
- November 12, 2025
- आब-ओ-हवा
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9 नवंबर को विश्व उर्दू दिवस मनाया गया। यह लंबा लेख आब-ओ-हवा के पाठकों के लिए ख़ास तौर से। यह चर्चित लेख लेखक ने उपलब्ध करवाया है, जो 2009 में प्रकाशित पुस्तक 'उर्दू शायरी में भारतीयता' में संग्रहीत भी है। लंबाई के कारण इस लेख को दो भागों में प्रकाशित किया जा रहा है...
डॉ. बानो सरताज की कलम से....
उर्दू शायरी में भारतीयता - भाग एक
भारत बहुभाषी देश है। प्रत्येक क्षेत्र की भाषा अलग है। भारतीय संविधान में 18 भाषाओं को मान्यता दी गयी है। बोलियां अलग हैं, फिर भी यह देश एक अखण्ड देश है। क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों के अतिरिक्त यहां राष्ट्रभाषा हिन्दी भी है, जो सभी भारतीयों को आपस में जोड़ने का काम करती है। हिन्दी कई रूपों से गुज़रकर खड़ी बोली के रूप तक पहुंची है और यही खड़ी बोली हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है। भारत में मुसलमान शासकों के साथ अरबी, फारसी, तुर्की भाषाएं भी आयीं… भारत की भाषाओं के साथ उनका मिलन हुआ, उर्दू इसी दौर की भाषा है। उर्दू और हिन्दी का मिला-जुला रूप हिंदुस्तानी भाषा में दिखायी देता है।
भारत की इन सभी भाषाओं की साहित्य-संपदा समृद्ध है। उर्दू भाषा की बात करें तो यह अपनी मिठास तथा माधुर्य के कारण सर्वप्रिय रही है। मुस्लिम शासकों की भाषा होने के कारण देश के कोने-कोने में विविध धर्मानुयायियों ने इसे अपनाया और इसमें साहित्य-सृजन किया। उर्दू साहित्य की विपुल तथा समृद्ध साहित्य-संपदा धर्म, जाति, क्षेत्र के विवादों से परे भारतवासियों की संयुक्त धरोहर है।
उर्दू भाषा अपने जन्म के समय ही ये संयुक्त हिन्द-आर्याई संस्कृति की प्रतिनिधि रही है। उर्दू साहित्य में देशभक्ति, भारतीयता तथा धर्मनिरेपक्षता की जितनी सुगंध समाहित है, वह शायद ही भारत की किसी दूसरी भाषा में हो। डॉ. ज़ोए अंसारी उर्दू के इस विविधांगी चरित्र का स्पष्टीकरण करते हुए लिखते हैं- “उर्दू शायरी ने संत-सूफ़ियों और साधु-स्वभाव वेदान्तियों की गोद में आंख खोली है… और मज़े की बात तो यह है कि शाही दरबार में जब फ़ारसी और संस्कृत को आश्रय दिया जाता था, उर्दू शायरी दक्षिण क्षेत्र में मराठी और तेलुगु की छाया में ‘दकनी’ के नाम से परवान चढ़ी। मेलों-ठेलों में, मठों-ख़ानक़ाहों में, हाट-बाज़ार में रामदास और रामदेव के अनुवादों के श्लोकों और आयतों के देसी रूप में, फ़ारसी के महान सूफ़ी शायरों के विचारों के रूप में उसने दिलों में घर किया। बीजापुर और गोलकुंडा के शहज़ादों ने इसे नोक-पलक से संवारा तो यह बाक़ायदा एक ऐसी ज़बान की शायरी बनकर निखरी, जिसमें व्याकरण उत्तर की खड़ी बोली जैसा था और शब्द थे कुछ देशी, कुछ विदेशी। साथ ही अधिक से अधिक रसीले और समझ में आने वाले, कई तरह और कई ज़मीनों के स्वतंत्र मत भी इसमें आकर मिल गये थे।”
पर विडंबना यह है कि उर्दू शायरी पर हर ज़माने में यह आरोप लगता रहा है कि इसमें भारतीयता की कमी है। उर्दू शायरी उन देशों के पशु-पक्षियों, पहाड़ों-नदियों, फसलों-वृक्षों से ईरान-इराक, मक्के-मदीने आदि के लोगों-वस्तुओं-प्राणियों से अधिक समीप है। उर्दू के प्रसिद्ध शायर फ़िराक गोरखपुरी तक ने कहा- “शायरी हिन्दुस्तान की और इसकी जड़ें और बुनियादें (नींव) मक्के-मदीने और शीराज़ में! यह बात मेरे गले के नीचे नहीं उतरती। भारतीयता की आत्मा यदि उर्दू शायरी में प्रवेश कर सके तो इस शायरी में एक भोलापन, विश्व और जीवन का तादात्म्य, एक पवित्रता, एक आध्यात्मिक रूप तथा विवेक आ जाएगा जिससे ऐसे संचार-संगीत फूट निकलेंगे जो स्वर्ग-संगीत को भी मात कर देंगे।”

