
- October 15, 2025
- आब-ओ-हवा
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नियमित ब्लॉग भवेश दिलशाद की कलम से....
नोबेल पुरस्कार: शांति की खोज या ईजाद?
विज्ञान के नोबेल से नोबेल पुरस्कार समिति को ही क्यों नहीं नवाज़ा जाये! आख़िर उसने इस बार एक नायाब खोज जो की है। खोज या आविष्कार? यह प्रश्न भी नामुनासिब नहीं। चर्चा में हैं, कहना उतना मुनासिब नहीं क्योंकि नोबेल पुरस्कार आलोचना में है, सवालों और कठघरे में है।
“मचाडो शांति या तरक़्क़ी का प्रतीक नहीं हैं। फ़ासीवाद, यहूदीवाद और नवउदारवाद के बीच विश्व स्तर पर जो सांठ-गांठ है, वह उसका एक हिस्सा भर हैं, एक ऐसी धुरी मात्र जो लोकतंत्र और शांति की भाषा से फुसलाकर वर्चस्व को जायज़ ठहराती है।” (मिशल एलनर)
वेनेज़ुएला के एक सियासी चेहरे मारिया कोरिना मचाडो को शांति का नोबेल दिये जाने पर हंगामा है। इसे ‘युद्ध का नोबेल’ तक क़रार दे दिया गया है। वेनेज़ुएला में जन्मीं और कोडपिंक के लिए लैटिन अमरीका की समन्वयक मिशल एलनर का लेख मचाडो का पर्दाफ़ाश करता है। यह लेख कॉमन ड्रीम्स पोर्टल (सरकारी और कॉर्पोरेट फ़ंडिंग से ख़ुद को दूर रखने के साथ ही हिंसा विरोधी होने का दावा करता रहा है) पर है, शीर्षक है- “जब दक्षिणपंथी मचाडो जैसे नोबेल जीतते हों तब शांति का मतलब ही नहीं”।

सवाल यह है कि मचाडो को शांति का नोबेल क्यों? कुछ तथ्य देखें:
इतिहास — 1930 और 40 के दशक में महात्मा गांधी को कई बार शांति के नोबेल के लिए नामित किया गया, लेकिन पुरस्कार न दिये जाने के पीछे जो बड़ी वजहें समिति ने बतायीं, उनमें से एक कि गांधी के आंदोलन हमेशा या पूरी तरह अहिंसक नहीं रह सके।
सवाल — गांधी के आंदोलन पर ये आरोप जस्टिफ़ाइड हैं कि नहीं, पर मचाडो की मुहिम को लेकर इल्ज़ाम कहीं ज़ियादा गंभीर हैं।
इतिहास — 1923 और 1924 के लिए शांति के नोबेल सिर्फ़ इसलिए नहीं दिये गये थे क्योंकि समिति का मानना था कि लगातार संघर्ष की वजह से यूरोप में स्थाई शांति के अवसर नहीं थे।
सवाल — अब स्थाई शांति की चिंता सिर्फ़ यूरोप भर की रह गयी है?
इतिहास — हिटलर के उदय के बाद 1933 से द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने से ऐन पहले तक, समिति ने मुख्यतः उन लोगों को पुरस्कृत किया, जिन्होंने जर्मनी के पुनःशस्त्रीकरण का विरोध किया था या राष्ट्र संघ का समर्थन।
सवाल — मचाडो पर तो सशस्त्र हिंसा और हिंसकों का समर्थन करने के इल्ज़ाम हैं। किसिंजर और अराफ़ात जैसों को शांति के नोबेल के समय भी ऐसे इल्ज़ाम लगे थे।
मिशल ही क्या, और भी कई लेख तथ्य बताते हैं कि लोकतंत्र की बहाली के लिए मचाडो का तथाकथित आंदोलन अहिंसक या शांतिपूर्ण नहीं रहा है। वह हिंसा के बल पर बदलावों का समर्थन करती रही हैं। युद्धरत इज़राइल और उसके आक़ा यानी अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की चाटुकार होने के इल्ज़ाम मचाडो पर हैं। दूसरे, वेनेज़ुएला तक़रीबन एक जंग के मुहाने पर है। उसे डर है कि अमरीका वहां तख़्तापलट की चालें चल रहा है। और इन सब आरोपों के दायरे से मचाडो पूरी तरह बाहर नहीं हैं। मिशल इसलिए मचाडो को एक मोहरा मात्र बता रही हैं। जो शख़्स हिंसा के इतने आसेबों से घिरा है, उसे शांति का नोबेल!
सिर्फ़ एक या कोई देश क्या, दुनिया के कई कोने हथियारबंद हिंसा की चपेट में हैं। यह विश्वयुद्ध से कम ख़तरनाक समय नहीं है। यह शब्द आपको ज़्यादती लगे, तो विश्व संकट शब्द मान लीजिए। विश्व स्तरीय संस्थाओं के सामने पतन का संकट भी है। एक तरफ़ संयुक्त राष्ट्र है, जिसे लक़वा मार जाने की बातें अब पर्दे में नहीं हैं, दूसरी तरफ़ मानवाधिकार आयोग जैसे संस्थान अपने औचित्य के लिए ही संघर्ष कर रहे हैं। दुनिया जब आग में झुलस रही है, ऐसे स्वनामधन्य संगठनों का सुदूर बर्फ़ की तरह जमे रहना कोई मक़सद सिद्ध करता है?
