
- November 30, 2025
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पाक्षिक ब्लॉग राजा अवस्थी की कलम से....
सम्बन्धों के दृष्टा कवि डाॅ. ओमप्रकाश सिंह
डाॅ. ओमप्रकाश सिंह का रचना संसार विपुल है। समीक्षा-आलोचना से लेकर नाटक, निबंध और कविता के विविध प्रारूपों में उनके सृजन-संसार की व्याप्ति है। लेकिन, प्रमुख रूप से और सबसे अधिक उन्होंने नवगीत कविताएँ ही रची हैं। नई सदी के नवगीत (पाँच खण्ड) के साथ केन्द्रीय साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित ‘समकालीन नवगीत संचयन’ का संपादन भी उनके नवगीत को समर्पित कार्यों के परिसर में जगमगाते रत्न हैं।
डॉ ओमप्रकाश सिंह सम्बन्धों के दृष्टा कवि हैं। उनकी नवगीत कविताओं में प्रकृति के विविध उपादानों के बीच सम्बन्धों के साथ मनुष्य – मनुष्य और मनुष्य – प्रकृति के मध्य सम्बन्धों की कई स्तरों पर व्याख्या मिलती है। उनकी इन बहुस्तरीय व्याख्याओं को समझने के लिए उनके कवि को समझना होगा। या यह भी कह सकते हैं, कि इन व्याख्याओं को समझना ही उनके कवि को भी समझना है।
कवि के सम्बन्ध में ईशोपनिषद के आठवें मन्त्र में ऋषि कहता है-“कविर्मनीषी परिभू: स्वयंभू:।” इस मन्त्र का ईशोपनिषद में मन्त्रों के क्रम में आठवाँ होना उसी तरह महत्वपूर्ण नहीं है, जिस तरह कृष्ण का वसुदेव और देवकी का आठवाँ पुत्र होना। कृष्ण की महत्ता वसुदेव-देवकी का आठवांँ पुत्र होने में नहीं, बल्कि योगेश्वर कृष्ण होने में है। उसी तरह “कविर्मनीषी परिभू: स्वयंभू:” काव्यांश की महत्ता उसके अर्थ की व्याप्ति में है। ऋषि कहता है कि ‘कविर्मनीषी’ यानी कवि चिन्तक होता है। ‘परिभू: स्वयंभू:’ यानी वह सर्वत्र व्याप्त है और उसने अपना अस्तित्व स्वयं गढ़ा है। इस काव्यांश का अर्थ इसीलिए गहरा है, क्योंकि यह कवि के मनीषी होने के साथ-साथ उसके ‘परिभू:’ यानी सर्वत्र होने की बात कहता है। कवि के सर्वत्र होने और चिन्तक होने की बात ही कवि को दृष्टा बनाती है। इस बात का तात्पर्य यह भी है कि कवि दृष्टा होता है। चूँकि उसकी व्याप्ति सर्वत्र है, तो वह सब कुछ देखता भी है। जो कुछ घट रहा है उसे तो देखता ही है, उस घटना के कारण और परिणाम को भी देखता है। फिर उसके चिन्तन से जो कविता सृजित होती है, वह अपने समय की प्रतिनिधि बनती है और वही समकालीन भी होती है। उसका समकालीन होना इस प्रक्रिया के पूर्ण हुए बिना सम्भव नहीं है। इस अर्थ में ही डाॅ. ओमप्रकाश सिंह को समकालीन कवि और दृष्टा कवि कहना चाहिए। इस मन्त्र में आया हुआ शब्द ‘स्वयंभू:’ कवि की उस विलक्षणता को बताता है, जो उसे अद्वितीयता की ओर ले जाती है। अद्वितीयता दुर्लभ विशिष्टता है। यह जिस कवि में या जिस कविता में जिस अनुपात में होती है, वह उसी अनुपात में कवि होता है, या कविता होती है। मौलिकता का मापदण्ड भी यही है, क्योंकि ऋषि जो कहता है ‘कवि: स्वयंभू:’, तो इसका अर्थ स्वयं को गढ़ना ही होता है। किसी भी कवि को और डाॅ. ओमप्रकाश सिंह जी को भी इस सूत्र के आइने में अवश्य देखा जाना चाहिए। कवि और कविता को देखते -परखने की दृष्टि और भी हो सकती हैं, किन्तु यह आधार दृष्टि है। इस दृष्टि से देखने पर डाॅ. ओमप्रकाश सिंह की कविता के और उनके कवि के कई रूप खुलते हैं।
