़लिसी इनका शबाब
अपनी नज़रों से ये लिख सकती हैं तारीख़ों के बाब
इनके तेवर देखती रहती हैं चश्म-ए-इंक़लाब।

अली सरदार जाफ़री ने न सिर्फ़ साम्राज्यविरोधी, फ़ासीवाद विरोधी शायरी की बल्कि अपनी शायरी में सामंतवाद और सरमायेदारी की भी पुर-ज़ोर मुख़ालफ़त की। ‘जमहूर’ शीर्षक मसनवी में वे सरमायेदारों को यह कहकर ख़िताब करते हैं:

ये हैं फ़ख़्र हैवानित के लिए
ये हैं कोढ़ इंसानियत के लिए।

साल 1939 में जब दूसरी आलमी जंग शुरू हुई, तो इस जंग का विरोध दुनिया भर के दानिश्वरों और अदीबों ने किया। क्योंकि जंग किसी मसले का हल नहीं। जंग का असर हर एक पर पड़ता है। दूसरी आलमी जंग हिन्दुस्तान की सरज़मीं पर उस तरह से नहीं लड़ी गई, जिस तरह दुनिया के दूसरे हिस्सों में इसकी व्यापकता थी, मगर इसकी वजह से देशवासियों को अकाल, भुख़मरी, महंगाई आदि परेशानियाँ झेलना पड़ीं। जिन तरक़्क़ी—पसंद शायरों ने जंग के ख़िलाफ़ सबसे ज़्यादा नज़्में लिखीं, उनमें अली सरदार जाफ़री का भी नाम अव्वल नम्बर पर है। ‘जंग और इंक़लाब’ नज़्म में उन्होंने लिखा:

इंक़लाब-ए-दहर का चढ़ता हुआ पारा है जंग
वक़्त की रफ़्तार का मुड़ता हुआ धारा है जंग।

अली सरदार जाफ़री की नज़्मों की कोई भी किताब उठाकर देख लीजिए, उनमें इंक़लाबी नज़्में ज़रूर मिलेंगी। यही नहीं सियासी बेदारी की वजह से देश-दुनिया में जब भी कोई बड़ा वाक़िआ होता, अली सरदार जाफ़री उसे अपनी नज़्म में ज़रूर ढालते। ‘बग़ावत’, ‘अहद-ए-हाज़िर’, ‘सामराजी लड़ाई’, ‘इंक़लाब-ए-रूस’, ‘मल्लाहों की बग़ावत’, ‘फ़रेब’, ‘सैलाब-ए-चीन’, ‘जश्न-ए-बग़ावत’ आदि नज़्मों में उन्होंने अपने समय के बड़े सवालों की अक्कासी की है। सच बात तो यह है कि उन्होंने अपने आसपास की समस्याओं से कभी मुँह नहीं चुराया, बल्कि उसकी आँखों में आँखें डालकर बात की। अली सरदार जाफ़री का नाम, मुल्क की उन बावक़ार हस्तियों में भी शुमार होता है, जो हिन्द-पाक दोस्ती के बड़े हामी थे और इस दोस्ती के लिए उन्होंने काम भी किया। पाकिस्तान में कई मर्तबा सद्भावना यात्राएँ करने के अलावा उन्होंने दोनों मुल्कों के सियासत—दाँ और अवाम को आपस में मिलाने के लिए कोशिशें कीं। उनकी नज़्म ‘गुफ़्तगू’ इसी पस-मंज़र में लिखी गई है:

गुफ़्तगू बंद न हो
बात से बात चले
सुबह तक शाम-ए-मुलाक़ात चले
हम पे हँसती हुई ये तारों भरी रात चले।

