दुष्यंत कुमार, dushyant kumar
पाक्षिक ब्लॉग विजय कुमार स्वर्णकार की कलम से....

एक दरख़्त के साये में 50 वर्ष (भाग-2)

          यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
          चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए

पिछले ब्लॉग में हमने निम्नलिखित शेर के सहज अर्थ के बारे में चर्चा की थी। अब इस शेर की परत में जो निहित अर्थ हैं, मंतव्य भी, उन पर बात की जाये। दुष्यंत की ग़ज़लों के मूल स्वर को सत्ता और व्यवस्था के विरोध से जोड़कर देखा जाता है। इस शेर में उल्लेखित सायेदार दरख़्त सीधे-सीधे राजनैतिक सत्ता का प्रतीक हो सकते हैं लेकिन सत्ता का प्रभाव तो पूरे देश और उसके वर्तमान पर होता है, उससे कैसे भागा जा सकता है और भागकर जाएंगे कहाँ? लेकिन राजनैतिक विचारधारा के दरख़्त को छोड़ा जा सकता है और अन्य विचारधारा के दरख़्त के तले आश्रय प्राप्त किया जा सकता है। छोटी संस्था में अस्तित्व के लिए जूझने की प्रवृति, बड़ी सत्ता से संघर्ष कर सकने के दुस्साहस की नींव रखती है। यह शेर विशेष विचारधारा, परम्परा और वाद से मोहभंग की परिस्थितियों की उपज है।

ग़ज़लकार ने प्रतीकों से अर्थपूर्ण बहुआयामी अभिव्यक्ति का प्रयास किया है। साया संरक्षण है। वही अर्थ तह में है। संरक्षण हटने का ख़तरा भांपते ही ज़माने की मार सीधी आती महसूस होती है। यही अनुभूति धूप में आग की-सी तपिश पैदा करती है। ऐसे में वही दरख़्त जो श्रद्धा का पात्र था उस से मोहभंग होना स्वाभाविक है। अन्यथा जहां संरक्षण और श्रद्धा हो, वहां धूप-छांव एक खेल से अधिक कुछ नहीं है।

किसी शेर से अर्थ ग्रहण करने के लिए उसका प्रस्तुत टेक्स्ट ही देखा जाना चाहिए। आइए इस शेर में आये शब्दों और वाक्यांशों की भूमिका और ध्येय को समझते हैं। सर्वप्रथम “यहां” शब्द पर ध्यान दिया जाये। शेर में “यहां” के एक दरख़्त को छोड़कर “यहीं” के दूसरे दरख़्त के तले जाने की बात नहीं हो रही है। “दरख़्तों” शब्द का आना इंगित करता है कि इस निर्णय पर आने से पूर्व अन्य दरख़्तों की भी पड़ताल की जा चुकी है। इससे यह भी स्पष्ट है कि यह अचानक उपजी व्यथा नहीं है। यही ग़ज़लकार की ख़ूबी है कि वह अपने कथ्य की विश्वसनीयता और प्रामाणिकता के लिए प्रत्येक शब्द को बहुत सोच समझकर शेर का हिस्सा बनाता है। अब सवाल यह है कि अगर सारे दरख़्त ऐसे ही हैं तो कहां जाया जाये। इसी का तोड़ शेर के पहले शब्द “यहां” में है। “यहां दरख्तों” से अर्थ ग्रहण होता है कि अन्य स्थान पर भी दरख़्तों के साये में धूप लगे यह आवश्यक नहीं है, अन्यथा शेर यूं कहा गया होता- “सभी दरख़्तों के साये”। तात्पर्य यह है कि ग़ज़लकार का विश्वास है कि “यहां” के दरख़्त अनुकूल नहीं हैं, अतः इन्हें छोड़कर अन्य जगह जाना उचित है।

एक अन्य पहलू से इस शेर की परख की जाये। बीसवीं सदी के सत्तर के दशक में सामाजिक उथल-पुथल अपने शीर्ष की ओर बढ़ रही थी। नौजवान शिक्षित हो रहे थे। परिवारों में नये ज़माने के चलन को लेकर आंतरिक संघर्ष चल रहा था। कुरीतियों और अंध आस्थाओं के विरुद्ध स्वर बल पकड़ रहा था। इन सबके चलते स्त्रियों की स्थिति बहुत चिंताजनक हो गयी थी। बेटा-बहू अपने बड़े-बूढ़ों से सामंजस्य नहीं बिठा पा रहे थे। विवाहित स्त्रियां विभिन्न कारणों से अपने पति और ससुराल से त्रस्त होकर अपने बच्चों के साथ घर छोड़ने को विवश हो रही थीं। संयुक्त परिवारों का विघटन ज़ोर पकड़ रहा था। भाई-भाई से अलग हो रहा था। व्यक्तिवादी सोच अपना दायरा बढ़ा रही थी। परिवार के वरिष्ठजनों से दरख़्तों की तरह साया देने की अपेक्षा होती है, लेकिन जब इनके बीच रहकर तालमेल की कमी के चलते आपसी कटुता बढ़ती जाती है और पीड़ित का दम घुटने लगता है तब एक दिन ऐसा आता है कि ऐसे माहौल से अलग होने की ठान ली जाती है। यह शेर निर्णय के उसी क्षण में कहा गया है- “चलो यहाँ से चलें और उम्रभर के लिए”। लड़ाई-झगड़े के उपरांत घर छोड़कर जाते समय यह भावना बलवती हो सकती है कि अब “उम्र भर के लिए” दूर चला जाये।

