
इंद्रधनुष-2 : विजय तिवारी ‘विजय’
(उर्दू शायरी की दुनिया में विजय तिवारी का नाम परिचय का मोहताज नहीं। किताब तो उनकी भले ही एकाध ही आयी है लेकिन मुशायरों की कामयाबी की सनद जो नाम हैं, उनमें विजय तिवारी शामिल रहे हैं। सिर्फ़ हिंदोस्तान ही नहीं बल्कि दुनिया के कई शहरों के मंचों पर विजय तिवारी ने अपने कलाम से झंडे गाड़े हैं। उनकी शायरी के साहित्यिक मूल्यांकन में अभी देर ज़रूर है लेकिन उनके कलाम के मेआर को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। वह मंच से हल्की शायरी के पैरोकार क़तई नहीं रहे। विजय तिवारी उर्दू, मंच, ग़ज़ल में एक ताज़गी और एक उम्मीद का नाम है। इंद्रधनुष आब-ओ-हवा काव्य खंड की एक सीरीज़ है, जिसमें हम एक शायर की सात रचनाओं को यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। इस कड़ी में विजय तिवारी की ग़ज़लें आपकी नज़्र… प्रस्तुति – भवेश दिलशाद)
विजय तिवारी की सात ग़ज़लें
धूप सबका हक़ है सबके घर में आना चाहिए
और न आये तो नया सूरज उगाना चाहिए
आप ग़ुस्सा हैं तो चेहरा तमतमाना चाहिए
जिस्म का सारा लहू आँखों में आना चाहिए
ज़ुल्म सहने से बढ़ेगा ज़ालिमों का हौसला
अपने घर की आग उनके घर भी जाना चाहिए
आपकी सरकार में वो भूक से कैसे मरा
आप पर तो क़त्ल का इल्ज़ाम आना चाहिए
ज़िंदगी तुझको मनाने में बुढ़ापा आ गया
सोचता हूँ अब मुझे भी रूठ जाना चाहिए
यार मैंने तो बहुत चाहा तुझे दिल में रखूँ
पर तुझे तो आस्तीं में ही ठिकाना चाहिए
कौन से मज़हब का शायर है ‘विजय’ मत देखिए
शेर अच्छा है तो बेशक दाद आना चाहिए
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ज़ख़्म खा-खा के बुत हुआ हूँ मैं
आप कहते हैं देवता हूँ मैं
हरेक शख़्स को मालूम है भला हूँ मैं!
मैं जानता हूँ इसी बात का बुरा हूँ मैं
आज भी हक़ पे लड़ रहा हूँ मैं
आदमी हूँ या करबला हूँ मैं
मुझसे ईमाँ वफ़ा की बात न कर
अब सियासत में आ गया हूँ
फ़ोन आया है मेरे बेटे का
अपनी आवाज़ सुन रहा हूँ मैं
मुद्दतों बाद नींद आई है
मुख़्तसर ये कि मर रहा हूँ मैं
क्यूँ किसी को बुरा कहूँ आख़िर
कौन सा दूध का धुला हूँ मैं
क्या बनूँगा विजय ख़ुदा जाने
चाक पर रक़्स कर रहा हूँ मैं
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मजबूरियों का मारा लगा वो बशर मुझे
लौटा गया जो आधी रक़म लूटकर मुझे
लुक्मान भी न कर सके इस दर्द का इलाज
कुछ लोग ग़मज़दा हैं सुखी देखकर मुझे
तौबा के बाद कौड़ी कि इज़्ज़त नहीं रही
पहले तो लोग जाते थे घर छोड़कर मुझे
बाज़ार जा के पूछने वाला था अपना दाम
इक शख़्स तो चला भी गया बेचकर मुझे
मुझको भी था अज़ीज़ विजय अपना घर मगर
घर की ज़रूरतों ने किया दर ब दर मुझे
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हम तो उनके हक़ में फूलों की दुआ करते रहे
जो हमारी राह का काँटा हरा करते रहे
ये नही सोचा एवज़ में लोग क्या करते रहे
काम था अपना वफ़ा करना वफ़ा करते रहे
वो लुटी बैठी थी और अख़बार वाले घेरकर
क्या हुआ फिर क्या हुआ फिर क्या हुआ करते रहे
जब तलक दौलत रही सिर चढ़ के बोली काफ़िरी
एक ठोकर क्या लगी फिर या ख़ुदा करते रहे
दूसरे मुल्कों में बेटी चाँद पर चलने लगी
हम घरों में बैठकर पर्दा हया करते रहे