अली सरदार जाफ़री ने अपने दौर की कुछ अज़ीम शख़्सियतों पर भी नज़्म लिखीं। ‘कार्ल मार्क्स’, पॉल रॉबसन’, ‘परवीन शाकिर’, ‘अहमद फ़राज़ के नाम’ उनकी ऐसी ही कुछ नज़्में हैं। ‘परवाज़’, ‘जम्हूर’, ‘नई दुनिया को सलाम’, ‘ख़ून की लकीर’, ‘अम्न का सितारा’, ‘एशिया जाग उठा’, ‘पत्थर की दीवार’, ‘एक ख़्वाब और’, ‘पैराहन-ए-शरर’, ‘लहु पुकारता है’, ‘मेरा सफ़र’ अली सरदार जाफ़री के नज़्मों-ग़ज़लों के अहम मजमूए हैं। ‘नई दुनिया को सलाम’ एक लम्बी नज़्म है और उनकी यह नज़्म, आज़ादी के आंदोलन के दौरान लिखी गईं बेहतरीन नज़्मों में शुमार होती है। ‘पैगम्बरान-ए-सुख़न’, ‘इक़बाल शनासी’, ‘ग़ालिब का सूफ़ियाना ख़याल’ अली सरदार जाफ़री की दीगर आलोचनात्मक किताबें हैं। उनकी कई प्रमुख रचनाओं का दीगर हिन्दुस्तानी ज़बानों समेत दुनिया की कई ज़बानों में तर्जुमा हुआ है।

अली सरदार जाफ़री एक हरफ़नमौला शख़्सियत थे। ग़ज़लों, नज़्मों और आलोचनात्मक लेखन के अलावा उन्होंने वृतचित्र और धारावाहिकों का लेखन, निर्देशन भी किया। जिसमें ‘कबीर, इक़बाल और आज़ादी’, ‘कहकशाँ’ और ‘महफ़िल-ए-याराँ’ अहम हैं। अदब और इंसानियत की ख़िदमत के लिए अली सरदार जाफ़री को अनेक बड़े सम्मान और पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। जिसमें कुछ ख़ास सम्मान-पुरस्कार हैं ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ (साल 1997), ‘उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी पुरस्कार’, साल 1983 में किताब ‘एशिया जाग उठा’ के लिए ‘कुमारन आसन अवार्ड’, ‘राष्ट्रीय इक़बाल सम्मान’, ‘सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार’ (साल 1965), साल 1978 में पाकिस्तान सरकार द्वारा इक़बाल गोल्ड मेडल सम्मान, अंतरराष्ट्रीय उर्दू अवार्ड और साल 1999 में हावर्ड यूनीवर्सिटी अमेरिका द्वारा ‘अंतरराष्ट्रीय शांति पुरस्कार’ आदि। भारत सरकार ने साल 1967 में उन्हें अपने चौथे सबसे बड़े नागरिक सम्मान ‘पद्म श्री’ एज़ाज़ से भी नवाज़ा। अली सरदार जाफ़री एक सच्चे इंसाफ़-पंसद और इंसान-दोस्त शायर थे। उन्होंने हमेशा अपनी शायरी में इंसानियत और भाईचारे की पैरोकारी की। उनकी शायरी इंसान-दोस्ती और इंसानियत की एक बेहतरीन मिसाल है। उनकी नज़्में और ग़ज़लें हमारे दिल में एक नई उम्मीद जगाती हैं। मुस्तक़बिल के लिए उनमें एक पैग़ाम है।

जाहिद ख़ान

जाहिद ख़ान

इक्कीसवीं सदी के पहले दशक से लेखन की शुरुआत। देश के अहम अख़बार और समाचार एवं साहित्य की तमाम मशहूर मैगज़ीनों में समसामयिक विषयों, हिंदी-उर्दू साहित्य, कला, सिनेमा एवं संगीत की बेमिसाल शख़्सियतों पर हज़ार से ज़्यादा लेख, रिपोर्ट, निबंध,आलोचना और समीक्षा आदि प्रकाशित। यह सिलसिला मुसलसल जारी है। अभी तलक अलग-अलग मौज़ूअ पर पन्द्रह किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक के हमसफ़र’ के लिए उन्हें ‘मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन’ का प्रतिष्ठित पुरस्कार ‘वागीश्वरी पुरस्कार’ मिला है। यही नहीं इस किताब का मराठी और उर्दू ज़बान में अनुवाद भी हुआ है।

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