
- November 30, 2025
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पाक्षिक ब्लॉग अरुण अर्णव खरे की कलम से....
हिंदी व्यंग्य स्तंभ-लेखन की परंपरा और समकाल
हिंदी व्यंग्य को लोकप्रिय बनाने में स्तंभ-लेखन की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। साहित्य के अनेक समालोचक यह मानते हैं कि हिंदी व्यंग्य को जनसामान्य के बीच जो व्यापक पहचान मिली, उसका श्रेय मुख्यतः समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं में छपने वाले स्तंभ-लेखन को जाता है। उनके इस मत से असहमत होने का कोई कारण नहीं दिखता।
स्तंभ-लेखन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें लेखक को सीमित शब्दों में प्रभावी और गहरी बात कहनी होती है। यही संक्षिप्तता उसकी सबसे बड़ी शक्ति है, जो लेखन को अधिक संप्रेषणीय और सघन बनाती है। कम शब्दों में किया गया तीखा प्रहार पाठकों पर सीधा असर करता है। कॉलम-लेखन अपने समय की घटनाओं पर त्वरित, तीव्र और व्यंजक प्रतिक्रिया देने का माध्यम है। लेखक अपनी पैनी दृष्टि से समाज और सत्ता की विडंबनाओं को उजागर करता है और पाठकों को सोचने पर मजबूर कर देता है। कॉलम-लेखन एक प्रकार से पत्रकारिता की ताजगी और साहित्य की संवेदना का मेल है। कॉलम-लेखन में समाचार की गंभीरता और साहित्यिक गहराई का संतुलन साधा जाता है। कॉलम के माध्यम से लेखक और पाठक के बीच निरंतर संवाद बना रहता है। यह संवाद न केवल रचनात्मक होता है, बल्कि विश्वास का एक सेतु भी बनाता है, जिससे लेखन अधिक जीवंत हो उठता है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कॉलम-लेखन व्यंग्य को जनमानस की भाषा और सोच से जोड़ने में सफल रहा, जिससे व्यंग्य किसी सीमित बौद्धिक वर्ग तक सीमित नहीं रह गया, बल्कि आम जनता की समझ, अनुभव और भावनाओं का हिस्सा बन गया। यही कारण है कि हिंदी व्यंग्य की लोकप्रियता में कॉलम-लेखन ने एक निर्णायक भूमिका निभायी है।
हिंदी साहित्य के आधुनिक इतिहास में भारतेंदु युग को हास्य-व्यंग्य लेखन की समृद्ध परंपरा का प्रारंभिक चरण माना जाता है। स्वयं भारतेंदु हरिश्चंद्र की रचनाओं में हास्य और व्यंग्य की तीव्र, पैनी और प्रभावशाली धारा प्रवाहित होती है। उनके प्रसिद्ध नाटक भारत दुर्दशा और अंधेर नगरी में लोककथा और पारंपरिक लोकरूपों के माध्यम से समकालीन सत्ता की मूढ़ता और विवेकहीनता को उजागर किया गया है। भारतेंदु-युग में बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ और प्रतापनारायण मिश्र ने भी अपनी रचनाओं के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों, अंधविश्वासों और पाश्चात्य अनुकरण की प्रवृत्तियों पर तीखा व्यंग्य किया। राधाचरण गोस्वामी के नाटकों में भी धर्मगुरुओं की छद्म लीलाओं (अर्पण) और परनारीगमन के दुष्परिणामों (बूढ़े मुँह मुँहासे) को प्रभावशाली ढंग से रेखांकित किया गया है। उनका प्रसिद्ध निबंध यमलोक की यात्रा हास्य-व्यंग्य लेखन की एक अनूठी मिसाल माना जाता है। बालकृष्ण भट्ट के उपन्यास नूतन ब्रह्मचारी और सौ अजान एक सुजान भी व्यंग्य और विनोद से परिपूर्ण हैं। उक्त सभी रचनाकार तत्कालीन समाज की विसंगतियों को लक्ष्य कर पाठकों को गहराई से सोचने के लिए प्रेरित करते हैं, लेकिन लेखन में नियमितता न होने के कारण इनमें से किसी के लेखन को स्तंभ-लेखन की मान्यता नहीं मिली।
