rahul gandhi, akhilesh yadav, Stop SIR, protest against SIR, special intensive revision
प्रसंगवश भवेश दिलशाद की कलम से....

एसआईआर के ख़िलाफ़ एक यह एफ़आईआर

             एस.आई.आर… जिसे प्रक्रिया होना चाहिए, उसे नाटक, झमेला या सिरदर्द जैसे नाम मिल रहे हैं। दर्जनों जानें ले चुके सर्वे पर महत्वपूर्ण संगठनों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक बोल रहा है, लेकिन केंद्र सरकार, गृह मंत्रालय और प्रधानमंत्री चुप हैं। सीमा पर जान देने वाले को शहीद कहने, एक सड़क या रेल दुर्घटना के पीड़ितों को श्रद्धांजलि देने में शीर्ष नेता पीछे नहीं रहते, लेकिन ये बीएलओ क्या अपने नहीं हैं! इनकी कोई क़ीमत नहीं है। ये देश के नागरिक ही नहीं हैं या फिर इन्हें डिसओन कर देना ही सिस्टम का चरित्र है। किसी सरकारी थाने में नहीं बल्कि गली, मोहल्ले, सड़क पर अवाम के बीच एफ़.आई.आर. दर्ज करना है।

जयपुर में मुकेश की आत्महत्या के बाद पीड़ित परिवार को सुसाइड नोट का फ़ोटो नहीं लेने दिया जाता। परिवार का दावा है मुकेश ने एस.आई.आर. के जानलेवा दबाव के साथ-साथ नोट में उस अफ़सर का नाम भी दर्ज किया, जो उस पर बेजा दबाव डालकर धमका रहा था कि सस्पेंड कर दिये जाओगे। बंगाल में दो बच्चों की मां रिंकू तरफ़दार ने जो सुसाइड नोट लिखा, उसमें भी अफ़सरों द्वारा भयानक दबाव की बात दर्ज की। ऐसी ही बातें सामने आ रही हैं, चाहे गुजरात में अरविंद भाई वढेर का मामला हो या रोज़ 100 वोटरों का सर्वे न कर पाने के आरोप में मध्य प्रदेश के झाबुआ में सस्पेंड कर दिये गये भुवन के दम तोड़ देने का। सिस्टम के दबाव और ख़ौफ़ का नाक़ाबिले-बर्दाश्त हो जाना सामान्य बात बनकर रह जाएगी?

रिपोर्ट्स हैं कम से कम 25 और विपक्ष के दावे हैं 40 से अधिक ब्लॉक स्तरीय अधिकारियों यानी बीएलओ की मौतें हो चुकी हैं, वजह मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एस.आई.आर. है। इनमें आत्महत्याओं की संख्या पर चौंकिए और पत्थर न हुए हों तो इन बातों पर भी:

  • — चुनाव आयोग अमानवीय नहीं है! सुप्रीम कोर्ट ने सख़्ती नहीं दिखायी पर कहा कि आयोग को संवेदनशील तो होना ही चाहिए जबकि आत्महत्याओं और एस.आई.आर. के दबाव में हो रही मौतों को ख़ारिज करना ही आयोग ने रणनीति बना ली है।
  • — एक महीने के भीतर तक़रीबन सवा सौ करोड़ वोटरों का पुनरीक्षण करने के पीछे तर्क क्या है, स्पष्ट नहीं है। वोटर अलग परेशान हैं और बीएलओ के सिर आफ़त का पहाड़।
  • — जबकि स्कूलों में छमाही और वार्षिक परीक्षाओं के लिहाज़ से महत्वपूर्ण समय है, तब लाखों की संख्या में शिक्षकों को इस अतिरिक्त काम में अचानक क्यों झोंक दिया गया? वह भी कोई ट्रेनिंग, काउंसिलिंग, पर्याप्त समयसीमा के बग़ैर। उस पर ज़िल्लत भरा बर्ताव और डराना-धमकाना अलग।
  • — आज़ाद देश में अब तक 13 बार एस.आई.आर. का काम चुनाव आयोग ने करवाया है, पहले कभी इतना वबाल हुआ न इतनी परेशानियां और न आयोग की नीयत और कार्यशैली पर इतना संदेह।

शिक्षा हाशिये पर है। जागरूकता, नैतिकता सब ख़ारिज है। सेंसिबल इंडिया कोई नारा ही नहीं है। डिजिटल इंडिया जैसे नारे इस सर्वे के दौरान ध्वस्त हो रहे हैं। बीएलओ रोज़ तकनीकी समस्याओं से जूझ रहे हैं। डिजिटल इंडिया वाक़ई कोई सच है तो सीधे वोटरों को ही डिजिटली अप्रोच किया जाता, नहीं! साइबर अपराधियों को छोड़ दें तो आम वोटरों, बीएलओ और वरिष्ठ अधिकारियों, सभी की डिजिटल साक्षरता का क्या आंकलन हो सका है? किसे ख़बर है!

वोटरों के मन में कई जिज्ञासाएं हैं। मसलन किसी कारण से यदि फ़ॉर्म नहीं भर पाये तो क्या होगा? जो स्थायी पते पर नहीं हैं, प्रवासी के तौर पर कहीं और काम रहे हैं, उनके फ़ॉर्म भरवाये जाने की क्या व्यवस्था है? वोटर कार्ड न होने पर आधार, पैन, पासपोर्ट, राशन कार्ड जैसे मान्यता प्राप्त दस्तावेज़ दिखाकर वोट डालने के प्रावधान रहे हैं, क्या इस एस.आई.आर. के बाद नहीं रहेंगे? ऐसे कितने ही प्रश्नों पर बीएलओ निरुत्तर दिख रहे हैं। यहां अवतरित होते हैं, वार्ड और ब्लॉक स्तरों पर सक्रिय छुटभैये भाजपाई कार्यकर्ता। इनके जवाब यहां तक हैं कि जिसने फ़ार्म न भरा उसकी आने वाली पीढ़ियां भी कभी वोट नहीं डाल पाएंगी..! सुप्रीम कोर्ट तक भी कुछ न कर पाएगा..!

