
- December 4, 2025
- आब-ओ-हवा
- 2
गूंज बाक़ी... पिछले दिनों लेखक राजी सेठ हमारे बीच नहीं रहीं, आब-ओ-हवा की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि। कथा संसार के साथ ही उनका पत्र साहित्य भी पठनीय और चर्चित रहा। ज्योत्स्ना मिलन पर केंद्रित 'कथादेश' के जुलाई 2015 अंक में प्रकाशित लेखकीय वैचारिकता एवं मित्रभाव से लबरेज़ यह पत्र सुश्री दिव्या जैन एवं शम्पा शाह के सौजन्य से प्राप्त।
ज्योत्स्ना... तेरी राजी
8.12.82
प्रिय ज्योत्स्ना,
संलग्न पत्र देखोगी तो पता नहीं कैसा महसूस करोगी तुम, जिसे तुम्हारे पत्र के आते ही लिखने बैठ गयी थी। पूरा हो गये होने की अनुभूति होती तो शायद चला भी जाता… कई बार ध्यान आया था ज्यों का त्यों लिफ़ाफ़े में रख दूँ… शायद वह अच्छा रहता.. इतने बड़े अन्तराल में एक उष्ण हाथ की तरह, यह एक अजीब बात है कि पत्र लिखने के नाम पर एक तुम रह गयी हो। जिससे संवाद की इच्छा और हार्दिकता का एहसास उपलब्ध हो सकता हो, पर पता नहीं क्यों, अचानक बहुत ज़रूरी चीज़ों की चिन्ता अचानक ग़ायब सी हो जाती है मन से, अपने आप ऐसा लगता है जैसे हवा की भंवर में घूमता एक पत्ता, बोझ से रहित अपने अस्तित्व के एहसास से भी कुछ परे…
ऐसा पहले नहीं होता था अब होता है। कहीं कुछ भीतर से इस संसार को belong करता नहीं भी लगता, शायद अब उस किनारे पर खड़े हो गये हैं, जहाँ दूसरा सिरा अपनी हस्ती के अंत का बोझ भी भीतर सरकता चला आता है एक स्वीकार भाव, एक राह से गुज़र चुके होने का तटस्थ निर्भाव आंकलन… ऐसी ही किन्हीं भंवरों में गायब हो जाती है आवाज़, जिनकी जकड़न नहीं टूटती तो बस नहीं टूटती।
इस बीच बाबूजी आये थे, भारतीय ज्ञानपीठ के समारोह पर। उनके साथ होना एक बेहद भरी-पूरी-सी अनुभूति थी। जब दूसरों से उन्मुख होते हैं तो बहुत उदार हो जाते हैं.. सराबोर उदारता और वत्सलता और नेहिलता… पर उनका अपने पर लौटना यातनादेह है… यातनादेह है उसका दर्शन। कई बार ध्यान आया है कि औदात्य की पराकाष्ठा के स्पर्श में आदमी को क्या उस अतलान्त तक पहुँचना भी ज़रूरी हो जाता है… उसके बिना जैसे अपने भीतर कोई ‘नहींपन’ को नकारकर लपक उठने वाली त्वरा की प्रतीति नहीं हो सकती, उनके जाने के बाद न ‘अंक’ (दिवाली) निकला न सूचना मिली। कहीं बीमार न हो गये हों!
‘पूर्वग्रह’ में जो कुछ भी तुम्हारा छपा था, कविताएं और लेख वह सब पढ़ा था। तुम्हारी कविताओं से हमेशा अच्छी-सी अनुभूति होती है मुझे। अभिव्यक्ति और उपलब्धि के सुख के बीच पूरी तरह तनी हुई। लेख पढ़ते (आबू वाला) तुम्हारी डायरी के कई खंड स्मरण हो आये थे… उस लेख में अंतरंगता थी विचित्र प्रकार की (यह तब के इम्प्रेशन हैं)। एक बात लगती है, तुम्हारा लेखन अपनी तरह से मौलिक है तुलना से परे क्योंकि वह किसी विशिष्ट परम्परा (साहित्यिक) से नत्थी नहीं लगता, अपने भीतर की किन्हीं बाध्यताओं का अनुवाद करता लगता है पर जिसकी शक्ति एक उड़ती हुई चिड़िया के पंख को दबोच पाने की सफलता पर क्षणिक एहसास में से उगती लगती है। मुझे लगता है तुम्हें थोड़ा और आत्म-सजग होना चाहिए एक लेखक की हैसियत से। अपने रचनाकार व्यक्तित्व का आलोचक, दुनियादार व्यक्तित्व का नहीं, उसके बारे में तुम भूल क्यों नहीं जातीं। उसे ढोना पड़ता है एक रोज़िंदा चलते कर्म की तरह, शायद इसीलिए ऐसा हो सकता है अपने पर गुज़रती उन चीज़ों के प्रति हम बेख़बर हो सकें, पूरी तरह क्योंकि उनके प्रति हमारे भीतर स्वीकार नहीं होता। हम चाहते हैं वह पत्थर पर सरकते पानी की तरह बह जाएँ। यह ठीक है कि बह नहीं जाती गीला और बोझल भी करती है, पर उन्हें अपने को सोख लेने के नज़दीक क्यों ले आया जाये!