उर्दू में शायरी मुसलमानों ने की है, हिन्दुओं ने भी की है और दूसरे धर्मों के शायरों ने भी की है। हिन्दू भारत में बड़ी संख्या में हैं जबकि मुसलमान पूरे विश्व में फैले हुए हैं। विश्व के लोगों से, मतों-विचारों से, शहरों से वे जुड़े हुए हैं, इस कारण यदि भारत के अतिरिक्त दूसरे देशों के पवित्र प्रार्थना-स्थल, संस्कृति, रहन-सहन, पहाड़, नदियां, फल-फूल, पशु-पक्षी आदि की झलक इनकी शायरी में आ जाती है, तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि उर्दू के (मुस्लिम) शायरों ने भारतीयता की आत्मा अपनी शायरी में आने नहीं दी।
डॉ. बृज प्रेमी उर्दू शायरी में राष्ट्रीय एकता और भारतीयता की वकालत करते हुए कहते हैं- “आदिल शाह अपनी नज़्मों में हिन्दू-दर्शन और देवी देवताओं का श्रद्धापूर्वक उल्लेख करता है। कुली कुतुब शाह सच्चे अर्थों में सूफ़ी भारत का ‘अकबर’ कहलाता है तथा बिना किसी स्वार्थ के हृदय की भावनाओं के अधीन होकर भारतीयता के नग़मे अलापता है। उसके यहां भारत की रीति-परंपरा, फल-फूल, मौसम, वेश-भूषा, मेले-ठेले, राखी, होली, दीवाली सब कुछ सिमट आया है। इसी प्रकार ‘मुल्ला वजही’ हिन्दू विषयों-प्रसंगों का भरपूर उल्लेख करता है। जाफ़र जटली, ‘फ़ाईज’, ‘हातिम’, ‘आब्रू’ भारतीयता के रस से सरशार नज़र आते हैं। ‘अफ़ज़ल’ झंझानवी का ‘बारह-मासा’ एक उज्ज्वल उदाहरण है जिसमें कुली कुत्ब शाह ही की भांति भारतीय मौसम, फल-फूल, पशु-पक्षी, त्योहार, रीति-रिवाज और भारतीय समाज के चित्र यहां-वहां नज़र आते हैं… यहां तक कि जो रूपक-उपमाएं उपयोग में लायी गयी हैं उनमें पूरी भारतीय फ़िज़ा बसी हुई मिलती है। ‘मीर’, ‘दर्द’, ‘सोज़’, ‘कायम’, ‘यक़ीन’ अपने पूर्व के शायरों के समान हिन्द-आर्याई परंपराओं और विचार-सरणी का आदर करते हुए नज़र आते हैं। नज़ीर अकबराबादी ने हिन्दू अवतारों, मेलों-त्योहारों, होली, दिवाली, राखी, बांसुरी, बरसात का ऐसा क्रम पेश किया है, जिसमें सिर्फ़ और सिर्फ़ हिंदुस्तान की मिट्टी की गंध बसी हुई है।”
उर्दू शायरी पर लगे इस आरोप का खण्डन बहुत से साहित्यकारों ने अपने निबंधों, आलेखों में किया है। देखा जाये तो भारत की शायरी भारतीयता की आत्मा के बिना जनसाधारण, मध्यम, उच्चवर्गीय तथा साहित्य प्रेमियों के हृदय को छू ही नहीं सकती थी। साहित्यकारों ने भारतीयता के लोप का मुद्दा जब-जब उठाया, उसके समाधान का प्रयत्न तब-तब हुआ। प्रो. मुज़फ्फ़र हनफ़ी ने अपने लेख- ‘उर्दू शायरी और हिन्दुस्तानियत’ में इस संबंध में कहा- “मीर की मसनवियां हों या शिकार-नामे, हर जगह स्थानीय रंग और हिन्दुस्तानी फ़िज़ा नज़र आती है…. यहां तक कि ‘सौदा’ के क़सीदों के आरंभ के शेरों में भी यही रंग झलकता है। विशेषतः ‘सौदा’ का वह क़सीदा, जो आसिफ़ुद्दौला की प्रशंसा में है, उस काल के युद्ध के तरीक़े का मुंह-बोलता चित्र है। यही हाल हज्विया क़सीदों (निंदा-पुराण) तथा शहरे-आशूब का भी है। ‘इंशा’ के क़सीदों में भी अवधी छटा नज़र आती है। भारतीय संस्कृति, रीति-रिवाज, मेले त्योहार, खेल-तमाशे, मौसम, प्राकृतिक दृश्य, देवी-देवता, कोई भी पहलू नज़ीर अकबराबादी की पहुंच से बच नहीं सका है। भले ही अनीस-दबीर के मर्सिये कर्बला की घटनाओं पर आधारित हैं और उनके पात्र अरबी हैं पर उनकी आत्मा भारतीय है। उनका उठना-बैठना, संभाषण, रीति-रिवाज यहां तक कि स्वभाव भी भारतीय रंग में रंगे हुए हैं। इनके मर्सियों के कई प्रसंग ऐसे हैं, जहां अनायास श्रवण कुमार की मृत देह पर उसके नेत्रहीन माता-पिता का विलाप याद आ जाता है। मसनवियां (दीर्घ कविताएं) भी इन तत्वों से