राजकुमार राज़

ग़ज़ल अब

राजकुमार राज़

तुमने दुश्वारियाँ देखीं तो इरादे बदले
हमने मंज़िल ही कभी बदली न रस्ते बदले
फिर कहीं कोई जनाज़ा उठा शाने बदले
खेल था वो ही फ़क़त देखने वाले बदले
जिस्म के पास न हक़ है न इजाज़त है कोई
रूह जब चाहे ये पोशाक उतारे बदले
ख़ुद को इक बीज की मानिंद यहीं बोया था
हमने बस्ती भी न छोड़ी न ठिकाने बदले
मैंने मर के ही सुकूँ पाया है मुंसिफ़ साहब
मेरे क़ातिल को दुआ दीजे सज़ा के बदले
अपने वादों से मुकरना भी न आया हमको
पर बदलना है जिसे आपके जैसे बदले
उन ख़ताओं से तुम्हें ‘राज़’ सबक़ लेना था
तुमने हर बार शिकस्तों पे बहाने बदले

राजकुमार राज़

राजकुमार राज़

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *