हिन्दी उर्दू का भाषाई रिश्ता

हिन्दी उर्दू का भाषाई रिश्ता

हिंदोस्तान एक ऐसा बहुभाषीय देश है, जिसमें अनेक क्षेत्रीय बोलियां एवं स्थानीय भाषाएं बोली समझी एवं इस्तेमाल की जाती हैं। हिंदोस्तान को भाषाओं का घर भी कहा जाता है। भारतीय संविधान में जो प्रमुख हिंदोस्तानी भाषाएं सम्मिलित हैं, उनमें हिंदी एवं उर्दू भी हैं। उक्त दोनों भाषाएं न केवल देश भर में बल्कि विदेशों में भी, जहां हिंदोस्तानी रहते हैं, सरलता से बोली और समझी जाती हैं।

भाषाओं का अपना कोई घर नहीं होता है। हर भाषा अपनी प्रमुख सामाजिक, सांस्कृतिक एवं भाषाई पृष्ठभूमि रखती है। भारत का वह ख़ास सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश, जो शताब्दियों से यहां के लोगों के परस्पर मेलजोल से उत्पन्न हुआ, दरअसल वही ख़ास माहौल हिन्दी एवं उर्दू भाषाओं के उद्भव एवं विकास का कारण बना।

इंसानों की तरह भाषाओं के भी अपने परिवार होते हैं। इस आधार पर विश्व की समस्त भाषाओं को विभिन्न आठ परिवारों में बांटा गया है। भाषाओं का सबसे बड़ा ख़ानदान हिंद यूरोपीय ख़ानदान है।

‘हिंद आर्याई ख़ानदान’ उसी की एक अहम शाखा है, जिससे विभिन्न भारतीय भाषाओं की तरह हिंदी एवं उर्दू भाषाएं भी संबंध रखती हैं। प्रख्यात भाषाविद मिर्ज़ा ख़लील अहमद बेग़ के अनुसार ‘उर्दू एक आधुनिक हिंद आर्याई ज़बान है, जिसकी दागबेल हिंदोस्तान की दूसरी जदीद हिंद आर्याई ज़बानों की तरह एक हज़ार ईस्वी के बाद पड़ती है। उर्दू मग़रिबी (पश्चिमी) हिंदी की एक बोली खड़ी बोली का माख़ज़ (सोर्स) बनती है। मग़रिबी हिंदी शौरसेनी अपभ्रंश के बतन (पैर) से पैदा हुई थी और शौरसेनी अपभ्रंश, शौरसेनी प्राकृत से निकली थी और अन्य प्राकृतों की तरह शौरसेनी प्राकृत की पैदाइश भी संस्कृत से हुई थी। इस तरह यह कहना ग़लत न होगा कि उर्दू के लिसानी (भाषाई) ख़ानदान का सिलसिला संस्कृत से जाकर मिल जाता है।’ (हवाला: ‘उर्दू ज़बान का हिंद आर्याई पसमंज़र’ किताब: उर्दू की लिसानी तशकील, पृ.33)

सभी भाषाई विशेषज्ञ इस बात को प्रमाणित करते हैं कि हिंदी एवं ​उर्दू भाषा का न केवल उद्भव एक है बल्कि दोनों भाषाओं का व्याकरण (सिंटेक्स) भी समान है। दोनों भाषाएं खड़ी बोली से निकली हैं और इनका सिलसिला या रिश्ता संस्कृत से जा मिलता है। दोनों भाषाओं में बोले या इस्तेमाल किये जाने वाले कई शब्द, मुहावरे एवं कहावतें समान रूप से प्रयोग में लायी जाती हैं। दोनों की पूर्णत: हिंदोस्तानी भाषाएं हैं। दोनों की लिपि ज़रूर अलग है परंतु दोनों एक ही परिवार से संबंधित हैं।

आरंभ में उर्दू को हिंदी, हिंदवी, हिंदोस्तानी और रेख़्ता के नाम से पुकारा जाता था और अब उसका नाम उर्दू हो गया।

हर भाषा में तीन प्रकार के शब्द सम्मिलित होते हैं, एक वे शब्द जो भाषा के बुनियादी ढांचे से संबंध रखते हैं, दो ऐसे शब्द जो दूसरी भाषाओं से लिये गये हैं, उन्हें तत्सम कहा जाता है, तीन ऐसे शब्द जिन्हें दूसरी भाषाओं से लेकर परिवर्तित कर दिया जाता है, उन्हें तद्भव कहा जाता है।

