kamal; kant saxena, कमलकांत सक्सेना
नियमित ब्लॉग सलीम सरमद की कलम से....

मेरे अस्तित्व की लघुता और कमलकांत सक्सेना जी

             मैं इससे पहले किसी साहित्यकार से नहीं मिला था, मैंने लेखकों के नाम सिर्फ़ किताबों में पढ़े थे या उन्हें तस्वीरों में देखा था। कॉलेज की तरफ़ मेरा पहला क़दम था कि मेरी मुलाक़ात एक साहित्यकार से हुई… मेरे बालक मन को लगा जैसे कोई विशाल दरवाज़ा खुला है और मुझे उसमें प्रवेश करना है। आगे एक मनचाही दुनिया मेरे इंतज़ार में है… मैंने अभी देखा ही क्या था लेकिन जितनी दुनिया देखी थी, उसका अनुभव अच्छा नहीं था, जो दुनिया मेरे पास थी उसने मुझे परेशान किया था। मेरे अंदर केवल डर था, अपनी लघुता का डर मानो कोई निर्दयी, बड़ा-सा पंजा मेरे अस्तित्व को कुचल देगा लेकिन मेरे उस साहित्यकार की आँखों में अपनाइयत थी, उनके मित्रवत व्यवहार से मेरा डर कुछ कम हुआ। मैं उनके ऑफ़िस में सहजता से आने-जाने लगा। कमलकांत जी तब साहित्य-सागर पत्रिका के संपादक थे, मेरी कच्ची रचनाओं को भी अपनी पत्रिका में स्थान देकर उन्होंने मुझ पर बड़ा उपकार किया था, जिसकी बदौलत मेरे लेखन में गति आ गयी और मैं अपने आपको लेखक समझने लगा था… आम लड़कों से अलग, मेरे अस्तित्व में अनोखा फैलाव था, जिसका परिणाम यह हुआ कि एक मासूम-सा अंहकार मेरे होठों पर मुस्कुराने लगा।

एक दिन कमलकांत जी मुझे समझा रहे थे उर्दू में इतने कठिन शब्द क्यों लेना, जो अब कहीं भी चलन में नहीं हैं, जिनका किसी को अर्थ भी नहीं पता, समझाइश की इस लकीर को गहरा बनाने के लिए उन्होंने साहित्य सागर का एक अंक उठाया, उसमें छपी ग़ज़ल का मतला और एक शेर पढ़ा, मतले की तारीफ़ की लेकिन अगले ही शेर में शब्द ‘यकजहती’ आया, तो उसे इंगित करते हुए कहने लगे अब इस शब्द का ही अर्थ देख लो मैंने झट से कहा ‘एकता’… यह इत्तिफ़ाक़ ही था कि इस शब्द से मेरा परिचय कुछ रोज़ पहले ही हुआ था। वरना मैं भी इसके अर्थ से अनभिज्ञ था। कमलकांत जी के सामने अपनी ओछी विद्वता साबित करने या उन्हें अधिक इम्प्रेस करने के फेर में आख़िरकार मैं उनकी बात को काट रहा था… जैसे एक चिड़िया का बच्चा जिसके पंख अभी ठीक से उगे भी नहीं मगर वो उन्हें हवा में तौलने लगे, ये एक नासमझ बालक की धृष्टता थी। कमलकांत जी की बात निराधार नहीं थी। शायद मेरे अंदर पनपती मेरी ओछी विद्वता ने ही मेरे साथ छल किया था वरना मैं उनकी बात क्यों काटता। आज अगर सर होते तो मैं ज़रूर अपनी उस हरकत पर उनके सामने प्रायश्चित करता, उन्हें हर एक बात याद दिलाकर, उनसे माफ़ी मांग लेता।

एक बार इसी तरह से बात करते हुए मैंने कहा कि मेरी वेदों में आस्था है। मैंने वेदों के बारे में थोड़ा बहुत पढ़ा अवश्य था, लेकिन न उसकी किसी श्रुति से परिचित था और न उनके किसी अर्थ को समझता था… सर को ख़ुश करने या अपनी प्रतिष्ठा गढ़ने के लिए मैंने ‘वेदों में आस्था है’ कहकर एक झूठा जुमला उछाला था। मैं शायद जल्द से जल्द अपने अस्तित्व में विस्तार चाहता था और उसकी क़ीमत थी ‘मात्र झूठ’…