रिक्त नहीं हैं। ‘सहरुल-बयान’, ‘गुलज़ार-ए-नसीम’, ‘ज़हर-ए-इश्क़’ में भारतीयता की झलक पग-पग पर मिलती है। वाजिद अली शाह के ‘रहस’, अमानत की ‘इंद्रसभा’ और वासोख़्त (प्रेमिका का रूठना, मनाना, उसके त्याग संबंधी काव्य), रंगीन और जॉन साहब की रेख़्ती (स्त्रैण-कविता) अर्थात् कोई विधा ऐसी नहीं जो भारतीयता के रंग में रंगी हुई न हो। मोहम्मद हुसैन ‘आज़ाद’ की नेचुरल शायरी और ‘हाली’ की मुसद्दस अपने समाज का दर्पण है। ‘अकबर’, ‘चकबस्त’, ‘इक़बाल’, ‘अख़्तर शीरानी’, ‘जोश’, ‘एहसान दानिश’, ‘मीराजी’, ‘शाद आरिफ़ी’ आदि के क़लाम में उनके समय का भारतीय जीवन अलग-अलग अन्दाज़ में प्रकट हुआ है।”
अरबी, ईरानी, तुर्की भाषाएं जब भारत में आयीं तो प्रकट है इन भाषाओं की संस्कृतियां भी साथ आयी होंगी। भारतीय भाषाओं और भारतीय संस्कृति के साथ उनका मिलन हुआ तथा उनका प्रभाव पड़ा इसलिए नयी-नयी अस्तित्व में आयी उर्दू भाषा की शायरी में उनका उल्लेख मिलता है। प्रभाव की बात अपनी जगह, पर यह भी सत्य है कि जिस देश के वे शायर हैं, उस देश की हर चीज़ को वे प्यार करते हैं। देश का रंग उनकी शायरी में झलकता है। रफ़ीआ शबनम उर्दू शायरी में भारतीयता के इंद्रधनुषी रंगों के संबंध में कहती हैं- “वसंत, ईरान का मौसम नहीं परंतु कुत्ब शाह के यहां मौजूद है। होली-दीवाली, अरबों के त्योहार नहीं पर ‘नज़ीर’ के यहां इनकी बहारें देख लीजिए। हिमालय, अरब-ओ-ईरान का पहाड़ नहीं परंतु ‘इक़बाल’ की नज़्म में उसकी बुलंदी का बयान है। गोपियों के साथ रास रचाने की परंपरा अरब-ओ-ईरान की नहीं लेकिन वाजिद अली शाह के साथ मनाकर देखिए। ‘इंद्रसभा’ अरब और ईरान में कहां? हां ‘अमानत’ के साथ उर्दू में इसे सजा देखा जा सकता है। यदि उर्दू शायरी मात्र फारसी की नक़ल होती तो ‘चकबस्त’ ‘रामायण’ के स्थान पर शीरीं-फ़रहाद का क़िस्सा लेखनीबद्ध करते, और यदि मात्र अरबी की उछवृत्ति होती तो ‘मीर-अनीस’ कर्बला की नारियों के चरित्र-चित्रण में भारतीयता के रंग न भरते।”
अन्य भाषाओं के साहित्यकारों, कवियों की भांति ही उर्दू शायरों का उद्देश्य भी भारतीयों को सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर समीप लाना रहा है। इसी कारण अनायास भी भारतीयता उर्दू शायरी का अंग है और सप्रयास भी भारतीयता के रंगों से इसे रंगीन बनाया गया है। डॉ. अब्दुस्सत्तार दलवी ने इस मुद्दे को अधिक स्पष्ट किया है। वह कहते हैं- “उर्दू शेर-ओ-अदब में जहां प्रत्येक विषय पर रंगारंग रचनाएं प्राप्त होती हैं, वहीं अपने देश की प्रत्येक वस्तु से प्रेम और अपनापन उसकी विशेषता है। भारत की मिट्टी की सोंधी ख़ुशबू उसमें निहित है। कोयल की कूक और पपीहे की पीहू से यह भरा हुआ है। यहां के प्राकृतिक दृश्य और आबशारों का आकर्षण इसका मुख-चूर्ण है। इसके ऋषि-मुनि, वीर सैनिक, पैग़ंबर, अवतार और आध्यात्मिकता से परिपूर्ण वातावरण में इसका धर्म-निरपेक्ष चरित्र उभरकर सामने आता है। उर्दू शायर की देशभक्ति, भारतीय मिज़ाज, गणतंत्र-प्रणाली और शांति-संदेश इस देश की अन्य भाषाओं के लिए अनुकरणीय है।”
उपरोक्त चर्चा के पश्चात् उर्दू शायरी में भारतीयता के कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं-
भारत : विभिन्न धर्मों की संगम-स्थली
भारत बहु-धर्मीय देश है, एक संगम-स्थली है, जहां कई धर्मों की अच्छाइयों ने उसे पवित्र बना दिया है… भारतीयों को संपन्न कर दिया है। शायर, जन्नत की नदी क़ौसर तथा भारत की पवित्र नदी गंगा का संगम भारत में बनाना चाहता है, एक नये धर्म की शिक्षा देने वाली पुस्तक लिखना चाहता है तथा इस सुनहरी जिल्द की पुस्तक का नाम रखना चाहता है ‘हिंदोस्तां’!
कौसर-ओ-गंगा को इक मर्कज़ पे लाने के लिए
इक नया संगम बना दूंगा ज़माने के लिए
एक दीन-अे-नव की लिखूंगा किताब ज़र-निगार
सब्त होगा जिसकी ज़र्री जिल्द पर ‘हिंदोस्तां’!
उर्दू के शायरों ने क़ुरआन और गीता दोनों को महत्व दिया है क्योंकि दोनों धार्मिक और पवित्र ग्रंथ हैं-
अपने हाथों को पढ़ा करता हूं
कभी कुरआन, कभी गीताओं की तरह।
(कैफ़ी आज़मी)
गणतंत्र देश की यह विशेषता है कि यहां प्रत्येक व्यक्ति अपने धर्म का पालन करने के लिए स्वतंत्र होता है-
जहां कुरआन व गीता का बराबर एहतराम
है मयस्सर जिस वतन को आज जम्हूरी निज़ाम
(आसिम बरेलवी)
हाथों में तस्बीह (माला) लिये शेख़ अल्लाह को याद करता है। शेख़ की पहचान तस्बीह से तो ब्राह्मण की पहचान जुन्नार (जनेऊ) से होती है। पर सच्ची बात तो यह है कि तस्बीह और जुन्नार से नहीं, आदमी अपने कर्म से पहचाना जाता है-
क्या शेख़ क्या ब्रह्मण, जब आशिक़ी में आए
तस्बीह करे फ़रामुश, जुन्नार के फंदे
(वली दकनी)
बला-ए-जां यह तस्बीह और जुन्नार भूल जाए
दिल-ए-हक़-बीं को हम इस क़ैद से आज़ाद करते हैं
(चकबस्त)
जप-माला और जनेऊ भले ही विभिन्न धर्मों के प्रतीक हों, भारतीयों के दिलों में दरार नहीं डालते। प्रस्तुत हैं कुछ शेर जहां काबा-काशी, मस्जिद-मन्दिर और नाकूस (शंख)-अज़ां कोई मतभेद उत्पन्न नहीं करते-
अज़ां देते हैं बुत-ख़ाने में जाकर शान-ए-मोमिन से
हरम में नारा-ए-नाकूस हम ईजाद करते हैं
(चकबस्त)
जिस जगह नाकूस बजते हैं तो होती है अज़ां भी
वह मेरा हिन्दोस्तां है, वह मेरा हिन्दोस्तां
(आसिम बरेलवी)
दिल ही मन्दिर दिल ही मस्जिद, दिल ही का’बा काशी है
हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई शब्दों की अय्याशी है
(ज़फ़र सिरौंजी)
हमारे मन्दिर व मस्जिद, अजंता-ओ-ताजमहल
हमारे काबा व काशी, ट्रामवे नंगल
(कृष्ण बिहारी ‘नूर’)
हम न जानें कैसी मस्जिद, कैसा ठाकुर-द्वार
हम तो उसी को सीस नवाएं जित्थे अपना प्यार
(बहादुर शाह ज़फ़र)
हम मूजिद हैं हमारा केश है तर्क-ए-रुसूम
मिल्लतें जब मिट गईं अज्ज़ा-ए-ईमां हो गईं
उर्दू के शायर जब का’बे की बात करते हैं तो सोमनाथ को भी याद करते हैं क्योंकि दोनों ही श्रद्धा-स्थल हैं-
घास पर खेलता है इक बच्चा
पास बैठी मां मुस्कुराती है
मुझको हैरत है जाने क्यों दुनिया
का’बा ओ सोमनाथ जाती है
(निदा फ़ाज़ली)
हिन्दू शायर जब उर्दू में शायरी करते हैं तो हज़रत मूसा, कोहे-तूर, नक़्शे-सुलेमानी आदि का उसी प्रकार उल्लेख करते हैं जैसे राम-कृष्ण का करते हैं, गोवर्धन पर्वत आदि का करते हैं। पेश हैं चकबस्त के कुछ शेर-
तपिश-ए-शौक़ को मूसा की नज़र है दरकार
वरना दुनिया में तजल्ली नहीं या तूर नहीं
दार सूनी है फ़क़त नाराज़नी बाक़ी है
मस्त व मजज़ूब हैं लाखों, कोई मंसूर नहीं
दिल किए तस्ख़ीर, बख़्शा फैज़-ए-रूहानी मुझे
हुब्ब-ए-क़ौमी हो गया, नक्श-ए-सुलेमानी मुझे
श्रद्धेय व्यक्तियों का भारत
भारत श्रद्धेय व्यक्तियों की भूमि है। पूजनीय व्यक्तियों की भूमि है। अनुकरणीय व्यक्तियों की भूमि है। भारत में अनगिनत ऐसे व्यक्ति हुए हैं जिन्होंने अपने चरित्र, व्यवहार तथा अपने कर्मों से जनसाधारण का मार्गदर्शन किया है, उन्हें जीने का सलीक़ा सिखाया है-