‘परिभू:’ शब्द की व्याप्ति कवि के पूरे व्यक्तित्व का निर्माण करती है। हमारे आसपास के समाज में, थोड़ा और व्यापक हों, तो हमारे सम्पूर्ण राष्ट्र में या पूरी सृष्टि में ही कह लें, जो कुछ भी घट रहा होता है, कवि-मनीषा उसको अपनी एक विशिष्ट दृष्टि से देखती और समझती है। वह इन घटनाओं के सृष्टि या समाज में पड़ रहे और सुदूर भविष्य तक में पड़ने वाले प्रभाव को देखती-समझती और कहती है। इस ‘कहने’ में ही कहने वाले या रचने वाले कवि की मनीषा और दृष्टि रूपायित होती है। इसी से किसी कवि का रचना-संसार सृजित होता है। इसी सृजन में दिखाई पड़ने वाली कवि-दृष्टि कवि का व्यक्तित्व निर्माण करती है। इस कवि-दृष्टि की परख इसलिए जरूरी हो जाती है, क्योंकि इससे ही कवि के सामाजिक दायित्व और उसकी दायित्वपूर्ति के प्रयासों, सामाजिक संघर्षों में संलग्नता, समस्याओं से मुठभेड़ और उनसे पलायन का रहस्य खुलता है।डॉ. ओमप्रकाश सिंह जी की कविताओं को पढ़ते हुए हमारी उनके जिस कवि से पहचान होती है, उसकी कवि-दृष्टि का परिसर बहुत व्यापक है। आज जहाँ पूरी कविता में ‘प्रतिरोध’ शब्द कुछ इस तरह सुनाई देता है, जैसे कि व्यक्ति-जीवन और समाज-जीवन का आदि और अंतिम सत्य ‘प्रतिरोध’ ही है। ‘प्रतिरोध’ के सिवा कुछ है ही नहीं। जबकि प्राणी मात्र एक समरसता में जीना चाहता है। वह अपने परिवेश में घुल-मिल कर रहना चाहता है। वह ऐसे ही रहता भी है। इसीलिए सामान्यतः प्राणियों का जीवन और मनुष्य का भी जीवन स्थितियों को भोगते हुए बीतता है। यही कारण है कि सम्पूर्ण समाज में अहर्निश प्रतिरोध की ही व्याप्ति नहीं है, बल्कि सहज प्राप्त जीवन स्थितियों में जीते हुए सृजन और आनन्द के अवसरों को जी भरकर जी लेने की कोशिशों की व्याप्ति ही अधिक है। ऐसे में करूणा और उल्लास से भरे भावों को पोसने वाले सामाजिक, पारिवारिक सम्बन्धों का उगना, पनपना, पलना-बढ़ना और मनुष्य जीवन ही नहीं पूरी प्रकृति पर उसके छाये रहने के दृश्य आस-पास होने के कारण संवेदनशील कवि इन सम्बन्धों और इनकी जरूरतों, इनके सामाजिक प्रभावों के साथ इन्हें बाधित करने वाली शक्तियों को भी पहचानते हुए कविता रचता है। डाॅ. ओमप्रकाश सिंह की कविता को इस रूप में भी देखा जाना जरूरी है, क्योंकि ऐसी मानवीय दृष्टि, मानवी और प्रकृति- जीवन-सम्बन्धों को देखती व व्याख्यायित करती दृष्टि उनकी नवगीत कविताओं की विशेषता है।
हिन्दी साहित्य में मनुष्य समाज और उसके जीवन को कहने-दिखाने के लिए उसकी आदिम सहचरी प्रकृति को बार-बार ही नहीं बल्कि हर बार उसके साथ उद्धृत किया गया है। ऐसा करते हुए प्रकृति के साथ मनुष्य की, मनुष्य के व्यवहार की तुलना की गई है और बहुत बार तो प्रकृति को भी मानव ही मान लिया गया है। इसे ही काव्य में मानवीकरण कहा गया है और जहांँ-जहांँ ऐसा हुआ है, वहाँ-वहाँ काव्य सौष्ठव, काव्य सौंदर्य, काव्य-प्रभाव अप्रतिम हो उठा है। ऐसे स्थलों को पढ़ते-सुनते हुए पाठक और श्रोता अभिभूत हुए बिना नहीं रह पाता। डॉ. ओमप्रकाश सिंह जी के यहाँ भी प्रकृति के उपादानों पर मानवीय व्यवहारों का आरोपण खूब मिलता है। इनका एक नवगीत ‘ये जाड़े की धूप ‘ को देखते हैं, जहाँ जाड़े के दिनों में निकली गुनगुनी धूप निकलने से छाये हुए कोहरे का कुछ छँटना शुरू होता है, तो ओमप्रकाश सिंह जी कहते हैं, कि यह धूप जाड़े का मुखड़ा धोकर आती है। आगे वे और भी सुंदर वर्णन करते हैं, मानो धूप का नहीं किसी चुलबुली लड़की की चंचलता का वर्णन कर रहे हों। नवगीत का कुछ अंश देखते हैं –
