जयप्रकाश मानस, jaiprakash maanas
कवियों की भाव-संपदा,​ विचार-वीथिका और संवेदन-विश्व को खंगालती इस डायरी का मक़सद प्रकाशन पूर्व पाठक-लेखक संवाद बनाना है...
जयप्रकाश मानस की कलम से....

पूर्वपाठ — एक कवि की डायरी : भाग-20

शंकर छाप कहानी और महेश अनघ

कल रात अचानक महेश अनघ जी की वह चुटकी याद आ गयी— “कन्हैया छाप कहानी से सृष्टि संहार नहीं होता और शंकर छाप कहानी से गाय नहीं चरायी जाती।” उनका यह वाक्य आज भी हिंदी साहित्य के उन ‘मठाधीशों’ पर ऐसा प्रहार करता है, जो कहानी को केवल अपने ‘छाप’ की मोहर समझते हैं।

महेश अनघ— गुना की माटी में रचे-बसे वह रचनाकार जिनकी क़लम में गीत की मधुरता, ग़ज़ल का कसाव और कथा का ठाठ एक साथ बसते थे। सृजन-सम्मान के उस समारोह में जब राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच बैठकर उन्होंने सम्मान ग्रहण किया था, तब भी उनके चेहरे पर वही सहज मुस्कान थी— जैसे कह रहे हों, “यह सब तो बाहरी बाज़ार है, असली सम्मान तो पाठक के हृदय में बसता है।” आज जब कहानी को लेकर ‘छापों’ का झगड़ा फिर सिर उठा रहा है, उनकी यह बात और भी सार्थक लगती है। क्या सचमुच कहानी का मूल्य उसके ‘प्रतिष्ठान’ से तय होता है? या फिर उसकी सच्ची पहचान वह साधारण पाठक है जो किसी गाँव की चौपाल पर बैठकर कहानी पढ़ते हुए अपने जीवन के सत्य ढूँढ़ता है?
स्मरणः
“कथाकार का काम गाय चराना नहीं,
न ही सृष्टि संहार करना है—
बस इतना भर कि
जीवन के उस अँधेरे कोने तक पहुँचे
जहाँ चिराग़ की रोशनी नहीं,
पर टिमटिमाते तारे की उम्मीद ज़रूर बसती है।”
(एक पाठक, जिसे ‘छाप’ नहीं, कहानी का स्वाद याद रहता है।)

स्वर-बूँदें और एक अधूरी तान

समय: शाम का वह पल जब धूप और छाया के बीच स्वर झूलते हैं। आज फ़ेसबुक पर अनुप्रिया देवताले मिल गयीं। उनका नाम देखते ही वह शाम याद आ गयी – रायपुर के संगीत विद्यालय का वह मंच जहाँ उनकी अँगुलियाँ वायलिन पर बरसात की तरह बज रही थीं। छोटी-छोटी स्वर-बूँदें… जैसे कोई नन्ही फुहार हम सबके ऊपर से गुज़र गयी हो।
चंद्रकांत देवताले जी की याद आयी। वे मुझे चाहते थे। भले ही हम सिर्फ़ दो दिन साथ रहे- रायपुर की उस साहित्यिक सभा में। पर क्या कम है दो दिन? कोयल की एक बोल ही तो वसंत को प्रमाणित कर देती है।

उन दिनों देवताले जी ने कहा था- “संगीत और कविता एक ही नदी के दो किनारे हैं।” आज अनुप्रिया के स्वरों में वही नदी फिर बहने लगी-
“स्वर तो वही हैं,
बस बजाने वाले हाथ बदल गये
पर क्या हाथ भी बदलते हैं?
या सिर्फ़ उनकी छाया लंबी हो जाती है?”