ख़ाक से जिसकी उट्ठे, कितने ही उलमा-ए-कराम
है जो अवतारों का मसकन, और मुनियों का मक़ाम
(आसिम बेरलवी)
ये साधुओं की बस्ती, ये सूफ़ियों की बस्ती
किरदार है तक़द्दुस, ‘नातिक़’ यहां हमारा
(नातिक़ गुलावठवी)
उर्दू शायरी में भगवान शंकर के विषपान का वर्णन है तो गौतम बुद्ध के निर्वाण, उनके संदेश का भी वर्णन है। श्री राम और श्री कृष्ण का गुण-गान है, तो बुख़ारी और चिश्ती को भी सलाम किया गया है। यही नहीं सूफ़ी, संत, शांति के पक्षधर राजपुरुषों तथा राजनीतिक क्षेत्र के महारथियों को भी स्थान दिया गया है। कुछ मिसालें देखिए-
आ के हंसते हुए बंज़ारों की सूरत हम भी
अपने घर छोड़ के बे-घर हो जायें
आने वाली नस्लों की मुहब्बत के लिए
तोड़ दें अपनी हदें ममलिकत-ए-दिल की तरह
और बैराग का विष पीकर अमृत हो जाएं
(प्रेम वारबर्टनी)
ये शंकर की, राम और कन्हैया की धरती
ये गौतम की, नानक की, ख़्वाजा की नगरी
(‘नूर’ इन्दौरी)
हमारे धरम के पैगंबरों की सफ़ है बड़ी
अशोक, अकबर व गौतम, बुख़ारी व चिश्ती।
रहीम-ओ-जौहर-ओ-इकबाल, नेहरू और गांधी
कबीर, खुसरो, चैतन्य, नानक और तुलसी।
(कृष्ण बिहारी ‘नूर’)
इनकी फ़ज़ाओं में गूंजी थी तोतली बोली
कबीरदास, तुकाराम, सूर व मीरा की।
इसी हिंडोले में विद्यापति का कण्ठ खुला
इसी ज़मीं के थे लाल मीर व ग़ालिब भी।
यहीं से उठे थे तहज़ीब-ए-हिन्द के मेअमार
इसी ज़मीन ने देखा था बालपन उनका।
(फ़िराक गोरखपुरी)
लो फिर दिल ने करवट बदली, बुद्ध को फिर निर्वाण हुआ
बाहर की आवाज़ें उलझीं फिर अन्दर के शोरों से।
(प्रेम वारबर्टनी)
ये गौतम ये गांधी की प्यारी ज़मीं
हमेशा जवाहर उगलती रहे।
(सुलेमान ख़तीब)
‘चकबस्त’ अपने देश के गीत गाते हैं तो देश के वीरों को भी सलाम करते हैं तथा भारतीयों पर पड़ने वाले उनके प्रभाव का वर्णन करते हैं-
‘गौतम’ ने आबरू दी इस मअबद-ए-कुहन को
‘सरमद’ ने इस ज़मीं पर सदक़े किया वतन को।
‘अकबर’ ने जाम-ए-उल्फ़त बख़्शा इस चमन को
सींचा लहू से अपने राणा ने इस चमन को।
सब शूरवीर अपने इस ख़ाक में निहां हैं
टूटे हुए खण्डर हैं या उनकी हड्डयां हैं।
‘नाज़िश’ प्रतापगढ़ी भारत के अतीत का बखान करते हुए कहते हैं कि भारतीय संस्कृति के ख़ज़ाने में आज भी वो सब है, जिससे हम बहुत कुछ सीख सकते हैं-
मिलेगा ‘बुद्ध’ के पयामे-हक़ में सुकून-ए-हयात अब भी
‘गया’ के ज़र्रें दिखा रहे हैं जहां को राह-ए-नजात अब भी।
अयोध्या की फ़जाओं में है वफ़ा-ए-सीता की बात अब भी
मुसीबतों के घनेरे जंगलों में राम-लछमन हैं साथ अब भी।
कुरेदो माज़ी की राख, इसमें शअूर का जाम-ए-ज़म मिलेगा
इन्हीं रिवायतों के ख़ज़ाने से तुमको ज़ोर-ए-क़लम मिलेगा।
‘नाज़िश’ जी भारतीय इतिहास से हिन्दू पुराण-कथा उदाहरणों को प्रस्तुत कर देश के प्रति अपने प्रेम का परिचय देते हैं। गुरु-शिष्य संबंध, भ्राता-भ्राता में प्रेम और संबंधों की मिठास का वर्णन कर उसका अनुकरण करने, उससे प्रेरणा लेने की बात करते हैं। उर्दू के ये शेर भारतीयता के अनुपम उदाहरण हैं-
मान इस दर्जा किया अपने गुरू का हमने
दे दिया काट के खुद अपना अंगूठा हमने।
छोटे भाई के लिए राज को छोड़ा हमने
बड़े भाई के जूते को भी पूजा हमने।
माज़ी-ए-हिन्द की तारीख़ पे डालें जो नज़र
अपने कुर्बान हों इस देश के सौतेलों पर।