द्विवेदी युग में बालमुकुंद गुप्त एक सशक्त व्यंग्यकार के रूप में उभरे। उनकी प्रसिद्ध निबंधमाला “शिवशंभु के चिट्ठे” (1903–1905), जो ‘भारतमित्र’ समाचार पत्र में प्रकाशित हुई, को हिंदी साहित्य में पहला स्तंभ-लेखन माना जाता है। इस निबंध माला में उन्होंने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन, प्रशासनिक भ्रष्टाचार, सामाजिक कुरीतियों और धर्मांधता को अपने व्यंग्य का केंद्र बनाया था।
व्यंग्य में परसाई युग
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात हिंदी व्यंग्य-साहित्य में एक नये युग का आरंभ हुआ। हरिशंकर परसाई इस विधा के प्रथम पूर्णकालिक व्यंग्यकार के रूप में प्रतिष्ठित हुए। उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से सामाजिक विसंगतियों, राजनीतिक पाखंड और नैतिक पतन पर करारा व्यंग्य प्रस्तुत किया। परसाई के समकालीन शरद जोशी ने भी व्यंग्य को जनसामान्य से जोड़ा और उसे सामाजिक आलोचना का प्रभावशाली माध्यम बनाया। इन दोनों लेखकों ने व्यंग्य विधा को साहित्यिक गरिमा के साथ जनोन्मुखी स्वरूप प्रदान किया। विशेष रूप से समाचारपत्रों और पत्रिकाओं में स्तंभ-लेखन के माध्यम से इन्होंने व्यंग्य को नित्य जीवन से जोड़ा और हिंदी पाठकों के बीच इसे लोकप्रिय बनाया।

हिंदी व्यंग्य-साहित्य में हरिशंकर परसाई का स्तंभ-लेखन अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। उन्होंने लगभग पाँच दशकों तक विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में विविध शैली में स्तंभ लेखन किया। परसाई का स्तंभ-लेखन स्वतंत्रता प्राप्ति के तत्काल बाद 1947 में “प्रहरी” पत्रिका से प्रारंभ हुआ, जहाँ उन्होंने “अघोर भैरव” के छद्म नाम से “नर्मदा के तट से” शीर्षक स्तंभ लिखा। यही उनके व्यंग्यात्मक स्तंभ-लेखन की औपचारिक शुरुआत थी। इसके पश्चात उन्होंने जबलपुर से प्रकाशित “परिवर्तन” साप्ताहिक में “अरस्तू की चिट्ठी” नामक स्तंभ लिखा। जबलपुर की ही पत्रिका “नवीन दुनिया” में उनके “सुनो भई साधो” स्तंभ को विशेष ख्याति प्राप्त हुई, जिसमें वे “कबीर” उपनाम से लेखन करते थे। यह स्तंभ आमजन की बोलचाल और कबीर की शैली में तीव्र सामाजिक कटाक्ष प्रस्तुत करता था।
दिल्ली से प्रकाशित “जनयुग” (1965) में परसाई ने “आदम” नाम से “ये माजरा क्या है” शीर्षक के अंतर्गत अपने व्यंग्य प्रकाशित किये। शैलीगत विविधता में निपुण परसाई ने साक्षात्कार, पत्र-निबंध, प्रश्नोत्तर और कथा-शैली को अपने स्तंभों में अपनाया। उनका “कबिरा खड़ा बाजार में” (1974–76) शीर्षक स्तंभ “सारिका” पत्रिका में साक्षात्कार शैली में लिखा गया था। वहीं “देशबंधु” अखबार में प्रकाशित उनका प्रसिद्ध स्तंभ “पूछिए परसाई से” (1983–1994) प्रश्नोत्तर शैली का श्रेष्ठ उदाहरण है, जिसमें वे पाठकों के प्रश्नों का व्यंग्यपूर्ण और गंभीर उत्तर देते थे। हैदराबाद से प्रकाशित “कल्पना” पत्रिका में उनका स्तंभ “और अंत में” पत्र-निबंध शैली में था। इसी पत्रिका में उन्होंने “माजरा क्या है” और “मेरे समकालीन” शीर्षकों से भी स्तंभ लेखन किया। उनके अन्य उल्लेखनीय स्तंभों में “माटी कहे कुम्हार से” (करंट), “मैं कहता आँखन देखी” (माया), “पाँचवाँ कॉलम” तथा “उलझी-उलझी” (नई कहानियाँ), सड़क के किनारे (धर्मयुग) और “तुलसीदास चंदन घिसै” (सारिका) प्रमुख हैं। इन कॉलम में वह भ्रष्टाचार, सामाजिक विसंगतियाँ, राजनीतिक पाखंड और आदर्शों की गिरावट पर बेधड़क टिप्पणी करते थे। इस प्रकार, हरिशंकर परसाई ने अपने स्तंभों के माध्यम से न केवल व्यंग्य को साहित्यिक विधा के रूप में प्रतिष्ठा दिलाई, बल्कि उसे जन-सरोकारों, राजनीतिक चेतना और सामाजिक आलोचना का सशक्त माध्यम भी बनाया।
बीबीसी हिंदी के एक कार्यक्रम में वरिष्ठ पत्रकार रेहान फ़ज़ल ने स्तंभ लेखन की उपादेयता पर चर्चा करते हुए, सुविख्यात संपादक कमलेश्वर के विचारों को उद्धृत करते हुए कहा था -“यह मेरा सौभाग्य रहा है कि मैंने जिन भी पत्रिकाओं का संपादन किया, वे परसाई के कॉलम के बिना कभी प्रकाशित नहीं हुईं। मुझे सदैव लगता था कि जो बातें मैं अन्य रचनाओं या संपादकीय के माध्यम से नहीं कह पाता, उन्हें परसाई की एकमात्र रचना के माध्यम से कह सकता था। इसलिए मैं पहले परसाई से बात करता था, पत्रिका का संपादक बाद में बनता था।” यह वक्तव्य न केवल परसाई के स्तंभों की सशक्तता को रेखांकित करता है, बल्कि यह भी प्रमाणित करता है कि उनका लेखन संपादकीय विवेक के पूरक के रूप में देखा जाता था।
हिंदवी ने परसाई के व्यंग्य-स्तंभों का समग्र मूल्यांकन करते हुए उन्हें एक ऐसे स्तंभकार के रूप में रेखांकित किया है, जिनकी दृष्टि समय और समाज के गहरे अंत:संबंधों को उजागर करने में सक्षम थी। उनका लेखन तत्कालीन सामाजिक-सांस्कृतिक संवेदनाओं को न केवल स्वर देता रहा, बल्कि बदलते समय में भी समसामयिक विमर्श का अनिवार्य हिस्सा बना रहा। सोशल मीडिया के वर्तमान युग में भी हरिशंकर परसाई हिंदी के सबसे अधिक उद्धृत किए जाने वाले लेखकों में अग्रगण्य हैं। उनका लेखन आज भी उतना ही मौलिक, सामयिक और बौद्धिक रूप से प्रेरक है, जितना अपने समय में था।
परसाई के समानांतर
बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हिंदी व्यंग्य-साहित्य को जो गंभीरता, गहराई और जनस्वीकृति प्राप्त हुई, उसमें हरिशंकर परसाई के समकालीन शरद जोशी का योगदान भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण और अविस्मरणीय है। शरद जोशी न केवल शब्दों के कुशल शिल्पी थे, बल्कि उन्होंने आमजन की पीड़ा, सामाजिक विडंबनाओं और राजनीतिक त्रासदियों को तीक्ष्ण हास्य और व्यंग्य के माध्यम से जिस सशक्तता से अभिव्यक्त किया, वह उन्हें व्यंग्य साहित्य के अग्रणी रचनाकारों की पंक्ति में स्थापित