14 जून, 2014

एनबीटी और कविता पाठ नेशनल बुक ट्रस्ट के अध्यक्ष/संचालक के दिशाबोध और छत्तीसगढ़ राज्य प्रभारी व संपादक लालित्य ललित की उपस्थिति में राज्य पहली बार आज राजधानी रायपुर में चुनिंदा कवियों का कविता-पाठ संपन्न हुआ, जिसमें विश्वरंजन, गिरीश पंकज, संजय अलंग, जयप्रकाश मानस, कुँवर रवीन्द्र, महेन्द्र कुमार ठाकुर, सुशील भोले, वर्षा रावल, प्रवीण गोधेजा कृष्णधर शर्मा, सुधीर शर्मा, सन्ध्या नलगुंडवार, चेतन भारती, शकुन्तला तरार, अरुणेश कुमार व दिल्ली से पधारे कवि लालित्य ललित आदि ने अपनी कविताओं का पाठ किया। कार्यक्रम की अध्यक्षता आलोचक कवि डॉ. प्रेम दुबे ने की। विशिष्ट अतिथि थे वरिष्ठ लेखक और छत्तीसगढ़ मित्र के संपादक डॉ. सुशील त्रिवेदी।

15 जून, 2014
बेटियाँ
आँगन में चहकती हुईं गौरेया। देखते-ही-देखते पहाड़ हो गयीं। आख़िर एक दिन उन्हें- घोंसले से दूर कहीं खदेड़ दिया गया। लेकिन गयीं कहाँ वे ढीठ! अब वे नदी की तरह उतरती रहती हैं उदास आँखों में पारी-पारी से।

मामा गाँव की धूप और चार पीढ़ियों का साया

आज भांजे की आँखों में वही चमक देखी— गर्मियों की छुट्टियों वाली, नदी-किनारे भीगे हुए क्षणों वाली। मामा गाँव की धूप अब कहाँ? वह धूप जो नाना के आँगन में चार पीढ़ियों के पाँव छूकर सो जाती थी।

एक तस्वीर याद आती है— एक साथ खड़े चार मामा, चार भांजे। जैसे कोई पुरानी नदी अपने ही बहाव में चार किनारे बना बैठी हो। संदीप का मामा मैं, मेरा मामा मदनजी, मदनजी के मामा दशरथजी… यह क्रम किस पुराण से उतरा है? हर पीढ़ी में एक मामा रहता है— एक छाया, एक सहारा, एक ऐसा वृक्ष, जिसकी जड़ें नाना के आँगन तक जाती हैं।

अब कौन जाएगा मामा गाँव? वह गाँव जहाँ रिश्तों की डालियाँ इतनी झुकी होती थीं कि बचपन का कोई भी हाथ उन्हें छू सकता था। अब तो सबके अपने-अपने शहर हैं, अपनी-अपनी स्क्रीनें। मामा गाँव अब एक उजड़ा हुआ मिथक है— जैसे किसी कथा का वह पात्र जिसे याद तो सब करते हैं, पर कोई उसका नाम नहीं लेता।

कभी-कभी लगता है, मामा गाँव अब हमारी हथेलियों की रेखाओं में सिमट गया है। जैसे कोई पुराना गीत जिसके बोल तो याद हैं, पर धुन कहीं खो गयी। फिर भी, जब भांजे हँसते हैं, तो लगता है— कहीं न कहीं, कोई न कोई मामा गाँव अब भी बचा हुआ है। शायद हमारी साँसों में, शायद हमारी नींद में।

16 जून, 2014
जैसे
कविता, खिड़की पर आ गयी अचानक चिड़िया है।

लू शून के घर की धूप और तीन मूछों का साया

आज सुबह से ही मन कहीं और है। शायद वेकियांग में, शायद शाओशिंग के उन पुराने घरों के बीच जहाँ चाय की गंध अभी भी हवा में तैरती है— वही गंध जो हमारे यहाँ परचून की गुमटियों से उठकर सड़कों पर लुढ़क जाती है। बीस अगस्त को हमारा दल चीन जाएगा, पर मैं तो अभी से वहाँ हूँ— लू शून के उस संग्रहालय में, जहाँ दीवारें अब भी उनकी साँसों से गर्म हैं।

वह घर अब इतिहास के पन्नों में सिमट गया है, पर उसकी हर वस्तु जीवित है। प्रवेश-द्वार पर खड़ा होकर लगता है, जैसे लू शून अभी-अभी कहीं गये हैं। शायद काग़ज़ और स्याही लेने, या फिर किसी लेखक मित्र का इंतज़ार करने। भीतर, उनकी पांडुलिपियाँ धूल में नहीं, बल्कि समय में सनी हुई हैं। हर शब्द पर ग़रीबी की परतें चढ़ी हैं, पर वे शब्द आज भी धधकते हैं।

और फिर वह मूँछें— ठोड़ी पर टिकी हुई, विचारों की तरह गहरी। एक पल में मैक्सिम गोर्की याद आते हैं, दूसरे ही पल प्रेमचंद। तीनों की मूँछें एक जैसी क्यों हैं? क्या यह संयोग है या कोई षड्यंत्र? शायद दुनिया के सच्चे लेखकों की मूँछें एक ही होती हैं— जैसे उनके सपने, उनके संघर्ष। गोर्की की तरह जेल की कोठरी में लिखी गयी कहानियाँ, प्रेमचंद की तरह गाँव की मिट्टी से उपजे पात्र, और लू शून की तरह समाज की नब्ज़ पर रखी उँगलियाँ।

रसोई में चूल्हा ठंडा पड़ा है, पर उसकी राख में अभी भी कुछ चिंगारियाँ हैं। शायद वही चिंगारियाँ आज हमारे शब्दों में दहक रही हैं। लू शून ने लिखा था— “अँधेरे को श्राप देने से बेहतर है, एक दीया जलाओ।” और आज यह संग्रहालय वही दीया है— एक ऐसी ज्योति जो न सिर्फ़ चीन, बल्कि हर उस देश को रोशन करती है जहाँ सच लिखना ख़तरनाक होता है।

मैं वहाँ से निकलता हूँ, पर उनकी मेज़ पर रखी क़लम मेरी ओर देखकर मुस्कुराती है। शायद वह जानती है कि मैं फिर आऊँगा— न सिर्फ़ इस संग्रहालय में, बल्कि उनके शब्दों के उस जंगल में भी, जहाँ हर पेड़ के नीचे एक नयी क्रांति सो रही है।
(संदर्भ: लू शून की आत्मकथा “माई ओल्ड हाउस”, मैक्सिम गोर्की की “माई चाइल्डहुड”, और प्रेमचंद के पत्रों में व्यक्त विचार।)

18 जून, 2014
जल है तो नमक है !

जल आदि है। जल अंत भी। जल गृहस्थ है, जल संत भी। जल संधि है। जल विसर्ग भी। जल सतह है। जल स्वर्ग भी। जल पाताल में। जल आकाश में। जल दिशा है। जल दशा है। जल मान है। जल ज्ञान है। विज्ञान भी। संज्ञान भी। जल बैर है। जल प्रीत भी। जल शक्ति है। जल भक्ति भी।

जल पात्र में। जल कूप में। जल खेत में। जल पेट में। जल नदी में। जल रेत में। जल भात में। जल साग में। जल जीभ में। जल स्वाद में। जल है तो नमक है। जल है तो चमक है।

जल है तो आगमन। जल है तो विसर्जन। जल है तो आचमन। जल है तो तर्पण।

जल है तो कल था। जल है तो आज है। जल है तो कल भी। जल है तो है समय। जल है तो है एक लय।

जल छंद है। जल बिम्ब है। जल प्रतीक है। जल रंग है। जल रस है। जल गीत है।

जल है तो धार है। जल है तो मझधार है। जल है तो नाव है। जल है तो पतवार है। जल है तो गवैया। जल है तो खिवैय्या। जल नहीं तो तट कहाँ! जल नहीं तो जल-नट कहाँ! जल है तो रहिमन। जल है तो प्रसाद। जल बिन सब कुछ जैसे कोई अवसाद।

जल है तो ही कमल। जल है तो पनचिरैय्या, जल है तो ही मछलियाँ। जल है तो बंसी फेंकइय्या। जल मूल है। जल मंत्र है। जल गति है। जल यंत्र है।

जल पुण्य है जल पावन है। जल आसाढ़ है जल सावन है। जल को मेरा सदा नमन! जल का भरा रहे चमन!!

