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आदित्य की कलम से....

भाषा का रोब

               इंसानों ने लाखों सालों के जंगली जीवन के दौरान आवाज़ निकालने की अपनी क्षमता का विकास किया होगा। ख़ुद को बंदरों के स्तर से ऊपर उठाते हुए पहले-पहल जब तोता, मैना के आज के स्तर को छुआ होगा तो इससे प्राणी जगत में क्रांति हो गयी होगी। कालांतर में इस क्षमता के विकास के क्रम में वर्णों, शब्दों, वाक्यों तक पहुंचकर बोलियों का निर्माण हुआ होगा। बोलियों का विकास संप्रेषण को सरल बनाने के लिए हुआ होगा और उत्तरोत्तर संप्रेषण को अधिक बोधगम्य और अभिव्यक्ति को सशक्त बनाने के लिए बोलियाँ भाषाओं में परिवर्तित हो गयी होंगी…मेरा ऐसा मानना है। लेकिन कुछ भाषाएँ सीधे आसमान से उतरी हैं, अतः उन भाषाओं के संबंध में मेरी मान्यता ग़लत भी हो सकती है।

हम स्कूल के दिनों से पढ़ते, सुनते और लिखते आये हैं कि भारत न केवल प्रजातियों का वरन् भाषाओं का भी अजायबघर है। ये अजायबघर कैसे बना! इसकी बहुत-सी थ्योरियां है जो बताती हैं इस पवित्र दैवभूमि में विदेशियों के आगमन के कारण यह विसंगति पैदा हुई।

भारत में कुलीनों और जनसाधारण की भाषा अलग-अलग रही है। प्राचीनकाल में संस्कृत और मध्यकाल में फ़ारसी का प्रयोग राज दरबारों में होता था, जबकि आम जनता क्षेत्रीय बोलियों से काम चलाती थी। इन बातों के प्रमाण तत्कालीन साहित्य में देखे जा सकते हैं।

ब्रिटिश शासन की स्थापना के बाद से भारत में भाषाओं को लेकर एक बड़े वर्ग में कुंठा पायी जाती है, जो सिर्फ़ उन्हीं लोगों को होती है जो आधी-अधूरी अंग्रेज़ी जानते हैं। आज़ादी मिलने के बाद भी भारत का अंग्रेज़ी जानने वाला वर्ग आधी-अधूरी अंग्रेज़ी जानने वालों को दोयम दर्जे के नागरिक की तरह ट्रीट करता है। अंग्रेज़ी जानने वालों ने इस संपर्क भाषा का बेजा इस्तेमाल करते हुए देश के संसाधनों और अवसरों पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। अंग्रेज़ी भाषा ने भारतीय उपमहाद्वीप में एक ऐसे वर्ग की स्थापना में मदद की, जो भाषाई आधार पर उच्च सामाजिक परिस्थिति का दावा करता है और उसका लाभ उठाता है। अपने हितों के लिए अंग्रेज़ी भाषा से संपन्न इस समूह के बहुसंख्य लोगों को किसी भी क्षेत्रीय भाषा या हिंदी बोलने वाले प्रभावशाली और संपन्न लोगों की जी-हुज़ूरी करने में कोई गुरेज़ नहीं होता। अंग्रेज़ी न जानने वाले आम लोग इन दोनों ही वर्गों का यथेष्ट सम्मान करते हैं।

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आम लोगों को क्षेत्रीय भाषाओं को न जानने से किसी भी तरह की न तो शर्मिंदगी होती है और न ही कुंठा। व्यावहारिक तौर पर आम आदमी के लिए क्षेत्रीय भाषाएँ ज़्यादा से ज़्यादा देशाटन के समय परेशानी का सबब बनती हैं या फिर अंतर्देशीय छोटे स्तर के व्यापार में। सिनेमा ने बहुत हद तक राजनीतिक स्वार्थों के चलते भाषाओं से उपजी कटुता को दूर करने में मदद की है। सिनेमाघरों और टीवी चैनलों में डब की गयी क्षेत्रीय फ़िल्मों की लोकप्रियता इसको प्रमाणित करती है।

भाषाओं को लेकर मोटे तौर पर विवाद और कटुता सामान्यतः निम्नलिखित कारणों का परिणाम है: पहला, किसी भाषा को अन्य भाषाभाषी समूह पर थोपा जाना; दूसरा, किसी भाषा को सीखने के समान तथा पर्याप्त अवसरों की उपलब्धता का अभाव; और विभिन्न स्थानों पर भाषाई आधार पर विभेद आदि… अंग्रेज़ी भाषा की अर्हता या योग्यता के अभाव में यथेष्ट सम्मान और अवसरों से वंचित लोगों में हीनभावना पैदा होती है, जो कालान्तर में अंग्रेज़ी के विरोध के रूप में प्रकट होती है, जिसे अस्मिता की रक्षा के नाम पर न्यायसंगत ठहराने का प्रयास किया जाता है।

भारत में अंग्रेज़ी भाषा का उपयोग संपर्क भाषा के अलावा एक हथियार के तौर पर किया जाता है। यह सूचनाओं को सीमित और गोपनीय बनाये रखने का प्रमुख हथियार है। आज भी वित्तीय मामलों के दस्तावेज़ों में इसका धड़ल्ले से प्रयोग होता है। नॉन बैंकिंग वित्तीय संस्थान या बैंक ऋण के अधिकांश दस्तावेज़ जो 30-40 पेजों के होते है, जिनमें नियम और शर्ते होती हैं, जान-बूझकर अंग्रेज़ी में ही रखे जाते हैं। जिस पर बेशर्मी और धूर्तता के साथ उन लोगों के अंगूठे लगवाये या दस्तख़त करवाये जाते हैं, जो अंग्रेज़ी नहीं जानते।

इतने पर भी शायद ही कोई इस बात से इनकार करेगा कि आधुनिक भारत के निर्माण में अंग्रेज़ी भाषा ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। अंग्रेज़ी की बदौलत वैश्विक ज्ञान और बदलावों तक भारत की सीधी पहुंच बनी, इसी की बदौलत सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से इस देश में बड़े परिवर्तन आये, जो आम जनता के लिए सकारात्मक रहे हैं।

aditya, आदित्य

आदित्य

प्राचीन भारतीय इतिहास में एम. फिल. की डिग्री रखने वाले आदित्य शिक्षा के क्षेत्र में विभिन्न एनजीओ के साथ विगत 15 वर्षों से जुड़े रहे हैं। स्वभाव से कलाप्रेमी हैं।

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