करता है। राजनीतिक व्यंग्य के क्षेत्र में शरद जोशी की उपस्थिति विशिष्ट रही। उनके व्यंग्य तीखे, बौद्धिक रूप से उद्दीपक और गहन सामाजिक अंतर्दृष्टि से युक्त होते थे। रविवार पत्रिका में प्रकाशित ‘रविवारीय’, तथा ‘जीने के बहाने’ जैसे स्तंभों के माध्यम से उन्होंने न केवल शहरी जीवन की जटिलताओं को उजागर किया, बल्कि व्यवस्था की निरर्थकता और जन-संवेदनाओं की उपेक्षा पर भी करारा प्रहार किया। नवभारत टाइम्स में प्रकाशित उनका स्तंभ ‘प्रतिदिन’ व्यंग्य लेखन में लोकप्रियता के नए प्रतिमान स्थापित करने वाला सिद्ध हुआ।
इसी समय, हास्य-काव्य की परंपरा को पत्रकारिता से जोड़ने वाले एक अन्य प्रमुख हस्ताक्षर गोपाल प्रसाद व्यास थे, जिन्होंने दैनिक हिंदुस्तान में ‘नारद जी ख़बर लाये हैं’ शीर्षक से अत्यंत लोकप्रिय स्तंभ लिखा। इस स्तंभ में हास्य के साथ-साथ समसामयिक व्यंग्य की गूंज भी स्पष्ट रूप से सुनायी देती थी।

अख़बारों में व्यंग्य के कॉलम
इन स्तंभों की लोकप्रियता ने हिंदी पत्रकारिता में व्यंग्य-स्तंभों के लिए नयी राहें खोलीं। विभिन्न अखबारों में व्यंग्य-स्तंभों की एक समृद्ध परंपरा विकसित हुई। जनसत्ता का ‘ठिठोली’ स्तंभ न केवल पाठकों में अत्यंत लोकप्रिय रहा, बल्कि इसने अनेक नये-पुराने व्यंग्यकारों को पहचान भी दिलायी। इसी काल में नई दुनिया (इंदौर) का ‘अधबीच’ स्तंभ व्यंग्य-साहित्य में एक सांस्कृतिक घटना बनकर उभरा। यह न केवल अपनी विषयवस्तु और शैली के लिए चर्चित रहा, बल्कि इसने व्यंग्यकारों की एक नई पीढ़ी को सामने लाने का कार्य भी किया। इसकी लोकप्रियता का स्तर इतना अधिक था कि वर्षांत पर इसमें प्रकाशित लेखकों के आँकड़े क्रिकेट की भांति संकलित किये जाते थे, मसलन किस लेखक को कितनी बार स्तंभ में स्थान मिला, इसका विस्तृत लेखा-जोखा तैयार होता था। राजस्थान पत्रिका का ‘विक्रमी संवत्’ स्तंभ इस दृष्टि से उल्लेखनीय था कि इसमें क्षेत्रीय मुद्दों पर केंद्रित व्यंग्य लेख प्रकाशित होते थे, जिससे यह स्थानीय पाठकों से गहरे स्तर पर जुड़ सका। इस स्तंभ ने व्यंग्य लेखन को राष्ट्रीय विमर्श के साथ-साथ स्थानीय यथार्थ से भी जोड़ने का कार्य किया।
इस प्रकार, बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में स्तंभ-लेखन हिंदी व्यंग्य-साहित्य का एक प्रभावशाली माध्यम बन गया, जिसने न केवल गंभीर विषयों को व्यंग्यात्मक शैली में प्रस्तुत किया, बल्कि पाठकों में जागरूकता और संवेदनशीलता भी उत्पन्न की। कॉलम-लेखन में समसामयिक विषयों पर प्रतिक्रिया देना जरूरी होता है। यही कारण है कि व्यंग्यकारों ने राजनीति, शिक्षा, प्रशासन, समाज, धर्म, मीडिया जैसे विषयों पर तीखे लेकिन रोचक व्यंग्य लिखे।