मौत का तांडव जारी है। मौत क्या हत्याओं का। दुनिया की तमाम बड़ी ताक़तें इस ख़ूनख़राबे में शामिल हैं। ऐसे में नोबेल पुरस्कार समिति ने ‘शांति’ की खोज कर ली है। यह खोज से ज़ियादा ईजाद ही है। नोबेल समिति को किसने, कैसे मजबूर किया है, इन फ़ाइलों के खुलने का इंतज़ार रहेगा। अब ग़ौरतलब यह भी:
इतिहास — पहले और दूसरे विश्वयुद्ध के समय 8 साल ऐसा हुआ कि शांति का नोबेल नहीं दिया गया। कुल 19 बार यह पुरस्कार नहीं दिया गया। युद्ध के समय तो औचित्य ही नहीं था और अन्य मौक़ों के लिए समिति ने कारण दिया किसी क़ाबिल ज़िंदा उम्मीदवार का न होना।
सवाल — युद्ध का समय तो यह भी है और यह तर्क पहले से कहीं ज़ियादा अब उपयुक्त नहीं है?
इतिहास — पहले व दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान युद्ध पीड़ितों को मदद मुहैया करवाने की पहल के लिए रेडक्रॉस को 1917 और 1944 में नवाज़ा गया था।
सवाल — रेडक्रॉस के साथ ही डॉक्टर्स विदाउट बॉर्डर्स, सेव द चिल्ड्रन, वर्ल्ड फ़ूड प्रोग्राम जैसी दर्जनों अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं गाज़ा एवं अन्य युद्ध क्षेत्रों के पीड़ितों की मदद के लिए अब भी हैं। जान पर खेल रहे पत्रकारों, राहतकर्मियों के संगठन भी हैं। इनमें से किसी पर भी नोबेल समिति ने विचार क्यों नहीं किया?
पिछले एक-सवा साल के अध्ययनों/सर्वेक्षणों की पड़ताल बताती है दुनिया में क़रीब पांच दर्जन सशस्त्र संघर्ष चल रहे हैं, यानी दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से सबसे ज़्यादा। 90 से ज़्यादा देश सरहदों पर लड़ रहे हैं। तुर्रा यह कि ये हिंसा इसलिए पेचीदा होती जा रही है क्योंकि सिर्फ़ एक या दो देशों के बजाय कई देश ख़ेमों की तरह जुड़ रहे हैं। 2019 में, इथियोपिया, यूक्रेन, गाज़ा, सभी की शिनाख़्त मामूली संघर्ष क्षेत्रों के रूप में हुई थी, लेकिन अब..! अध्ययनों की मानें तो छोटे-मोटे संघर्षों की बढ़ती संख्या आने वाले समय में और बड़े संघर्षों की आशंका बढ़ाती है।
ऐसे समय में शांति के नोबेल का कोई औचित्य है भी? इन हालात में नोबेल पुरस्कार समिति ने साफ़-साफ़ यह क्यों नहीं बोला, शांति है ही नहीं और शांति की कोशिशें इतनी असरदार नहीं हैं कि नवाज़ी जाएं। एक क़दम और आगे जाकर समिति कहती कि हालात ऐसे ही रहे तो आगे भी यह पुरस्कार नहीं दिया जाएगा। हम बोलेंगे कि वहशी ताक़तों को बड़ी-बड़ी आंख दिखाने के लिए सटीक वक़्त में नोबेल समिति ने आंखें चुरा लीं।

भवेश दिलशाद
क़ुदरत से शायर और पेशे से पत्रकार। ग़ज़ल रंग सीरीज़ में तीन संग्रह 'सियाह', 'नील' और 'सुर्ख़' प्रकाशित। रचनात्मक लेखन, संपादन, अनुवाद... में विशेष दक्षता। साहित्य की चार काव्य पुस्तकों का संपादन। पूर्व शौक़िया रंगमंच कलाकार। साहित्य एवं फ़िल्म समालोचना भी एक आयाम। वस्तुत: लेखन और कला की दुनिया का बाशिंदा। अपनी इस दुनिया के मार्फ़त एक और दुनिया को बेहतर करने के लिए बेचैन।
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ये टेक दिलचस्प है दिलशाद साहब। ये आप ज़रा तफ़्सील से बतलाते कि इस दौर को आप विश्व युद्ध क्यूं कह बैठे…
सवाल आपने सही उठाएं हैं, बस थोड़ा विस्तार और चाहिए था ताकि उसपर थोड़ी बहस हो पाती। ऐसे मुद्दे बहस में लाने की जरूरत है ताकि इसी बहाने पुरस्कार प्राप्ति की होड़ और साजिश का पर्दाफाश किया जा सकता है, जो साहित्य और समाज दोनों को पतनशील बनाये जा रहा है।