शेर की दूसरी पंक्ति “चलो यहां से चलें…” के आरंभ ही में महत्वपूर्ण संकेत है। “चलो” से अर्थ ग्रहण होता है कि वह अकेला नहीं है। हां, निर्णय की घोषणा अवश्य वह कर रहा है लेकिन निर्णय प्रक्रिया में उसके साथ कोई और भी है। ये उसी के जैसी विचारधारा वाले साथी भी हो सकते हैं और आश्रित भी। इससे स्पष्ट होता है कि उसकी पीड़ा नितांत व्यक्तिगत नहीं है। उसमें दूसरों की पीड़ा भी सम्मिलित है और संभवतः उसी के चलते वह इस कड़े निर्णय के लिए बाध्य है। दुष्यंत की पीड़ा भी व्यक्तिगत नहीं है। कविता में परहित का बोध जुड़ते ही वह पाठक में विशिष्ट करुणा जगा देता है। एक अच्छी कविता के यही तो गुण हैं – जुड़ना और जाग्रत करना।

ध्यातव्य है कि इस शेर में संभावित पलायन नकारात्मक नहीं है। संभावित इसलिए कि शेर केवल उस ऐलान को बयान कर रहा है जो उस पीड़ित व्यक्ति का है। उस ऐलान के बाद की घटनाओं का विवरण शेर में नहीं है। ख़ैर, तथ्य यह है कि शेर में चुनौतियों से मुंह मोड़ने का भाव न होकर, अपना और अपने आश्रितों के संरक्षण का आशय है। साथ ही उनके सुख को सुनिश्चित करने के लिए नयी चुनौती से भिड़ सकने के साहस का भाव भी है। जीने की चुनौती अपने जाने-पहचाने वातावरण में आसान होती है। यहां यह व्यक्ति अपने प्रियजनों के साथ इस वातावरण से त्रस्त होकर एक अनजाने ठिकाने के लिए निकलने को विवश है। यह पीड़ा इतनी तीव्र है कि वह तय करता है “उम्र भर के लिए” यहां लौटकर नहीं आना है।

इस महत्वपूर्ण तथ्य की ओर इंगित करना आवश्यक है कि इस शेर में ग़ज़लकार के मन में कोई संशय नहीं है। निर्णय की घोषणा करते हुए वह ज़रा भी झिझक नहीं रहा है- बयान में लिजलिजापन नहीं है। उसका बयान “चलो यहां से चले” पर नहीं रुकता वरन “और उम्र भर के लिए” के अतिरिक्त ऐलान के साथ ख़त्म होता है। यह दृढ़ आत्मविश्वास और आक्रामकता का परिचायक है। दुष्यंत का यह अंदाज़ आकर्षक है।

देश, काल और परिस्थितियां भले ही बदल जाएं, इस शेर की प्रासंगिकता अक्षुण्ण रहेगी। प्रत्येक पाठक इससे जुड़कर अपने देश या व्यक्तिगत स्मृति/स्थिति पर विचार करते हुए इसके भाव को एक सहज अभिव्यक्ति के रूप में स्वीकार करता रहेगा। यही ग़ज़लकार की सफलता है।

(शेष अगले भाग में)

विजय कुमार स्वर्णकार, vijay kumar swarnkar

विजय कुमार स्वर्णकार

विगत कई वर्षों से ग़ज़ल विधा के प्रसार के लिए ऑनलाइन शिक्षा के क्रम में देश विदेश के 1000 से अधिक नये हिन्दीभाषी ग़ज़लकारों को ग़ज़ल के व्याकरण के प्रशिक्षण में योगदान। केंद्रीय लोक निर्माण विभाग में कार्यपालक अभियंता की भूमिका के साथ ही शायरी में ​सक्रिय। एक ग़ज़ल संग्रह "शब्दभेदी" भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित। दो साझा संकलनों का संपादन। कई में रचनाएं संकलित। अनेक प्रतिष्ठित संस्थाओं द्वारा सम्मानित।

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