कॉलम-लेखन की लोकप्रियता ने व्यंग्यकारों की एक नयी पीढ़ी को जन्म दिया। अख़बारों ने जब नियमित स्तंभों में व्यंग्य को जगह दी, तो रवींद्रनाथ त्यागी (सारिका में पराजित पीढ़ी के नाम), शंकर पुणतांबेकर, बरसाने लाल चतुर्वेदी, श्री बाल पांडेय (तीसरा कोना), विनोद शंकर शुक्ल (नवभारत में मैं कहता आँखन देखी), अजातशत्रु (बयान जारी है), कृष्णचंद्र चौधरी (तीसरी आँख), डॉ सुदर्शन मजीठिया, लतीफ घोंघी (अमृत संदेश में व्यंग्य प्रसंग), ईश्वर शर्मा, गोपाल चतुर्वेदी, कन्हैयालाल नंदन, जैसे लेखकों ने भी इस माध्यम के ज़रिए हास्य और व्यंग्य को नया आयाम दिया। लतीफ घोंघी और ईश्वर शर्मा की जोड़ी ने व्यंग्य में नया प्रयोग किया और एक ही विषय पर दोनों ने वर्षों जुगलबंदी शीर्षक से व्यंग्य लिखे जो एक साथ हर सप्ताह अमृत संदेश (रायपुर) और अमर उजाला के सभी संस्करणों में प्रकाशित होते थे।
श्रीलाल शुक्ल, स्वदेश दीपक, ज्ञान चतुर्वेदी, प्रेम जनमेजय, हरीश नवल और रमेश तुफ़ैल जैसे व्यंग्यकारों ने भी स्तंभ-लेखन के माध्यम से व्यंग्य को समकालीन संदर्भों से जोड़ा और पाठकों को गंभीर विषयों पर सोचने का अवसर दिया। ज्ञान चतुर्वेदी ने धर्मयुग के स्तंभ से शुरूआत कर देश की लगभग सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं मसलन ज्ञानोदय, हंस, कथादेश, इंडिया टुडे आदि में वर्षों व्यंग्य-कॉलम लिखे। प्रेम जनमेजय ने काफ़ी अरसे तक दैनिक भास्कर में कॉलम लिखा। हरीश नवल ने नवभारत टाइम्स में ‘तोषी मौसी कहती थीं’ शीर्षक से स्तंभ लिखा। इस स्तंभ की विशेषता थी कि निबंध हिंदी में होता था किंतु मुख्य चरित्र तोषी मौसी के संवाद पंजाबी में होते थे। बालस्वरूप राही के संपादन में निकलने वाली कल्पांत पत्रिका में भी उन्होंने स्तंभ लेखन किया।
व्यंग्य स्तंभों का समकाल
वर्तमान दौर में हिंदी व्यंग्य-लेखन की परंपरा न केवल सतत सक्रिय है, बल्कि विविध पत्र-पत्रिकाओं के स्तंभों के माध्यम से समसामयिक समाज और राजनीति की गहन पड़ताल भी कर रही है। इस संदर्भ में कुछ सक्रिय व्यंग्यकारों का उल्लेख प्रासंगिक होगा, जिन्होंने स्तंभ-लेखन को न केवल एक विशिष्ट विधा के रूप में प्रतिष्ठित किया, बल्कि उसे नयी दृष्टि और सामाजिक चेतना से भी समृद्ध किया। गोपाल चतुर्वेदी ने दैनिक हिंदुस्तान के लोकप्रिय स्तंभ नश्तर में लंबे समय तक लेखन कर समाज की विडंबनाओं पर व्यंग्यात्मक प्रहार किए। उनकी लेखनी में व्यंग्य के साथ-साथ मानवीय सरोकारों की गूंज भी सुनायी देती है। विख्यात व्यंग्यकार के.पी. सक्सेना ने मायापुरी, हिंदुस्तान और अमर उजाला जैसे लोकप्रिय प्रकाशनों में नियमित रूप से लिखा। उनकी शैली लखनवी तहज़ीब और ठेठ भारतीय व्यंग्य परंपरा का सुंदर मेल थी, जिसने पाठकों के बीच उन्हें अत्यंत लोकप्रिय बना दिया। डॉ. हरि जोशी ने दैनिक भास्कर एवं नई दुनिया में स्तंभ लिखे तथा वर्तमान में दैनिक सामना में प्रति सोमवार स्तंभ लिख रहे हैं। अरविंद तिवारी ने 1990 के दशक में दैनिक नवज्योति से नियमित स्तंभ-लेखन की शुरूआत की। वर्तमान में वे जनसंदेश टाइम्स में विगत आठ वर्षों से प्रत्येक बुधवार को व्यंग्य स्तंभ लिख रहे हैं। उनका लेखन सामाजिक विडंबनाओं, राजनीतिक दोहरेपन तथा आमजन की त्रासदी पर करारा व्यंग्य करता है। सुभाष चंदर ने राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला और समकालीन चौथी दुनिया में प्रकाशित अपने व्यंग्य स्तंभों के माध्यम से सामाजिक विसंगतियों और राजनीतिक चालबाजियों पर करारी टिप्पणी की। उनके स्तंभ समकालीन संदर्भों में व्यंग्य लेखन की गंभीरता और संप्रेषणीयता का उदाहरण हैं।
