
- November 7, 2025
- आब-ओ-हवा
- 1
मानस की कलम से....
बॉलीवुड फिल्मों में पुलिस - हीरो, विलन और...
80 के दशक की पैदाइश होने की वजह से जब भी पुलिस का नाम आता है, हमारे ज़ेह्न में एक डायलॉग गूँज जाता है- “भागने की कोशिश मत करना। हमने तुम्हें चारों तरफ़ से घेर लिया है। भलाई इसी में है कि अपने आपको क़ानून के हवाले कर दो”… और इसके साथ ही इफ़्तेख़ार साहब का चेहरा आँखो के सामने घूम जाता है। इफ़्तेख़ार अहमद शरीफ़, जिन्हें सिर्फ़ इफ़्तेख़ार के नाम से जाना जाता है- हर क़ीमत पर अपने कर्तव्य के प्रति अडिग रहने वाला, नैतिक रूप से सही, एक वफ़ादार पुलिस अधिकारी है। शायद ये वही पुलिस वाले हैं, जिनके लिए माँ बाप अपने बच्चों को कहते हैं, “बदमाशी मत करो वरना पुलिस अंकल ले जाएँगे”। उन्हें पता है उनके बच्चों को इफ़्तेख़ार साहब बेहतर तरीक़े से समझा सकते हैं। ऐसे किरदार निभाया करते थे इफ़्तेख़ार साहब। इफ़्तेख़ार साहब शायद एकलौते पुलिस अधिकारी हैं, जिनकी फ़िल्मों में पदोन्नति भी हुई। वो पुलिस कमिश्नर की पोस्ट तक पहुँचे। वरना हमें पता है CID के अधिकारियों का हाल!
हिंदी फ़िल्मों में पुलिस के किरदार को मुख्यतः तीन तरीक़े से गढ़ा गया है। पहला, जो हिंदी फ़िल्मों का टिपिकल पुलिस कैरिकेचर था- “सब कुछ होने के बाद आख़िर में सायरन बजाते हुए आती पुलिस”। वे आम तौर पर क्लाइमेक्स में बने हाई टेम्पो को बुझाने के लिए आख़िरी रील में आते थे। उनके आते ही हमें लग जाता था कि फ़िल्म वाक़ई ख़त्म हुई और गुंडे अब जेल की हवा खाएँगे। सबको अपने किये की सज़ा मिल गयी। “जेल की हवा” भी इन्हीं पुलिस किरदारों की शब्दावली थी। उस वक़्त पुलिस के किरदार में किस अभिनेता को लेना है, उसका फ़ैसला सबसे आसान होता था क्यूँकि सबके पास बस एक ही नाम होता था- जगदीश राज। यही वजह है कि क़रीबन 144 फ़िल्मों में पुलिस इंस्पेक्टर की भूमिका निभा चुके जगदीश राज का नाम गिनीज़ बुक आफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज है। ये पुलिस वाले ईमानदार तो थे लेकिन हीरो नहीं थे।

इसलिए पुलिस का दूसरा किरदार बनाया गया, जिसमें हीरोइज़म था। इन फ़िल्मों में मुख्य किरदार ही पुलिस का था। वो साहस, वीरता, पराक्रम, पौरुष, करुणा इत्यादि जितनी भी नैतिक मूल्य हो सकते हैं, सबसे भरा होगा। क्योंकि वो पुलिस के साथ-साथ फ़िल्म का हीरो भी है। उसके अंदर एक पैसे की कमी नहीं होगी। इस तरह से पुलिस, एक चरित्र कलाकार से मुख्य कलाकार बन गया और परदे पर आये- विक्रम सिंह राठौड़, सिंघम, सिंबा और चुलबुल पांडे। ‘larger then life’ इमेज लिये हुए इन पुलिस वालों को देखने के पुलिस के लिए सीटियाँ बजने लगी। ये पुलिस वाले स्टाइलिश भी थे। रोहित शेट्टी ने तो ‘कॉप यूनिवर्स’ ही बना डाला। सिनेमाई आलोचकों की नज़र से देखें तो 70 के दशक से चला एक दौर ‘एंग्री यंग मैन’ छवि के पुलिसिया किरदारों का भी रहा, हालांकि उस ज़माने में कॉप यूनिवर्स जैसी शब्दावली का प्रयोग नहीं हुआ।