19 जून, 2014
स्वाद
स्वाद ख़ुशी का क्यों होता है कडुवा या कसैला ही? कभी मीठा या कभी चटपटा क्यों नहीं होता?

एक लाख मोमेन्टो और माइकलएंजेलो का संदर्भ

श्रीकांत सोनी के हाथों से निकले एक-एक मोमेन्टो पर जब धूप पड़ती है, तो लगता है मानो माइकलएंजेलो का वह वाक्य हवा में तैरने लगता हो– “हर पत्थर के भीतर एक मूर्ति छिपी होती है, कलाकार का काम बस उसे बाहर निकालना होता है।” श्रीकांत भी ऐसे ही किसी पत्थर को तराशते नहीं, बल्कि उसकी आत्मा को मुक्त करते हैं। वह जानता है कि जिस तरह रोडिन की “द थिंकर” मूर्ति विचार की सार्वभौमिक भाषा बन गयी, उसी तरह उसका हर मोमेन्टो किसी सृजन की साक्षी बनने के लिए अभिशप्त है।

जब वह किसी साहित्यिक समारोह में मोमेन्टो सौंपता है, तो लगता है जैसे पिकासो के उस क्षण को दोहरा रहा हो जब उसने गुएर्निका बनाने से पहले कहा था– “कला सत्य की वह धूल है जो हमारी आँखों में चुभती है।” श्रीकांत के मोमेन्टो भी ऐसे ही हैं– कभी नामवर सिंह के हाथों में साहित्य की धूल, तो कभी अशोक वाजपेयी की अलमारी पर कविता की चमक।

और जब कोई उससे पूछता है– “इतने सालों से एक ही काम क्यों?”– तो वह गांधारी की तरह मुस्कुराता है। वह जानता है कि जिस तरह जापान के वाबी-साबी सौंदर्यशास्त्र में दरारें भी पूर्णता का हिस्सा हैं, उसी तरह उसके हर मोमेन्टो में एक अधूरापन है जो उसे और बनाने को प्रेरित करता है। शायद इसीलिए तोल्स्तोय ने कहा था– “कलाकार का कर्तव्य है प्रश्न पूछना, उत्तर देना नहीं।” श्रीकांत भी हर नये मोमेन्टो के साथ एक नया प्रश्न छोड़ देता है– क्या सम्मान का यह प्रतीक वास्तव में उस व्यक्ति के योगदान को समेट पाया है?

इस तरह, एक साधारण सी दिखने वाली यह कला भी उस महान परंपरा से जुड़ जाती है जहाँ फ्रिडा काहलो के आत्मचित्रों की पीड़ा है, वैं गॉग के तारों भरी रात की व्याकुलता है और मुंशी प्रेमचंद की क़लम की सच्चाई है। श्रीकांत सोनी का हर मोमेन्टो इन्हीं की तरह एक मौन गवाह है– सृजन के उस अनवरत संघर्ष का जो न तो कभी शुरू हुआ था, न ही कभी ख़त्म होगा।

क्रमश:

जयप्रकाश मानस, jaiprakash maanas

जयप्रकाश मानस

छत्तीसगढ़ शासन में वरिष्ठ अधिकारी जयप्रकाश मानस की कविताओं, निबंधों की दर्जन भर से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। आपने आधा दर्जन से अधिक साहित्यिक पुस्तकों का संपादन किया है और आपकी कविताओं का अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। यही नहीं, पाठ्यक्रमों में भी आपकी रचनाएं शामिल हैं और अनेक प्रतिष्ठित सम्मानों से आपको और आपकी पुस्तकों को नवाज़ा जा चुका है।

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