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पाक्षिक ब्लॉग आशीष दशोत्तर की कलम से....

लकदक बाज़ार में गुमसुम किरदार

             फ़िक्रो-फ़न के ऐतबार से शाइरी ने नये मौज़ूआत को हर वक़्त स्वीकार किया। कहन के सलीके से भी एक नयी रोशनी की उम्मीद शाइरी से की जाती रही है। शाइरी वक़्त के साथ बहुत तेज़ी से ख़ुद को बदलने में लगी है। यह दौर बाज़ार के हाथों में खेल रहा है। यहां हर चीज़ का सौदा हो रहा है। सौदेबाज़ी के ख़तरों से शाइर नवाकिफ़ हो ऐसा नहीं है। हर कोई बहुत ख़ामोशी के साथ ऐसे मंज़र को देख रहा है और इसके भीतर हो ही रही तब्दीलियों पर रोशनी डाल रहा है। वह अपना काम बख़ूबी कर रहा है।

दौरे-हाज़िर में सौदे सियासत के ही नहीं किरदार के भी हो रहे हैं। एक वक़्त वह भी था जब किरदार को सबसे बड़ी दौलत समझा जाता था और एक वक़्त यह भी है कि जब किरदार की कोई अहमियत नहीं रही है। वक़्त ने किरदार को कहां से कहां लाकर खड़ा कर दिया है। अब किसी को अपना किरदार संवारने की फ़िक्र नहीं और न ही किसी के किरदार की इज़्ज़त करने की चिंता।

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बहरहाल किरदार हमारी शाइरी का अहम हिस्सा रहा है। इस मौज़ूं पर हर दौर में कुछ न कुछ कहा गया। हर बार तेवर शख़्सियत को संवारने वालों की तरफ़दारी करते रहे और किरदार का सौदा करने वालों पर उंगली उठाते रहे। इसी दर्द को मेराज फ़ैज़ाबादी ने क्या ख़ूब कहा है-

शोहरत की भूख हमको कहां ले के आ गयी
हम मोहतरम हुए भी तो किरदार बेचकर

हाल यह है कि जिसने अपने किरदार का सौदा कर लिया, वह आज के वक़्त में नाम वाला हो गया। गुमनाम चेहरे अपने किरदार के साथ कहीं ख़ामोश ज़िन्दगी गुज़ारते रहे और किरदार बेचने वाले सफ़े-अव्वल में आकर अपना रुतबा दिखाते रहे। किरदार को बेचने वाले समाज में मुबारकबाद पाते रहे। सलीम सिद्दीक़ी कहते भी हैं-

ज़मीर बेच के लौटा जब ऊंचे दामों पर
जो रास्ते में मिला वो बधाई देने लगा

इसे नज़रों का फेर भी कहते हैं। समाज ने लोगों के देखने का नज़रिया ही बदल दिया है। ऊपरी चमक-दमक ने भीतर को खोखला कर दिया है। पहले वस्तुओं के रैपर को आकर्षक बनाया जाता था, भले ही उसके भीतर माल ख़राब हो। आजकल इंसान ने भी अपने आप को एक कमोडिटी में तब्दील कर लिया है। इस बात को हसीब सोज़ के अलग ज़ाविये से कहे गये एक ही मजमून के शेरों से महसूस किया जा सकता है-

कल तलक रहती थीं किरदार पे नज़रें लेकिन
आज का आदमी कपड़ों पे नज़र रखता है
और
हमने किरदार को ही कपड़ों की तरह पहना है
तुमने कपड़ों को ही किरदार समझ रक्खा है

मशहूर अदाकार और संवाद लेखक कादर ख़ान ने एक संवाद में इसी बात को रेखांकित किया है, ‘कपड़े इंसान के किरदार को बदल दिया करते हैं।’ यक़ीनन आज कपड़े ही इंसान की शख़्सियत की गवाही दे रहे हैं। इस पर गंभीरता से विचार करने के बजाय हर कोई आवरण से अपने आचरण को संवारने की कोशिश में लगा है।

आशीष दशोत्तर

आशीष दशोत्तर

ख़ुद को तालिबे-इल्म कहते हैं। ये भी कहते हैं कि अभी लफ़्ज़ों को सलीक़े से रखने, संवारने और समझने की कोशिश में मुब्तला हैं और अपने अग्रजों को पढ़ने की कोशिश में कहीं कुछ लिखना भी जारी है। आशीष दशोत्तर पत्र पत्रिकाओं में लगातार छपते हैं और आपकी क़रीब आधा दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हैं।

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