तुमने दुश्वारियाँ देखीं तो इरादे बदले हमने मंज़िल ही कभी बदली न रस्ते बदले फिर कहीं कोई जनाज़ा उठा शाने बदले खेल था वो ही फ़क़त देखने वाले बदले जिस्म के पास न हक़ है न इजाज़त है कोई रूह जब चाहे ये पोशाक उतारे बदले ख़ुद को इक बीज की मानिंद यहीं बोया था हमने बस्ती भी न छोड़ी न ठिकाने बदले मैंने मर के ही सुकूँ पाया है मुंसिफ़ साहब मेरे क़ातिल को दुआ दीजे सज़ा के बदले अपने वादों से मुकरना भी न आया हमको पर बदलना है जिसे आपके जैसे बदले उन ख़ताओं से तुम्हें ‘राज़’ सबक़ लेना था तुमने हर बार शिकस्तों पे बहाने बदले