रानी कर्मावती ने बादशाह हुमायूं को राखी भेजकर सहायता की याचना की थी और इतिहास साक्षी है कि मुग़ल बादशाह राखी का मान रखकर बहन की सहायता को दौड़ा चला गया था। दूसरी ओर बादशाह जहांगीर ने मलिका नूरजहां को मृत्यु-दण्ड देकर भारतीय न्याय का मान रखा। उर्दू शायरी में इनका उल्लेख बड़े गर्व से किया गया है। श्रीकृष्ण द्वारा द्रौपदी की लाज की रक्षा करने तथा श्रवण कुमार का वृद्ध तथा अशक्त माता-पिता को कंधों पर बिठाकर तीर्थ कराने की हृदय-स्पर्शी घटनाओं को भी उर्दू में काव्य-बद्ध किया गया है-
यहां भारत की सईद फ़ितरत ने इक खड़ाऊं से लौ लगाई
यहां जहांगीर की अदालत में शमा-अे-इंसाफ जगमगाई।
ये है ज़मीन बुलन्द व बरतर, यहां हुए राखी-बन्द भाई
यहां कृष्ण आ गए मदद को, जब द्रौपदी पर आंच आई।
लुटे हुए गुलिस्तां के गोशों में, अब भी कुछ बर्ग-ओ-बार होंगे
दयार-ए-हिन्दोस्तां में ढूंढ़ो तो लाखों श्रवण कुमार होंगे।
‘नाज़िश प्रतापगढ़ी’ आदर्श भाई, पति, पत्नी, सेवक का उदाहरण देना चाहते हैं तो संदर्भ भारतीय चरित्रों ही के देते हैं-
हममें भाई है भरत तो कोई लछमन
कोई बेटा जो है राम तो कोई श्रवण।
बीवी के रूप में सीता की वफ़ाओं का चलन
प्यार की आख़िरी हद है दिल-अे-राधा की लगन।
इश्क-ए-सादिक़ का हम इस तरह पता देते हैं
चीर कर सीना हनुमान दिखा देते हैं।
भक्त प्रह्लाद का अत्याचार के विरुद्ध आवाज़ उठाना, धोके और अन्याय को ख़त्म करने के लिए भीम और अर्जुन का सामने आना, कृष्ण का सारथी बनकर जीवन-दर्शन और अध्यात्म का स्पष्टीकरण करना- ये सब भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग हैं और उर्दू शायरी की भी दैदीप्यमान धरोहर-
अरसा-ए-हिन्द का हर ज़र्रा सदा देता है
यहां रथबान आईन-ए-बक़ा देता है।
आन पर आदमी यां जान लड़ा देता है
महाभारत का फ़साना यह पता देता है।
ज़ीस्त को फ़र्ज का एहसास दिया करते हैं
बाप के हुक्म पे बनबास लिया करते हैं।
सच को हर दौर में हम ज़िंदा किया करते हैं
प्रह्लाद आग में जल-जल कर जिया करते हैं।
फ़रेब ने जब भी सिर उठाया तो भीम व अर्जुन चले हैं तनकर
जो जुल्म की आग भड़की तो लोग उठे प्रह्लाद बनकर।
हज़रत मुहम्मद आख़िरी नबी हैं। वे संपूर्ण विश्व के मुसलमानों के नबी हैं। वे मानवता के दूत हैं। भारत के उर्दू शायरों ने इन्हें श्रद्धा-सुमन अर्पित किये हैं। ये शायर धर्म से भले ही मुसलमान, हिन्दू, सिख या ईसाई हों… शायरी तो वे उर्दू में करते हैं। हरीचन्द ‘अख़्तर’, महाराजा बिशन प्रसाद ‘शाद’, चंद्रप्रकाश ‘जौहर’ बिजनौरी, कुंअर महेन्द्र सिंह बेदी ‘सहर’, रघुपति सहाय ‘फ़िराक़’ गोरखपुरी, कालीदास गुप्ता ‘रज़ा’, शौक़ जालंधरी, दत्तूराम ‘कौसरी’, त्रिलोक चन्द ‘महरूम’, सतीशचन्द सक्सेना ‘तालिब’, गुरसरन लाल ‘अदीब’, सालिक राम ‘सालिक’, कृष्ण मोहन, रवींद्र जैन, कृष्ण बिहारी ‘नूर’, बशेशर प्रसाद ‘मुनव्वर’, लखनवी आदि ने ना’त, मनकबत तथा हम्द (ईश वन्दना) को काव्य में स्थान दिया, जैसे-
तकमील-ए-मारिफ़त है मुहब्बत रसूल की
है बंदगी ख़ुदा की, इताअत रसूल की।
इतनी-सी आरजू है ऐ! रब्ब-ए-दो जहां
दिल में रहे ‘सहर’ के मुहब्बत रसूल की।
(कुंअर महेन्द्र सिंह बेदी ‘सहर’)
किसने क़तरों को मिलाया और दरिया कर दिया?