“ये जाड़े की धूप
कोहरे का मुखड़ा
धुल आती
ये जाड़े की धूप।
चुपके – चुपके
पाँव पसारे
घर, आंगन, चौपाल
पेड़, नदी,
पर्वत को छूकर
लौटी लिये मशाल
लहर- लहर को
चूम- चूमकर
नाच रही है धूप।
रोशनदानों से
उतरे फिर
खिड़की खोल निहारे
और कभी
दरवाजा झाँके
कंधे बैठ दुलारे
सुबह- शाम
अंधियारे के घर
शरमाती है धूप।
फूूलों के
ओठों पर लोटे
कभी झूलती फुनगी
कांटों को भी
गले लगाये
हरी शाख या नंगी
धरा- गगन तक
मचल रही है
बौराई- सी धूप।”
डॉ. ओमप्रकाश सिंह जी को मैंने सम्बन्धों का दृष्टा कवि कहा है और यह इसलिए ही कहा है कि इनके यहांँ मनुष्य-मनुष्य के बीच घनीभूत कोमल सम्बन्धों के साथ मनुष्य और समाज व मनुष्य और प्रकृति के मध्य सम्बन्धों को देखती-बुनती सजग मानवीय दृष्टि मिलती है। यहांँ वे – “बूँद – बूँद से
काले-काले
गदराये बादल
भूरे- भूरे
हल्के- हल्के
मुस्काये बादल।
जब वे आते
गाँव-सड़क के
ओंठ भिगो जाते
कभी प्यास
आँखों में भरकर
स्वप्न पिरो जाते
गूंगे मन
मुखरित कर जाते
बौराये बादल।
बरस- बरस कर
बाग, नदी, बन
लहराने आते
मेघ
धरा के आंगन में
ज्यों ढोल बजा जाते
जो अतृप्ति की
बांहों में आ
शरमाये बादल।
प्यास निगोड़ी
डूब मरी है
पनघट- पनघट पर
पंख खोल
घन शावक उड़ते
मधुमय आहट पर
पुरवाई का
चुम्बन लेते
अलसाये बादल।
करे नदी
बांहें फैलाये
सागर से आलिंगन
काली चादर
ओढ़ गगन से
संध्या करती वंदन
इंद्रधनुष के
मुकुट बांध घर- घर
पहुनाये बादल।” रचते हुए अप्रतिम मानवीकरण करते हैं। अप्रतिम इसलिए कि गाँव-सड़क के होंठों को भिगोते हुए बादल, अतृप्ति की बाहों में शरमाए हुए बादल, पुरवाई का चुम्बन लेते हुए अलसाए बादल और बारिस से चौड़े हुए नदी के पाट ऐसे हैं, जैसे नदी बाँहें फैलाकर सागर से आलिंगन कर रही है। ऐसा एक नहीं, बल्कि कई-कई अद्भुत और मोहक दृश्य इनके काव्य संसार में मिलते हैं। इन दृश्यों की मोहकता जहाँ इनके मानवीकरण में है, तो वहीं इन स्थलों का सौंदर्य और सार्थकता प्रकृति के मनुष्य के साथ ऐसे सम्बन्धों को दिखाने में है, जिनके बीच मनुष्य का जीवन और प्रकृति का भी बहुत भरा-भरा, खुशहाल, प्रफुल्लित, उमंग और उल्लास भरा बनता है।
मनुष्य का मन स्वप्नजीवी होता है। ब्रह्म सूत्र के मन्त्र तो अपनी व्याख्या में इस संसार को ही एक स्वप्न कहते हैं। तो यह स्वप्नजीवी मनुष्य अपने नेह, वात्सल्य, सुख और अनुराग के क्षणों को बार-बार जीना चाहता है। इसीलिए माँ, पिता, पुत्र, प्रिया जैसे आत्मीय संबंधी जब नहीं होते, तो वे बार-बार मनुष्य-मन में साकार होते रहते हैं। इन सबमें माँ का आना और माँ के प्रति अनुराग, माँ का अपने पुत्र के प्रति अनुराग शेष सभी अनुरागों से ऊपर और अप्रतिम है। ऐसे ही अप्रतिम सम्बन्धों और अनुरागों की