उर्दू केवल ऐसी हिंदोस्तानी ज़बान है, जो कि हिंदी भाषा से सबसे अधिक निकटता रखती है। प्रो. गोपीचंद नारंग के अनुसार, ‘एक आम अंदाज़े के मुताबिक़ उर्दू के 70 फ़ीसदी अल्फ़ाज़ प्राकृतों के ज़रिये आये हैं। जितना इश्तिराक (समन्वयन/समानता) उर्दू और हिंदी में पाया जाता है, शायद ही दुनिया के किन्हीं दो ज़बानों में पाया जाता हो। उर्दू की तक़रीबन 36 आवाज़ों में सिर्फ़ छह ऐसी हैं, जो कि फ़ारसी या अरबी से ली गयी हैं, बाक़ी सबकी सब हिंदी और उर्दू में मुश्तरक (सम्मिलित) हैं। ख़ास तौर पर, हकार आवाज़ें, ‘भ’, ‘फ’, ‘थ’, ‘ध’, ‘झ’, ‘छ’, ‘ख’, ‘घ’… वग़ैरह हिंदी और उर्दू में एक सी हैं। ये चौदह आवाज़ें उर्दू का रिश्ता प्राकृतों से जोड़ती हैं…. कई जुमलों में लफ़्ज़ों की तरतीब बिल्कुल एक जैसी है। उर्दू फ़ैल (क्रिया) का सारा सरमाया हिंदी से जुड़ा हुआ है। मसलन, उठना, बैठना, खाना, पीना, आना, जाना.. सैकड़ों हज़ारों फ़ैल जैसे हिंदी में हैं, वैसे ही उर्दू में हैं।’

मुहावरे एवं कहावतें ज़ुबान का ज़ेवर होती हैं जो कि ख़ास सियासी, समाजी एवं सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में स्वयं ही अस्तित्व में आ जाते हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित होकर हमारी दिनचर्या या लेखनी का हिस्सा बन जाते हैं। उनसे बातचीत या साहित्यिक रचनाओं में ज़ोर असर (प्रवाह व प्रभाव) पैदा हो जाता है। उर्दू एवं हिंदी में कई मुहावरे एवं कहावतें समान रूप से इस्तेमाल किये जाते हैं जैसे आंख आना, आंख लगना, आंखें भर आना, आंखें फेरना, आंखें दिखाना… एवं कहावतों में ‘कहां राजा भोज कहां गंगू तेली’, ‘नाच न जाने आंगन टेढ़ा’, ‘यह मुंह और मसूर की दाल’, ‘मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक’ आदि।

फ़ारसी, अरबी के कई शब्द ऐसे हैं, जिन्हें हिंदी के शब्दों के साथ जोड़कर बोला जाता है जैसे अजायबघर, डाकख़ाना, दवाख़ाना, इमामबाड़ा, ईदमिलन, लबे सड़क, घड़ीसाज़, दिल लगी, रोज़ी रोटी इत्यादि। कई उर्दू शायरों ने हिंदी शब्दों को और हिंदी कवियों ने उर्दू शब्दों को अपनी रचनाओं में इस्तेमाल करके उनके सौंदर्य या हुस्न को दोबाला कर दिया है।

प्रख्यात उर्दू शायर एवं साहित्यकार इंशा अल्लाह ख़ां इंशा ने अपनी लिखित उर्दू दास्तान ‘रानी केतकी की कहानी’ में एक शब्द भी अरबी, फ़ारसी का सम्मिलित नहीं किया है।

उर्दू एवं हिंदी की कई पुस्तकें एवं रचनाएं अनुवाद द्वारा एक दूसरे के पाठकों तक पहुंच चुकी हैं। हिंदी एवं उर्दू समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में भी दोनों भाषाओं के शब्द बहुधा इस्तेमाल किये जाते हैं।

उपरोक्त सभी उदाहरण इस बात का प्रबल प्रमाण हैं कि उर्दू हिंदी का रिश्ता मज़बूत एवं अटूट है। दोनों भाषाएं एक दूसरे से प्रभावित, एक दूसरे के इतने समीप और समान हैं कि उन्हें एक दूसरे से अलग करना असंभव है।

मो. नौमान ख़ान

मो. नौमान ख़ान

उर्दू साहित्य की सात किताबों के लेखक, 6 किताबों के संपादक और दर्जनों पाठ्यपुस्तकों के संकलक/संपादक रह चुके हैं डॉ. नौमान। सवा सौ ज़्यादा शोधपत्र प्रकाशित हैं। आधा दर्जन साहित्यिक किताबें प्रकाशनाधीन हैं। दर्जनों सेमिनार में बतौर एक्सपर्ट वक्ता शामिल होने के साथ ही आपको आधा दर्जन से ज़्यादा महत्वपूर्ण सम्मानों से नवाज़ा जा चुका है। 2 जुलाई 1952 को जन्मे डॉ. नौमान एनसीईआरटी में प्रोफ़ेसर हैं और बतौर पत्रकार और महत्वपूर्ण अकादमिक संस्थानों में सेवाएं दे चुके हैं।

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