किसने ज़र्रों को उठाया और सहरा कर दिया?
आदमीय्यत का गरज़ सामा मुहय्या कर दिया
इक अरब ने आदमी का बोल-बाला कर दिया
कह दिया ‘ला-तुक़नितु’ ‘अख़्तर’ किसी ने कान में
और दिल को सर-ब-सर महवे-तमाशा कर दिया।
(पं. हरिचन्द अख़्तर)
श्रीराम आदर्श पुरुष हैं, मर्यादा पुरुषोत्तम राम के व्यक्तित्व और कृतित्व पर उर्दू में मुकुंदलाल ‘खुशदिल’, बाबू गुरु नारायण, दत्तात्रय मोहन ‘कैफ़ी’, मेलाराम ‘वफ़ा, जगन्नाथ ‘खुशतर’, शबाब ललित, बृजमोहन ‘चकबस्त’ आदि सैकड़ों हिन्दू शोअरा ही ने नहीं लिखा, इक़बाल, ज़फ़र अली खां, शाद आरिफ़ी, सागर निज़ामी, सलाम मछली शहरी, जान निसार अख़्तर, रिफ़अत सरोश, मुजफ्फर हनफ़ी आदि अनेक मुस्लिम शायरों ने भी श्रद्धा-सुमन अर्पित किये हैं। कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं-
है राम के वजूद में हिन्दोस्तां को नाज़
अहल-ए-नज़र समझते हैं उनको इमाम-ए-हिन्द
(डॉ. इक़बाल)
हिंदियों के दिलों में बाक़ी है मुहब्बत राम की
मिट नहीं सकती क़यामत तक हुकूमत राम की।
ज़िंदगी की रूह था, रूहानियत की शान था
वह मुजस्सिम रूप में इंसान का इरफ़ान था।
(सागर निज़ामी)
श्रीकृष्ण पर उर्दू के शायरों ने बहुत लिखा है, ‘नज़ीर’ अकबराबादी ने नौ, त्रिलोक चन्द ‘महरूम’ ने आठ, ‘रौनक’ देहलवी ने सात, ‘कैफ़ी’ देहलवी ने पांच, ‘असर’ लखनवी, ‘बहज़ाद’ लखनवी और ‘मुनव्वर’ लखनवी ने तीन-तीन नज़्में लिखीं। ‘सीमाब’ अकबराबादी ने ‘कृष्ण गीता’ शीर्षक से कृष्ण संबंधी नज्मों का संग्रह छपवाया। इनके अलावा जफ़र अली खां, ‘बासित’ बिसवानी, ‘शादां’ ग्वालियारी, हसरत मोहानी, ‘जोश’ मलीहाबादी, ‘हफ़ीज़’ जालंधरी, ‘एहसान’ दानिश आदि ने कई नज़्में लिखीं और श्रीकृष्ण के प्रति श्रद्धा प्रकट की। देखिए चंद शेर-
कुछ हम को भी अता हो के ए हज़रत-ए-कृष्ण
अक़्लीम-ओ-इश्क़ आपके ज़ेर-ए-क़दम है ख़ास।
‘हसरत’ की कुबूल हो मथुरा में हाज़िरी
सुनते हैं आशिकों पे तुम्हारा करम है ख़ास
(हसरत)
खूब सुनते हैं सर-ए-गोकुल व मथुरा बादल
रंग में आज कन्हैया के है डूबा बादल।
देखिए होगा श्रीकृष्ण का क्योंकर दर्शन
सीना-ए-तंग में दिल गोपियों का है बेकल।
(मोहसिन काकोरवी)
भारत में सिख धर्म के अनुयायी भी हैं। इक़बाल, ‘मेहदी’ नज़्मी, ‘अदील’ मुस्तहसिन, ख़्वाजा दिल मुहम्मद, विद्यासागर ‘आनंद’, नज़ीर अकबराबादी ने अपनी शायरी में गुरु नानक जी को श्रद्धा-सुमन अर्पित किये हैं-
फिर उठी आख़िर सदा तौहीद की पंजाब से
हिन्द को इक मर्द-ए-कामिल ने जगाया ख़्वाब से
(डॉ. इक़बाल)
हैं कहते नानक शाह जिन्हें, वह पूरे हैं आगाह गुरु
वह कामिल-ए-रहबर हैं जग में, यों रौशन जैसे माह गुरु।
मक़सूद-ओ-मुराद सभी, बर लाते हैं दिल-ख़्वाह गुरु
नित लुत्फ़-व-करम से करते हैं हम लोगों का निर्वाह गुरु।
इस बख़्शिश के, इस अज़मत के हैं बाबा नानक शाह गुरु।
सब सीस नवा अरदास करो और हरदम बोलो वाह गुरु।
(‘नज़ीर’ अकबराबादी)
