ग़ज़ल, हिंदी लफ़्ज़ और ज़हीर क़ुरैशी

ग़ज़ल, हिंदी लफ़्ज़ और ज़हीर क़ुरैशी

पुराना भोपाल, रेलवे स्टेशन का एरिया और संगम टॉकीज़ के सामने एक अपार्टमेंट जिसके फ़्लैट में ज़हीर क़ुरैशी साहब अपनी शरीके-हयात के साथ रहते थे, उसी अपार्टमेंट में उनकी बेटी और दामाद भी थे। कभी दोपहर में ज़हीर साहब के पास जाकर बैठ जाता तो शाम तक बहुत-सी काम की बातें सुनने को मिल जातीं, आख़िर उनका अनुभव विशाल था।

पुरानी यादों की बस्ती नयी-सी लगती है
अंधेरी रात में कुछ रोशनी-सी लगती है
सुंदरता को मंत्रमुग्ध होकर देखे संसार
जीवन की उस सुंदरता को गाते हैं कुछ लोग

कोरोना काल में ज़हीर साहब को फ़ोन किया तो बोले दामाद के साथ शादी के फ़ंक्शन में आया हूँ। मैंने अपनी बेचैनी ज़ाहिर की- आपको ऐसे समय में बाहर नहीं जाना चाहिए था, कहने लगे “सलीम चिंता मत करो, दामाद डॉक्टर है और सरकारी फ़रमान का पालन करते हुए बहुत कम लोग आये हैं।” उसी बातचीत में उन्होंने बताया कि उनके सारे लेखन को एक वेबसाइट पर यकजा किया गया है। बाद में उनकी फ़ेसबुक आईडी (जो मैंने ही बनायी थी) उस पर उस वेबसाइट के बारे में पोस्ट करना था.. लेकिन उनसे ये मेरी आख़िरी बातचीत थी।

लगता था इससे आगे कोई रास्ता नहीं
जीवन में आ ही जाते हैं ऐसे पड़ाव भी
समय पर मौन रहना जानते हैं
हम अपनी बात कहना जानते हैं

ज़हीर साहब को एक बार मैं अपनी नयी नज़्म सुना रहा था, उसमें ‘जर्जर’ शब्द आया तो तुरंत मुझे इंटरप्ट करते हुए कहा- “ये जर्जर तो शुद्ध हिंदी शब्द है।” मैं कुछ झेंप गया और आगे जैसे-तैसे नज़्म पूरी की। उस वक़्त मैं अपने जर्जर शब्द से शर्मिदा भी हुआ, बुरा लगा, सोचने लगा मैंने नज़्म सुनायी भी क्यों, क्या पता सुनाने में शायद मेरा अहंकार झलक रहा हो? बाद में मुझे ज़हीर साहब का सुनाया हुआ वाक़या याद आया- वह जब भोपाल में आये-आये थे, किसी साहब ने उन्हें मॉर्निंग वॉक पर जाते शेरी भोपाली जी से यह कहते हुए मिलाया कि ये ज़हीर क़ुरैशी हैं और हिंदी में ग़ज़ल कहते हैं, उनके हुक्म पर ज़हीर साहब ने जब अपने कुछ अशआर सुनाये तो शेरी भोपाली के चेहरे पर मुस्कुराहट बिखर गयी, बोले- लड़का होशियार है, उर्दू के शेर में हिंदी लफ़्ज़ रख देता है। ज़हीर क़ुरैशी साहब गीत-कविता के क्राफ्ट से जुदा सिन्फ़े-ग़ज़ल को ख़ूब समझते थे।

जब तक कथित प्रकार की शुचिता बनी रही
मन में पवित्र रहने की दुविधा बनी रही
जिन पे निर्भीक होके चल सकते
हम वो रस्ते तमाम भूल गये
हमको तुलसी के राम याद रहे
हम कबीरा के राम भूल गये

मेरी साइकी में वो जर्जर शब्द आज भी अटका हुआ है, उन्होंने जर्जर शब्द पर ऐतराज़ किया था। ज़हीर साहब ने अपनी किताब ‘रास्तों से रास्ते निकलते हैं’ में कहा भी है कि ‘भाषा के साथ पूरी संस्कृति जुड़ी होती है। भाषा बदलने के साथ उसका मुहावरा भी बदलता है’… पर क्या वाक़ई वह उर्दू और हिंदी के मुहावरों में कोई भेद देखते भी थे?

दीये के ठीक नीचे है अंधेरा
कहावत भी पुरानी हो रही है
वाद प्रतिवाद होता रहा
वक़्त बर्बाद होता रहा
डूबते आदमी के लिए
तृण का संबल बड़ा हो गया

वह ग़ज़ल के शेर में घटना, दृश्य, विचार, अनुभूति को सीधे सपाट शब्दों में प्रकट करते, उसमें कोई ड्रामाई अंदाज़ नहीं था, उनका सरोकार ‘क्या कहना है’ पर अधिक रहा, ‘कैसे कहना है’ इस बात पर उन्होंने ज़ोर कम ही दिया।

सलीम सरमद

सलीम सरमद

1982 में इटावा (उ.प्र.) में जन्मे सलीम सरमद की शिक्षा भोपाल में हुई और भोपाल ही उनकी कर्म-भूमि है। वह साहित्य सृजन के साथ सरकारी शिक्षक के तौर पर विद्यार्थियों को भौतिक विज्ञान पढ़ाते हैं। सलीम अपने लेखन में अक्सर प्रयोगधर्मी हैं, उनके मिज़ाज में एकरंगी नहीं है। 'मिट्टी नम' उनकी चौथी किताब है, जो ग़ज़लों और नज़्मों का संकलन है। इससे पहले सरमद की तीन किताबें 'शहज़ादों का ख़ून' (कथेतर) 'दूसरा कबीर' (गद्य/काव्य) और 'तीसरा किरदार' (उपन्यास) प्रकाशित हो चुकी हैं।

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