एक सुझाव मानो… जो लिखना है मात्र उसके बारे में सोचो, चाहे वह एक पंक्ति भर क्यों न हो, उस असमर्थता के बारे में नहीं, जो उस पंक्ति तक तुम्हारी पहुँच के बीच में है, ज़िन्दगी असमर्थताओं का अन्तहीन सिलसिला है। अनिवार्यताओं को जब भी चुनना होगा चिड़ियों की चोंच में दबे तृण के चुनाव की तरह चुनना होगा। पता नहीं कैसे, तुम्हारे प्रति मेरा सरोकार गहरा होते-होते एक बेहूदा तरीक़े से प्रवचनात्मक हो जाता है पर उससे उबरने का तरीक़ा?
‘औरत’ कविताएँ बहुत, बहुत अच्छी लगीं, सादी और समर्थ, एकदम मौलिक… अपने
से प्रसन्न होओ, कुछ ताज़ी अनुभूति होगी। तुम्हारी कोई कहानी पढ़े कितना अरसा गुज़र गया। कहाँ छप रही है? और भी कितनी बातें हैं, जो मैं तुम्हें नहीं भी लिख रही, क्योंकि लिखी नहीं जा सकती। मिलना जब कभी भी हो। उपन्यास आ जाये शायद दिसम्बर में ही। उसे लिखकर ख़ाली हो जाने की अपेक्षा आगे के लिए तैयार हो पाने की अधिक अनुभूति हुई है… कुछ चीज़ें स्वतः देख पाने की, यह पुस्तक मेरे लिए कोई उपलब्धि न होगी, सिवाय एक पड़ाव के, जिस पर से मेरे रचनाकार व्यक्तित्व को गुज़रना ज़रूरी तो था, मन कुछ विशेष उत्फुल्ल नहीं है आजकल। कुछ स्वास्थ्य का झंझट, कुछ व्यस्तताएं पर उनकी चर्चा करने की इच्छा नहीं है, उनसे कुछ तटस्थ रह पाने का एक ठंडा क़िस्म का बल अपने भीतर महसूस होता है, शत्रु को Ignore कर सकने के साहस की तरह, यह बात मन को अच्छी लगती है, भीतर से लग रहा है कि अब काफ़ी कुछ लिखा जाएगा, जो एक ख्वाहमख़ाह क़िस्म के उपन्यास से स्थगित पड़ा हुआ था। तुम्हारे दो पत्र मेरे पास अनुत्तरित थे, एक लिफ़ाफ़ा-एक अन्तर्देशीय। शादी, आशा है अच्छी निपटी होगी। तुम्हें और बच्चों को मेरा बहुत-बहुत प्यार। रमेश को हम लोगों का हार्दिक स्मरण देना।
- तेरी राजी
पुन:श्च – दिसम्बर अन्त में शायद कहीं जाना हो, शायद नहीं भी। ‘सारिका’ अवधनारायण मुदगल देख रहे हैं.. ठीक-ठीक है कोई बड़ी छलांग नहीं।
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पत्र की अंतरंगता मन स्पर्शी है।
सखि भाव से लिखा आत्मीय पत्र।
प्रगाढ़ मित्रता में ही इतना खुलकर लिखा जा सकता है।
अपने रचनाकार व्यक्तित्व का स्वयं आलोचक होना, बढ़िया बात कही।