गिरीश पंकज, जिन्होंने युगधर्म (रायपुर) में ‘देखी-सुनी’, नवभारत में ‘मुखड़ा क्या देखे दर्पण में’, भास्कर में ‘बात करामात’ और राष्ट्रीय हिंदी मेल में ‘आख़िरी कॉलम’ शीर्षक से नियमित स्तंभ लिखे। उनके स्तंभों में व्यंग्य के साथ-साथ जीवन-दृष्टि की झलक भी स्पष्ट दिखाई देती है। ‘मुखड़ा क्या देखे दर्पण में’ शीर्षक स्तंभ में एक समय विनोद शंकर शुक्ल ने भी लेखन किया, जिससे यह स्तंभ बहुपरिचित हुआ। अश्विनी कुमार दुबे ने अमृत संदेश (रायपुर) तथा सुबह सवेरे (भोपाल) जैसे प्रमुख समाचार पत्रों में वर्षों तक नियमित व्यंग्य-स्तंभ लिखे। उनकी भाषा में तीखापन और विषय-वस्तु में सामाजिक यथार्थ की गहराई दिखाई देती है। विनोद साव का व्यंग्य लेखन भी उल्लेखनीय रहा है। उन्होंने दैनिक भास्कर (रायपुर) में ‘मैदान-ए-व्यंग्य’, छत्तीसगढ़ आसपास में ‘कुछ ज़मीन से कुछ हवा से’ तथा ‘कार्टून ऊवाच’ में ‘आख़िरी पन्ना’ जैसे स्तंभों के माध्यम से सामाजिक और राजनीतिक विसंगतियों को व्यंग्यात्मक दृष्टि से प्रस्तुत किया। कैलाश मंडलेकर ने सुबह सवेरे में ‘तिरफेंक’ शीर्षक से लगभग तीन वर्षों तक लगातार व्यंग्य लेखन किया, जिसमें उनकी शैली में कथात्मकता और टिप्पणीकारिता का सशक्त समावेश देखने को मिला। आलोक पुराणिक ने द ट्रिब्यून में तथा सुरेश कांत ने प्रभात खबर में नियमित स्तंभ-लेखन के माध्यम से व्यंग्य को समाचार माध्यमों की मुख्यधारा में बनाये रखा। सुधीर ओखड़े ने भी इस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए नवभारत टाइम्स के “कांटे की बात”, लोकमत समाचार के “राग दरबारी” तथा दैनिक ट्रिब्यून के “गागर में सागर” जैसे स्तंभों के माध्यम से अपनी व्यंग्य दृष्टि को अभिव्यक्त किया।
हिंदी व्यंग्य-लेखन वर्तमान समय में एक जीवंत और सतत प्रवहमान धारा के रूप में साहित्यिक परिदृश्य में सशक्त उपस्थिति दर्ज करा रहा है। आज लगभग सभी प्रमुख समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में व्यंग्य को समर्पित स्तंभ नियमित रूप से प्रकाशित किए जा रहे हैं, जो समकालीन सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विसंगतियों पर तीखी दृष्टि डालते हैं। प्रमुख राष्ट्रीय दैनिकों में प्रकाशित कुछ चर्चित स्तंभों के शीर्षक हैं- तिरछी नजर (द ट्रिब्यून), खरी-खरी (दैनिक जागरण), हास्य रंजनी (अमर उजाला), तीखी नजर (जनवाणी) तथा बैठे ठाले (हिंदी मिलाप)।