अगली मुलाक़ात सर के फ्लैट में हुई, मगर उस दिन सब कुछ अस्त-व्यस्त था, सामान बांधा जा रहा था, नये घर मे शिफ्टिंग की तैयारी हो रही थी। उसी दिन उनके छोटे बेटे तपेश से भी मुलाक़ात हुई जिसने मेरी सहित्यिक समझ को नया आयाम दिया। सर को मैंने अपनी डायरी दिखायी, उन्होंने उसे जब अपने हाथों में थामा तो मेरे दिल की धड़कन यकायक तेज़ हो गयी, मुझे तारीफ़ भी मिल सकती थी मगर अंदेशा था कि कहीं आलोचना न झेलना पड़े, इसी डर से मेरे मुंह से निकला कि ये रुबाइयाँ मैंने एक ही रात में लिखी हैं… वो मेरी रुबाइयों को पढ़ रहे थे जिन्हें मैंने हाल-फ़िलहाल सीखा था। एक ही रात में लिखने पर मेरा ज़ोर था। वो मुझे समझा रहे थे लेखन का समय मायने नहीं रखता मगर लिखे हुए का अर्थ अवश्य मायने रखता है। उन्होंने तुलसीदास के मशहूर दोहे का एक मिसरा सुनाया- “राम नाम की लूट है लूट सके तो लूट…” सर मुझे समझाना चाह रहे थे कि शब्द और उसके अर्थ में मेल सीधा और स्पष्ट होना चाहिए लेकिन मुझे लगा जैसे वो कह रहे हों कि तुम मुसलमान हो… तुम्हारी राम में आस्था नहीं है, फिर भी लिखा तो ऐसा ही जाना चाहिए। मैं उनकी अनकही बातों के भी अर्थ तय कर रहा था। मेरी राजनैतिक समझ ने मुझे भ्रम में डाल दिया था, सामाजिक दायरे ने मेरे साथ छल किया था। तभी तपेश ने रुबाई के एक मिसरे में ध्यान दिलाया कि मैंने ‘हर एक’ के साथ ‘हैं’ लिखा है। व्याकरण की एक मामूली नहीं आधारभूत समझ। मैं जान गया मुझे अभी बहुत कुछ सीखना है लेकिन तब मुझमें सांप्रदायिकता है, इसकी ख़बर नहीं हुई। अगली मुलाक़ात सर के नये घर पर हुई… तब तक मैं भी किराये के मकान से छुटकारा पा चुका था। उन्होंने मेरे घर के प्लॉट का साइज़ पूछ लिया, मैंने कहा 600 स्क्वायर फ़ीट, सर ने अंग्रेज़ी का फ्रेज़ बोला ‘समथिंग इज़ बेटर देन नथिंग…’ अस्तित्व की लघुता ने एक बार फिर से मेरे मन पर हमला कर दिया था, लेकिन इस बार दो संप्रदायों की बस्तियां और उनके घरों की तुलना भी शामिल थी। सर की मुस्कुराहट को मैं दुनिया का निर्दयी पंजा समझकर दुखी हुआ। मैं ग़लत था, मैं अपने दुख का प्रायश्चित करना चाहता हूँ। अस्ल में वो मुझे प्रेरित कर रहे थे आने वाली मंज़िलों के लिए… ये सर से मेरी आख़िरी मुलाक़ात थी।

kamal; kant saxena, कमलकांत सक्सेना

कमलकांत जी से मिलना मेरे जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है… उनसे जितनी बार भी मिला हूँ, हर बार मेरी समझ में इज़ाफ़ा हुआ, जिसका अहसास मुझे बहुत बाद में हुआ… ऐसी ही एक शुरूआती मुलाक़ात थी, सर के हाथ में महेंद्र अग्रवाल साहब की किताब थी, जिसमें ग़ज़ल के मीटर, बहर-वज़्न के बारे लिखा था… मुस्कुराहट के आदान-प्रदान के बाद उन्होंने पूछा, तुम बड़ी बहर में शेर क्यों कहते हो जबकि इससे पहले मैंने बह्र शब्द सुना भी नहीं था… मगर वही तब ओछी विद्वता… अपनी नासमझी की पोल खुलने के डर से जल्दी-जल्दी एक जवाब सूझा कि बड़ी बह्र से मेरी बात स्पष्ट हो जाती है… उस दिन काश मैं उनसे साफ़-साफ़ कह सकता कि मुझे मीटर, बह्र, वज़्न कुछ नहीं आता है। उन्होंने महेंद्र अग्रवाल साहब की किताब मुझे पढ़ने के लिए मेरे हाथ में सौंप दी। पहली बार मैंने सीखा कि ग़ज़ल कैसे बह्र-वज़्न में कही जाती है। हालांकि कमलकांत जी ग़ज़ल के इस व्याकरण से ख़ुद कभी दो-चार नहीं हुए क्योंकि उनके पास पहले से ही गीत के छंद थे।

कमलकांत जी से ग़ालिबन दो साल के राब्ते में छह या सात मुलाकातें हुई होंगी लेकिन पच्चीस साल पहले समय की रफ़्तार कम थी… हर मुलाक़ात की छाप गहरी और अनुभव गाढ़े हुआ करते थे।

सलीम सरमद

सलीम सरमद

1982 में इटावा (उ.प्र.) में जन्मे सलीम सरमद की शिक्षा भोपाल में हुई और भोपाल ही उनकी कर्म-भूमि है। वह साहित्य सृजन के साथ सरकारी शिक्षक के तौर पर विद्यार्थियों को भौतिक विज्ञान पढ़ाते हैं। सलीम अपने लेखन में अक्सर प्रयोगधर्मी हैं, उनके मिज़ाज में एकरंगी नहीं है। 'मिट्टी नम' उनकी चौथी किताब है, जो ग़ज़लों और नज़्मों का संकलन है। इससे पहले सरमद की तीन किताबें 'शहज़ादों का ख़ून' (कथेतर) 'दूसरा कबीर' (गद्य/काव्य) और 'तीसरा किरदार' (उपन्यास) प्रकाशित हो चुकी हैं।

2 comments on “मेरे अस्तित्व की लघुता और कमलकांत सक्सेना जी

  1. प्रायश्चित खुद को मांजने की सफल कोशिश होती है ।बधाइयाँ शायर । सही जा रहे हो ।

  2. अपने अनुभवों, गलतियों और पश्चातापों के बारे में इस तरह से बेबाक लिख पाना बहुत बड़ी बात है। बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं। पिताजी के इतने सारे संस्मरण देने के लिए धन्यवाद।

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