इस तरह से हिंदी फ़िल्मों ने पुलिस के दो एक्स्ट्रीम चरित्रचित्रण कर डाले। और इसके बीच पनपा पुलिस का वो तीसरा चरित्र, जो हमारे ज़ेह्न में अंदर तक बैठ गया- पुलिस मतलब घूसखोर, भ्रष्ट, भरोसा न करने लायक़, सिस्टम का सबसे ज़ंग लगा पहिया। इस चित्रण ने हमें पुलिस के प्रति घृणा और डर से भर दिया। या तो आम जनता पुलिस से नफ़रत करती है या उनसे डरती है। ये सिंबा, सिंघम, चुलबुल पांडे और विक्रम राठौड़ भी इस इमेज को नहीं बदल पाये क्यूँकि ये किरदार धरातल से बहुत ऊपर थे।
इन तीनों किरदार ने पुलिस की ऐसी छवि बनायी, जिसे कोई आत्मसात नहीं करना चाहता। कोई भी युवा इनसे प्रभावित हो एक पुलिस अफ़सर नहीं बनना चाहता। लेकिन कुछ किरदार ऐसे बने, जिन्होंने पुलिस बनने के लिए युवाओं को प्रोत्साहित किया। जो पुलिस के वास्तविक चित्रण के अनुरूप थे। उनमें सबसे ऊपर नाम आता है- सरफ़रोश फ़िल्म के अजय सिंह राठौड़ का। इस किरदार में भी एक हीरोइज़म ज़रूर था, लेकिन वास्तविक परिदृश्य में इसे ऐसा गढ़ा गया कि किरदार भी वास्तविक लगने लगा। इसके अलावा गंगाजल के अमित कुमार भी इसी तरह के पुलिस अफ़सर थे।
लेकिन अगर हिंदी सिनेमा में पुलिस के किरदार को वास्तविक रूप से दिखाने का श्रेय किसी को जाता है तो वो है- गोविंद निहलाणी की फ़िल्म, “अर्ध-सत्य” के सब इन्स्पेक्टर अनंत वेलनकर को। पुलिस का इस तरह का वास्तविक किरदार किसी ने नहीं गढ़ा। अगर हम आस-पास किसी पुलिसवाले को देखते हैं तो वो हमें सिंबा, सिंघम, विक्रम या चुलबुल पांडे नहीं, अनंत वेलनकर की तरह मिलता है। इस किरदार के चित्रण का महत्वपूर्ण पहलू ये रहा कि पहली बार पुलिस का किरदार अपने महकमे के अंदर होनी वाली दिक़्क़तों और परेशानियों के साथ-साथ एक वास्तविक समाज और अपनी निजी सोच से घिरा हुआ था
अनंत वेलनकर के रूप में ओम पुरी ने हमें असल पुलिस से रूबरू कराया, जिसके प्रति हमारी संवेदना थी और जो पुलिस की वर्दी में एक इंसान ही था। पहली बार किसी पुलिस के किरदार को बनाने में किरदार की परत और गहराई का ख़याल रखा गया। कमोबेश इससे ही प्रभावित होकर शूल फ़िल्म का पुलिस इंस्पेक्टर, समर प्रताप के रूप में हमें दूसरा शानदार किरदार मिला, जिसे मनोज बाजपेयी ने बख़ूबी निभाया।
इसके अलावा कुछ पुलिस के कुछ ऐसे रूप भी आये, जो असल लोगों पर आधारित है। जैसे, ‘अब तक छप्पन’ के नाना पाटेकर और ‘सहर’ के अरशद वारसी। गैंगस्टर फ़िल्मों में पुलिस अलग रूप में दिखायी देती है। वो “सत्या” फ़िल्म के कमिश्नर अमोद शुक्ला (परेश रावल) और इंस्पेक्टर खांडिलकर (आदित्य श्रीवास्तव), और “नायकन” फ़िल्म के ACP पाटिल (नसार) की तरह कर्तव्यनिष्ठ और ईमानदार होते हैं। या “कम्पनी” फ़िल्म के ‘श्रीनिवासन’ की तरह टैक्टफ़ुल होते हैं। दरअसल ऐसे किरदार फ़िल्म में गैंगस्टर को हीरो बना के पेश किये जाने के इल्ज़ाम को संतुलित करने के काम में आते हैं कि आप कितने भी बुरे और बड़े हो जाओ, अंततः आपका इंतज़ार पुलिस की गोली ही कर रही है। हर बुराई का अंत बुरा ही होता है। (और वो अंत में भी होता है!)

