वसीम नादिर

ग़ज़ल अब

वसीम नादिर

1.
दिल से तुम उसकी याद के जुगनू जुदा करो
अब वक़्त आ गया है ये क़ैदी रिहा करो
हर वक़्त तितलियों के तअक़्क़ुब में ज़ेह्न हैं
दो चार दिन तो अपने बदन में रहा करो
इनके भी कुछ परिंदे कहीं दूर जा बसे
पेड़ों के दुख ठहर के कभी सुन लिया करो
ये मसलिहत तुम्हारा हुनर चाट जाएगी
दो चार बार खुल के कभी तब्सिरा करो
ख़ुशबू के कारोबार की ये शर्त खूब है
फूलों से जाके पहले ज़रा मशवरा करो

2.
पयाम आ गया सहरा से आशनाई का
यही तो वक़्त है दुनिया से बेवफ़ाई का
उदासियों के कई रंग मुझमें शामिल हैं
मगर ये रंग अलग है बहुत जुदाई का
वो आज रोते हुए मुझसे आ लगा है गले
ये वक़्त ठीक नहीं होगा लबकुशाई का
ये क़ैद-ए-जिस्म भी क्या दिलफ़रेब रिश्ता है
ख़याल ही नहीं आता कभी रिहाई का

वसीम नादिर

वसीम नादिर

1974 में जन्मे वसीम नादिर 1990 के दशक के बाद की उर्दू ग़ज़लिया शायरी में अपनी भावुकता के लिहाज़ से ख़ास जगह रखते हैं। 'शाम से पहले' उनका काव्य संग्रह 2015 में प्रकाशित हुआ था, जिसे उर्दू अकादमी द्वारा नवाज़ा भी गया था।

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