इन स्तंभों ने व्यंग्य विधा को न केवल जनसंचार का प्रभावशाली माध्यम बनाया है, बल्कि व्यंग्यकारों को व्यापक पाठक-वर्ग तक पहुँचाने में भी अहम भूमिका निभायी है। इनके अतिरिक्त, जनसंदेश टाइम्स, पूर्वांचल प्रहरी, स्वतंत्र वार्ता, सुबह सवेरे, प्रभात खबर, अमृत संदेश, आर्यावर्त, दैनिक प्रयुक्ति, प्रभासाक्षी, नवोदय टाइम्स, रांची एक्सप्रेस, सच कहूँ, लोक सत्य, पंजाब केसरी, इंदौर समाचार जैसे क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दैनिकों में भी ‘व्यंग्य’ शीर्षक से नियमित स्तंभ, दैनिक या साप्ताहिक रूप से प्रकाशित किए जा रहे हैं। इन स्तंभों में समकालीन व्यंग्यकारों की रचनाएँ निरंतर प्रकाशित होती रहती हैं। इनमें विशेष रूप से उल्लेखनीय है – रमेश सैनी, श्रवण कुमार उर्मलिया, जवाहर चौधरी, यशवंत कोठारी, बुलाकी शर्मा, शांतिलाल जैन, अतुल चतुर्वेदी, राजेंद्र वर्मा, स्नेहलता पाठक, राजेश कुमार, लालित्य ललित, विजी श्रीवास्तव, प्रभाशंकर उपाध्याय, बृजेश कानूनगो, अशोक गौतम, कमलेश पांडे, तीरथ चंद खरबंदा, अनूप शुक्ल, निर्मल गुप्त, मलय जैन, शशिकांत सिंह शशि, मुकेश गर्ग असीमित, पूरन सरमा, सुधीर चौधरी, बीएल आच्छा, आरिफा एविस, आत्माराम भाटी, मुकेश नेमा, निर्मल गुप्त, रामस्वरूप दीक्षित, आभा सिंह, बल्देव त्रिपाठी, दिलीप तेतरबे, अजय अनुरागी, अनीता श्रीवास्तव, विनोद कुमार विक्की, रेखाशाह आरबी, इंद्रजीत कौर, जयजीत अकलेचा, हनुमान मुक्त, धर्मपाल महेंद्र जैन, महेंद्र ठाकुर, साधना बलवटे, नीरज शर्मा, कृष्ण कुमार आशु, पिलकेंद्र अरोडा, मृदुल कश्यप, राकेश सोहम, सौरभ जैन, शशि पांडे, सुनील सक्सेना, प्रमोद तांबट, अनुज खरे, अलंकार रस्तोगी, अलका सिग्तिया, अख्तर अली, अनीता सक्सेना, संतोष त्रिवेदी, सुरजीत सिंह, राजशेखर चौबे, हरीश कुमार सिंह, विवेक रंजन श्रीवास्तव, अनूप मणि त्रिपाठी, अभिजीत दूबे, टीकाराम साहू, वीरेंद्र सरल, वीना सिंह, अर्चना चतुर्वेदी, मीना अरोड़ा, प्रभात गोस्वामी, अजय जोशी, अनीता यादव, शशांक दुबे, आशीष दशोत्तर, सुनील जैन ‘राही’, मुकेश राठौर, रामविलास जांगिड़, प्रदीप उपाध्याय, सुदर्शन सोनी, संतोष उत्सुक आदि। इस क्रम में इस आलेख के लेखक अरुण अर्णव खरे के व्यंग्य भी उपर्युक्त सभी समाचार पत्रों में नियमित रूप से प्रकाशित होते रहते हैं। इन समकालीन व्यंग्यकारों की लेखनी न केवल व्यंग्य की परंपरा को आगे बढ़ा रही है, बल्कि अपने-अपने समय और समाज की गहन समीक्षा करते हुए पाठकों को सोचने के लिए विवश भी करती है। इनका योगदान हिंदी व्यंग्य को जीवंत बनाये रखने में अत्यंत महत्वपूर्ण है।
दैनिक समाचार पत्र ही नहीं, मासिक एवं त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिकाएँ भी व्यंग्य लेखन को पर्याप्त महत्व प्रदान कर रही हैं। इन पत्रिकाओं में व्यंग्य को प्रत्येक अंक में प्रमुखता से स्थान दिया जाता है। इस दिशा में विभोम स्वर, विश्वगाथा, वीणा, साहित्य अमृत, कथादेश, कथाक्रम, कथाबिंब, किस्सा कोताह, ककसाड़, इंडिया टुडे, अहा ज़िंदगी, अक्षरा, नूतन कहानियाँ, रचना उत्सव, सरस्वती सुमन, कथा समवेत, शब्दघोष, समकालीन त्रिवेणी, समकालीन अभिव्यक्ति, इंद्रप्रस्थ भारती, गगनांचल, मधुमती सराहनीय कार्य कर रही हैं। इन पत्रिकाओं ने व्यंग्य को साहित्यिक विमर्श के केंद्र में लाकर इस विधा की प्रतिष्ठा को और अधिक व्यापकता प्रदान की है। विदेशों से प्रकाशित