अनुभूति मनुष्य को प्रेम, दया, करुणा, संवेदना, उपकार आदि भावों से भरे रखकर सामाजिक सम्बन्धों को प्रेम और साहचर्य के भावों से अनुप्राणित किये रहती है। डॉ. ओमप्रकाश सिंह जी अपनी नवगीत कविता ‘सपने में मेरे ‘ में माँ की स्मृतियों में डूबकर ऐसे ही सुन्दर, वात्सल्य और प्रेम निमग्न बिम्बों की सृष्टि करते हैं। इस नवगीत में संवेदना और काव्य सौंदर्य अपने उच्च स्तर पर है। वे लिखते हैं -गीली/ आँखें चुप्पी साधे/ कुछ मुस्काती हैं/ ओंठों से/ अपनापन देकर/ मन भर जाती हैं/ अम्मा! मानस में अभिमंत्रित/ रहती हो मेरे।…… अम्मा! अंतस की देहरी पर/ रहती हो मेरे।…. अम्मा! माला के सुमेरु – सी/ लगती हो मेरे।”
मनुष्य को प्रकृति ने जी खोल कर दिया है, किन्तु मनुष्य की अपनी प्रकृति में विकृति ने घर कर लिया। परिणाम यह हुआ कि स्वार्थ ने आपसी संघर्ष और पीड़ा के बीज बो दिए। कवि भी अंततः मनुष्य जीवन के सुख-दुख से द्रवित या प्रफुल्लित होकर ही कविता रचता है। तो ओमप्रकाश सिंह जी की नवगीत कविताओं का बड़ा हिस्सा ऐसी ही विसंगतियों और उनकी जड़ों को पहचानने की कोशिश करता है। “सम्बन्धों के हर आँगन में कैक्टस उगने लगे आजकल” लिखकर आपसी सम्बन्धों के बीच पसरती चुभन का बहुत पैना प्रतीक रचते हैं। ” करवटें ले रहा/ प्रेम का यह शहर/ आइने स्याही/ लगने से हैं बेखबर/ इन्द्रधनु को/ मिटाने की कोशिश में अब/ रोशनी छुप गई/ मुस्कुराती हुई।” लिखते हुए मनुष्य समाज में व्याप्त भाईचारा, प्रेम, सौहार्द के लगातार छीजते जाने और स्वयं समाज के इससे अनजान बने रहने, इस दुर्घटना को महसूस न कर पाने का एक गतिशील -सा बिम्ब रचते हैं। हमारे समय में समाज में विकृतियों के फैलते जाल को दिखाकर कवि दरअसल अपने सामाजिक दायित्वबोध के कारण ही समाज को चेताने का काम कर रहा है। यही कारण है कि वह नये यथार्थ को जीते हुए अनुभव-सत्य ही लिखता है। ” गूँजे शब्द/अर्थलोकों से/ लय, स्वर, ताल लिए/ अनुभव-सत्य/ लिखे पृष्ठों पर/ नये यथार्थ जिसमें/ पीड़ाओं की/ सुर बगिया में/ मौन हुआ अभिनीत।” पीड़ाओं से भरे बाग में मौन के अभिनीत होने की कल्पना का रहस्य कवि-मन की करुणा को और घनीभूत कर देता है।
हमारे समाज में एक सामान्य और व्यक्ति-मान्य जीवन जीते हुए जब भी कुछ स्वार्थी तत्वों के द्वारा उक्त सामान्यता या समरसता भंग की जाती है, तो कवि की दायित्व-प्रज्ञा करुणा और क्षोभ प्रकट करने से स्वयं को रोक नहीं पाती। इन स्वार्थी तत्वों में सत्ता, चाहे वह पूँजी जनित हो, समूह जनित हो या बाहुबल जनित हो अथवा परिवार जनित ही हो या वह किसी और प्रकार की भी हो सकती है, इन सबको रोकने की आकांक्षा से भरा कवि अपनी कविता में उस स्थिति या उस दृश्य को अपनी कविता में कहता है। डाॅ.ओमप्रकाश सिंह भी इस दृष्टि से एक सजग कवि हैं। परिवार में, समाज में आपसी समरस सम्बन्धों के टूटते जाने से व्यथित होकर वे लिखते हैं –
“अनबूझी आँखों के सपने/खिले कभी मुरझाये
टकराहट में/ टूटी शाखें/ हरियल पात झरे;
सम्बन्धों के फूल/ धूल में/ हैं आँखें मलते;
जब यथार्थ का/ दर्द चुभे/ चुपके-चुपके गहराये।”
(अग्निपथों पर जलते पाँव, पृष्ठ -29)