लेकिन पुलिस का जो सबसे दिलचस्प उल्लेख है, वो है- मक़बूल फ़िल्म के इन्स्पेक्टर पुरोहित और पंडित। शेक्सपियर के साहित्य की चुड़ैलों को सिनेमा में पुलिस की छवि में अनूदित करना विशाल भारद्वाज की ही सोच हो सकती है। और जिस तरह से ओम पुरी और नसीर साहब ने इसे निभाया, किरदार को कालजयी बना दिया। चरित्र चित्रण में ‘संक्षिप्त किन्तु महत्वपूर्ण’ रोल अगर किसी को कहेंगे तो वो ये ही थे। “आग के लिए पानी का डर बने रहना चाहिए। शक्ति का संतुलन आवश्यक है।” इस सम्वाद को कौन भूल सकता है?
चूंकि शक्ति का संतुलन आवश्यक है इसलिए पुलिस की उन भूमिकाओं की भी चर्चा करना अनिवार्य है, जिनमें हीरोइज़म का माध्यम बनीं हीरोइनें। व्यावसायिक हिंदी सिनेमा यानी बॉलीवुड में किसी महिला ने पुलिस अफ़सर की भूमिका निभायी हो, ऐसा पहली बार तब हुआ जब अंधा क़ानून में दुर्गा देवी सिंह के रोल में हेमा मालिनी नज़र आयीं। इसके बाद किरण बेदी की लोकप्रियता ने महिला पुलिस के कुछ चेहरे दिखाये। रेखा, डिंपल कपाड़िया और ‘तेजस्विनी’ के रोल में विजया शांति जैसी अदाकाराओं ने छाप छोड़ी। सारे नाम तो नहीं लिये जा सकते, फिर भी कोशिश श्रीदेवी ने भी की थी और चर्चा प्रीति ज़िंटा की भूमिका की भी रही। 21वीं सदी में तो अनेक अभिनेत्रियों जैसे दीपिका पादुकोण, प्रियंका चोपड़ा, रानी मुखर्जी, करीना कपूर, कृति सैनन, रवीना टंडन, शेफाली शाह, सोनाक्षी सिन्हा और तबू आदि ने इन भूमिकाओं से गुरेज़ नहीं किया। ख़ास तौर से ‘मर्दानी’ के लिए रानी मुखर्जी और ‘दृश्यम’ के लिए तबू की भूमिकाओं को देर तक याद रखा जाएगा।
चलते-चलते… TV पर आने वाले क्राइम पेट्रोल का एक ज़रूरी उल्लेख बनता है, जिसने पुलिस की इमेज को बदलने में काफ़ी भूमिका निभायी।

मानस
विवेक त्रिपाठी उर्फ़ मानस पूर्व बैंककर्मी हैं लेकिन फ़िल्मों के जुनून ने नौकरी छुड़वायी और फ़िल्में बनाने की दिशा में प्रेरित किया। आधा दर्जन शॉर्ट फ़िल्में बना चुके मानस की कुछ फ़िल्मों को फ़ेस्टिवलों में सराहना व पुरस्कार मिले हैं। फ़िल्म लेखन व निर्देशन के अलावा मानस का एक कहानी संग्रह 'बालकनी' प्रकाशित है। इन दिनों वह पूरी लंबाई की फ़िल्म के निर्माण के लिए संघर्षरत हैं।
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मज़ेदार रहा पढ़ना!