अनेक हिंदी पत्रिकाएँ व्यंग्य विधा को भी पर्याप्त महत्व और स्थान दे रही हैं। इनमें अमेरिका से प्रकाशित विश्वा (न्यू जर्सी), हिंदी जगत (शिकागो) और उद्गार (कैलिफोर्निया), इंग्लैंड से पुरवाई और वातायन (लंदन), कनाडा से हिंदी चेतना तथा साहित्य कुंज (टोरंटो), चीन से इंदु संचेतना (ग्वांगझोउ), ऑस्ट्रेलिया से भारत दर्शन और हिंदी भाषा मंच पत्रिका (मेलबर्न), मॉरीशस से वसंत; फिजी से शांति दूत (सुवा) और फ्रांस से विश्व हिंदी पत्रिका (पेरिस) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। कुछ वर्ष पूर्व इंदु संचेतना ने व्यंग्य पर केंद्रित एक विशेषांक भी प्रकाशित किया था।
आज के डिजिटल युग में अनेक ई-पत्रिकाएँ व्यंग्य विधा को गंभीरता एवं निरंतरता के साथ प्रकाशित कर रही हैं। प्रमुख ई-पत्रिकाओं में आब-ओ-हवा, हिंदी समय, साहित्य कुंज, रचनाकार, अनुभूति, गर्भनाल, सृजनगाथा, हिंदी नेस्ट, संवाद, संवेद एवं जनपथ विशेष उल्लेखनीय हैं। ये पत्रिकाएँ न केवल नवोदित और स्थापित व्यंग्यकारों को नियमित रूप से प्रकाशित करती हैं, बल्कि समकालीन सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर केंद्रित व्यंग्य रचनाओं को भी गंभीरता से स्थान देती हैं। साथ ही, विस्फोट.कॉम, जनज्वार, हस्तक्षेप, पुनर्नवा और तीसरा खंभा जैसे वेब पोर्टल्स भी सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना से युक्त व्यंग्य रचनाओं को विशेष महत्व देते हैं।
ब्लॉग्स और व्हाट्सएप जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर भी व्यंग्य-लेखन को लेकर सतत चर्चा, पाठ एवं विमर्श का वातावरण निर्मित हो रहा है। अनेक व्यंग्यकार ब्लॉग, सोशल मीडिया तथा फ़ेसबुक के माध्यम से अपना व्यंग्य साहित्य नियमित रूप से साझा कर रहे हैं। इसके अलावा विभिन्न व्हाट्सएप समूहों, फ़ेसबुक पेजों और यूट्यूब चैनलों ने व्यंग्य को जनसरोकारों से जोड़ते हुए व्यापक पाठकवर्ग तक उसकी पहुँच को सशक्त बनाया है। यह विस्तार न केवल व्यंग्य की प्रभावशीलता को बढ़ाता है, बल्कि इसे समय के साथ सतत संवादशील भी बनाए रखता है। इन माध्यमों ने व्यंग्य को जनसरोकारों से जोड़ते हुए व्यापक पाठकवर्ग तक उसकी पहुँच को व्यापक बनाया है।

अरुण अर्णव खरे
अभियांत्रिकीय क्षेत्र में वरिष्ठ पद से सेवानिवृत्त। कथा एवं व्यंग्य साहित्य में चर्चित हस्ताक्षर। बीस से अधिक प्रतिष्ठित सम्मान प्राप्त। अपने माता-पिता की स्मृति में 'शांति-गया' साहित्यिक सम्मान समारोह आयोजित करते हैं। दो उपन्यास, पांच कथा संग्रह, चार व्यंग्य संग्रह और दो काव्य संग्रह के साथ ही अनेक समवेत संकलनों में शामिल तथा देश भर में पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन। खेलों से संबंधित लेखन में विशेष रुचि, इसकी भी नौ पुस्तकें आपके नाम। दो विश्व हिंदी सम्मेलनों में शिरकत के साथ ही मॉरिशस में 'हिंदी की सांस्कृतिक विरासत' विषय पर व्याख्यान भी।
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सारगर्भित आलेख। बधाई अरुण जी।