यहाँ जिस यथार्थ के दर्द की बात कवि कह रहा है, जो अभी गहराता भी जा रहा है, उसे समझने से ही कवि की करुण-दृष्टि को समझा जा सकता है। यहाँ कवि की दृष्टि सम्बन्धों पर तो है, किन्तु उस टकराहट पर भी है, जिससे आपसी सौहार्द की शाखायें टूट रही हैं। सम्बन्ध मिट रहे हैं।
डॉ.ओमप्रकाश सिंह के उक्त गीतांश को देखने पर हम यह भी पाते हैं, कि उनका नवगीत, गीत की पारम्परिक जड़ताओं को भी तोड़ रहा है।गीत के शिल्प में तुक और तुकान्तता का बड़ा महत्व है। प्रायः तुक मिलाते समय अंतिम स्वर ध्वनि के साथ अंतिम वर्ण को भी तुक में शामिल किया जाता है, किन्तु इनके यहांँ अंतिम वर्ण नहीं आने पर अंतिम स्वर ध्वनि आने पर भी तुकान्तता मान ली गई है और यह सायास नहीं है, बल्कि एक सहज स्वीकार जैसा है। इसीलिए नवगीत कविता को गीत की परम्परा का ही आधुनिक संस्करण कहा जाता है, क्योंकि यह परम्परा से प्राप्त शिल्प, कहन आदि में अपने समय को, समय की जरुरतों को शामिल करता है। यही कविता का प्रमुख लक्षण भी है। यही कारण है कि कविता अपने मन्तव्य में अपने रचने के समय का भी अतिक्रमण करते हुए अपनी प्रासंगिकता का विस्तार करती है। जब वह ऐसा कर पाती है, तभी उसकी उपस्थिति भी लोक में लगातार बनी रहती है, अन्यथा तात्कालिक बुलबुले की तरह कुछ समय बाद उसका दिखना बन्द हो जाता है।
वैसे तो हमारे समय के समाज की परिस्थितियाँ जैसी हैं, उनकी संगति प्रेम, सौहार्द, भाईचारा, विश्वास, समरसता जैसी चीज़ों से बैठती दिखती नहीं। क्योंकि, हर तरफ अन्याय, अत्याचार, शोषण, विषमता, अविश्वास, प्रतिशोध की भावना और कृत्य ही दिखाई पड़ते हैं और यह सब मनुष्य का मनुष्य के प्रति ही नहीं बल्कि उसका प्रकृति के साथ भी ऐसा ही रवैया है। किन्तु, इस सबके साथ ही जो प्रेम, सौहार्द, निर्मल आपसी सम्बन्ध जो किसी धुन्ध में दबे-से हैं। आसानी से दिखाई नहीं पड़ते। समाज की भीतरी परतों पर इन्हीं की सत्ता शक्तिमान है। डॉ. ओमप्रकाश सिंह जी के कवि की पहुँच, उनकी कवि-दृष्टि की पहुँच इन परतों तक है और वह पाठक को ही इन परतों तक न सिर्फ ले जाती है, बल्कि पाठक इनके नवगीतों को पढ़ते हुए स्वयं भी इन मानवीय भावों से अनुप्राणित हो उठता है। यही कवि की सफलता भी है। यही कारण है कि डॉ.ओमप्रकाश सिंह जी के नवगीत-कविता संसार में शोषण, अनाचार, अन्यान्य व विसंगतियों के प्रतिरोध के स्वरों की नवगीत-कविताओं की भरपूर व्याप्ति होने के बाद भी मैं उन्हें ‘सम्बन्धों का दृष्टा कवि’ कहता हूँ।

राजा अवस्थी
सीएम राइज़ माॅडल उच्चतर माध्यमिक विद्यालय कटनी (म.प्र.) में अध्यापन के साथ कविता की विभिन्न विधाओं जैसे नवगीत, दोहा आदि के साथ कहानी, निबंध, आलोचना लेखन में सक्रिय। अब तक नवगीत कविता के दो संग्रह प्रकाशित। साहित्य अकादमी के द्वारा प्रकाशित 'समकालीन नवगीत संचयन' के साथ सभी महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय समवेत नवगीत संकलनों में नवगीत संकलित। पत्र-पत्रिकाओं में गीत-नवगीत, दोहे, कहानी, समीक्षा प्रकाशित। आकाशवाणी केंद्र जबलपुर और दूरदर्शन केन्द्र भोपाल से कविताओं का प्रसारण।
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