रामायण और महाभारत भारतीय साहित्य की वे महान कृतियां हैं जिनका उदाहरण मिलना मुश्किल है। बौद्ध और जैन धर्म के प्रसिद्ध पात्र, रामायण और महाभारत के चरित्र तथा इन ग्रंथों के उपमा-रूपक प्रतीक उर्दू शायरी में यत्र-तत्र नज़र आते हैं। प्रस्तुत हैं कुछ शेर-
चंद रेखाओं में सीमाओं की तरह
ज़िंदगी क़ैद है सीताओं की तरह
राम कब लौटेंगे, मालूम नहीं
काश रावण ही कोई आ जाता।
(कैफ़ी आज़मी)
राम सीता तो बन में घूमे थे
हम तो भटकते हैं दर-ब-दर बाबा।
(प्रेम वारबर्टनी)
अपनी क़िस्मत में चौदह बरस का बनबास नहीं
मुस्तकिल जिंदगी भर का बनबास है।
(मुज़फ़्फ़र हनफ़ी)
इस द्रौपदी का चीर-हरण कौन कर सका
ख़ुद को हज़ार परदों में ढकती रही है रूह।
(डॉ. शबाब ललित)
देखो तो मेरे दिल को ज़रा दाम-ए-बला में
अटका हुआ इक चांद है शंकर की जटा में।
(अख़्तर बस्तवी)
हमारी सादा-लौही की निगाहों में जो कल भीष्म थे।
लम्पट दुःशासन बन गए क्यों कर घड़ी भर में।
(डॉ. शबाब ललित)
1960 के बाद की उर्दू शायरी में आधुनिकता के नाम पर हिन्दू देवमालाई अलामतों के प्रचुर प्रयोग ने हिन्दी शब्दों की भरमार कर दी। उर्दू की ग़ज़लों नज़्मों के संग्रहों के शीर्षक हिन्दी में रखे जाने लगे। यह भी भारतीयता का ही उदाहरण है। कुछ ऐसे शीर्षक शायरों के नामों सहित पेश हैं-
काव्यम् (काविश बदरी), अमराई (बदीउज़मां ख़ावर), विलास-यात्रा (कुमार पाशी), नीलकंठ तथा रूह फिर बोली (असलम आज़ाद), गौतम (राज नारायण राज़), चिता और कागा (मुहम्मद अलवी), पत्थरों की आत्मा और मत्स्य-गंधा (अमीक़ हनफ़ी), मैं गौतम नहीं हूं (ख़लीलुर रहमान आज़मी), निर्वाण और यात्रा मिलन (वज़ीर आगा), तांत्रिक (कृष्ण मोहन) राख और सिंदूर तथा जमुना बहे न रात (रऊफ़ ख़ैर), लछमन रेखा, नाच रे नर्तकी और रूप-रहस (अर्श सहबाई), बुद्ध-शरण-गच्छामि (आशुफ्ता चंगेज़ी), यात्री, प्रेतात्मा, पिशाच नगरी, और दो प्रार्थनाएं (कुमार पाशी), इंद्रधनुष, उपदेशक, मुरली मनोहर, आवागौन और आयोद पूजा (फ़रहत कैफ़ी) संजोग और मुक्ति (काज़ी सलीम), सरस्वती और कंगाल आदर्श (मज़हर इमाम), अमावस का जादू (हुर्मतुल इकराम), शगुन (मख़्मूर सईदी), दशहरा, होली, दीवाली, गंगा-अश्नान (शाद आरिफ़ी) आदि ऐसे अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं।
क्रमश:
भाग-दो के लिए क्लिक करें
उर्दू शायरी में भारतीयता – भाग दो

डॉ. बानो सरताज
17 जुलाई 1945 को जन्मीं डॉ. बानो सरताज महत्वपूर्ण लेखक हैं। राष्ट्रपति अवार्ड सहित साहित्य अकादमियों से पुरस्कृत हो चुकी हैं और सामाजिक संस्थाओं से भी। साहित्य की तमाम विधाओं में क़रीब ढाई दर्जन किताबें प्रकाशित हैं। तीन विषयों में एम.ए. के बाद एम.एड., पीएच.डी. सहित अनेक कोर्स भी आपने किये और लंबा जीवन अध्यापन में व्यतीत किया। साहित्य, सामाजिक सरोकार और शिक्षा से लगातार संबद्ध रहने वाली डॉ. बानो इन दिनों भी सक्रिय हैं और अपने जीवन भर के लेखन को प्रकाशन के लिए संजो रही हैं।
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