हाथ ख़ाली जेब ख़ाली और हम करते भी क्या
ज़िंदगी भर ज़िंदगी से मशविरा करते रहे
शेर पढ़कर तुम तो महफ़िल से चले आये विजय
सब तुम्हारी शायरी पर तब्सिरा करते रहे
(1.तब्सिरा-समीक्षा,आलोचना2.काफ़िरी-नास्तिक)
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वफ़ादार कब हुस्न वाले हुए हैं
हमीं हैं जो ये रोग पाले हुए हैं
वो दिल्ली में डेरा जो डाले हुए हैं
वो सब नाग अपने ही पाले हुए हैं
भिकारन के कशकोल में कुछ न डाला
मगर जिस्म पर आँख डाले हुए हैं
कई भूके लोगों को रोटी खिलाते
ये सिक्के जो गंगा में डाले हुए हैं
जनाज़े को कांधा लगाने न आये
वसीयत पे दीदे निकाले हुए हैं
वो सारे मुनाफ़िक नवाज़े हैं तूने
मेरी बज़्म से जो निकाले हुए हैं
विजय कह दो हरगिज़ मिटेगी न उर्दू
इसे ग़ैर मुस्लिम सम्भाले हुए हैं
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कल तेरे गुज़रे दिनों का आईना हो जाऊँगा
ज़ख़्म ए दिल हूँ जब कुरेदोगे हरा हो जाऊँगा
ज़र्द पत्ते ने कहा बेशक नया हो जाऊँगा
जिस्म पर मेरे ख़ुदा लिख दो हरा हो जाऊँगा
ज़िंदगी ने इसलिए मुझसे वफ़ा की ही नहीं
जानती थी एक दिन मैं बेवफ़ा हो जाऊँगा
आज बिगड़ा है मुक़द्दर इसलिए ठोकर पे हूँ
कल तराशा जाऊँगा और देवता हों जाऊँगा
आज चेहरा हूँ तो मुझमें खामियाँ गिनते हो तुम
क्या करोगे कल अगर मैं आईना हो जाऊँगा
ख़्वाब में बोले पिताजी मैं न कहता था विजय
आज हूँ मैं साथ तेरे कल जुदा हो जाऊँगा
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न ख़ास तुममें है कुछ और न खानदान में कुछ
कहें तो क्या कहें आख़िर तुम्हारी शान में कुछ
वो जिनमें अज़्म न जज़्बा न दम उड़ानों का
कमी निकालते रहते हैं आसमान में कुछ
तुम्हारी शान में झूठे क़सीदे पढ़ते लोग
तुम्हारे पीछे कहेंगे दबी ज़बान में कुछ
मेरे ख़याल से रिश्तों पे ख़ाक डाल ही दें
अगर जो आ ही गया अपने दरमियान में कुछ
हमें तो बचना है उनसे जो भरते रहते हैं
हमारे कान में कुछ और तुम्हारे कान में कुछ
तेरा यक़ीन करें भी तो किस तरह हाकिम
तेरे दिमाग़ में कुछ है तेरे बयान में कुछ
वफ़ा में इश्क़ में यारी में जान दे देगा
ये खानदानी अदा है विजय पठान में कुछ
आपकी सरकार में वो भूक से कैसे मरा
आप पर तो क़त्ल का इल्ज़ाम आना चाहिए
बहुत जानदार और शानदार ग़ज़लें है,हर अशआर पे वाह निकलता है ।
बहुत उम्दा ग़ज़लें। श्री विजय तिवारी जी ग़ज़लें वास्तव में शानदार रहती हैं। मैं इन्हें निरन्तर पढ़ता हूँ।
इतनी शानदार और जानदार गजले बहुत दिनों बाद पढ़ने को मिली लगता है आप भावनाओं को पंख लगाकर लिखते है !
हर नज्म अपने आप में कामयाब है अच्छे लेखन के लिए बधाई आ.
उम्दा ग़ज़लें हैं।
शेर अच्छा हो तो बेशक दाद *आनी* चाहिए
वास्तविकता कहती हुई गजलें। बहुत ही उम्दा। वाह….
शानदार गजले –
लुक्मान भी न कर सके इस दर्द का इलाज
कुछ लोग ग़मज़दा हैं सुखी देखकर मुझे
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आज बिगड़ा है मुक़द्दर इसलिए ठोकर पे हूँ
कल तराशा जाऊँगा और देवता हों जाऊँगा
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जनाज़े को कांधा लगाने न आये
वसीयत पे दीदे निकाले हुए हैं
ग़ज़ब गजब
मन को डिस्टर्ब करती हैं ये ।
एक एक शेर जानदार
शानदार
शुक्रिया आबो हवा ।