एस.आई.आर. को लेकर गली-मोहल्लों के भाजपाई कार्यकर्ताओं के पास ये ज्ञान कहां से पहुंच रहा है? चुनाव आयोग ने क्या इन छुटभैयों को वॉलेंटियर बनाया है? या फिर अब तक सोशल मीडिया या आईटी सेल के ज़रिये जो भ्रम, दहशत और तानाशाही फैलायी जाती थी, अब मैदानी अमल के लिए इन बड़बोलों को झोंका जा रहा है? ये बहुत सामान्य इलाक़ाई और जनसांख्यिकीय परिदृश्य हैं, इनमें जाति और संप्रदाय संबंधी कटुता वाले गली-मोहल्लों की तो आप कल्पना ख़ुद ही कर लें कि…

पिछली बार देश में एस.आई.आर. का काम 2003 में, छह महीने में शांति से हो गया था। अब यानी 22 साल बाद यह काम जब हो रहा है, तब तक़रीबन दो युग हो चुके, एक पीढ़ी का फ़ासला तो आ ही चुका। ज़ाहिर है ऐसे में न केवल बीएलओ, इस काम में लगे हर स्तर के व्यक्ति के साथ-साथ वोटरों को भी पहले तो इस सर्वे के बारे में साक्षर किये जाने की ज़रूरत थी और है। सभी के प्रश्नों और जिज्ञासाओं के स्पष्ट उत्तरों से बचकर चुनाव आयोग तानाशाह की तरह यदि इस तरह का सर्वे करवाना चाहता है, तो मंशा से लेकर अमानवीय शैली तक प्रश्न भी उठेंगे ही और शंकाएं भी।

दरअसल चुनाव आयोग पर बिहार चुनाव के दौरान भाजपाई गठबंधन को फ़ायदा पहुंचाने के, वोट चोरी या वोटर लिस्ट में हेराफेरी आदि आरोप लगे, तो आयोग ने अपना ग़ुस्सा देश भर के वोटरों और शिक्षकों व अन्य कर्मचारियों पर उतार दिया और आनन-फ़ानन में एस.आई.आर. को सामान्य प्रक्रिया के बजाए बखेड़ा बना दिया। अब अव्यवस्थाओं की ज़िम्मेदारी लेना तो देश की संस्थाओं के डीएनए में था ही कब, रोना तो इसका कि बेशर्म तानाशाह की तरह आयोग मौतों पर मगरमच्छ के आंसू तक बहाने को राज़ी नहीं।

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उत्तर से दक्षिण और पूरब तक तमाम विपक्षी पार्टियां चुनाव आयोग के फैलाये गये इस वितंडे के ख़िलाफ़ लामबंद दिख रही हैं। गुजरात के प्राथमिक शिक्षकों के फ़ेडरेशन ने चुनाव आयोग से मांग की है कि बीएलओ के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश हों और जिन बीएलओ ने जान गंवा दी है, प्रत्येक परिवार के लिए एक करोड़ रुपये का मुआवज़ा दिया जाये। अन्य प्रदेशों से ऐसी संस्थाओं ने इसी तरह की मांगें रखी हैं। एक करोड़ मुआवज़े की मांग अखिल भारतीय शैक्षिक महासंघ (एबीआरएसएम- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबद्ध संस्था) ने भी की है और एक तल्ख़ पत्र आयोग के नाम लिख डाला है। इस पत्र के बिंदुओं पर ग़ौर कीजिए:

  • बीएलओ पर डाला जा रहा अतिरिक्त भार ‘अनैतिक’ और दिये जा रहे लक्ष्य ‘अवास्तविक’ हैं।
  • तकनीकी सुविधाओं के अभाव में इन्हें रोज़ाना 16-18 घंटे फ़ील्ड और पोर्टल पर काम करना पड़ रहा है।
  • अधिकारी भी बीएलओ के साथ अपनमानजनक बर्ताव कर रहे हैं और वोटरों का ग़ुस्सा भी इन्हीं पर फूट रहा है।
  • जिन मामलों में बीएलओ की जानें गयी हैं, दोषी अफ़सरों पर मुक़दमा चलाकर दंड सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
  • मारे गये बीएलओ के परिवारों को एक करोड़ मुआवज़ा और परिवार में किसी को सरकारी नौकरी दी जाये।
  • इस पूरी प्रक्रिया में जो बर्ताव हो रहा है, वह शिक्षक की गरिमा और शिक्षक समुदाय के सम्मान के विपरीत है।

परसाई का तंज़ था, दिवस कमज़ोरों के मनाये जाते हैं जैसे महिलाओं के, अध्यापकों के। देश शिक्षक दिवस मनाता है और चुनाव आयोग इनकी मौत पर खेद तक नहीं जताता। चाणक्य की गर्वोक्ति भी याद कीजिए, ‘किसी देश का भविष्य शिक्षक के हाथ में खेलता है। शिक्षक अत्याचारी राजतंत्र को ध्वस्त कर सकता है, एक आदर्श राजा बना सकता है।’ कहां है शिक्षकों का यह गौरव? एक बेचारी और कमज़ोर क़ौम बना दिये गये हैं शिक्षक। पूरा सिस्टम इन दर्जनों मौतों से ऐसे मुंह चुराता नज़र आ रहा है जैसे ये कॉलैटरल डैमैज हो, सबके लिए स्वीकार्य हो, जैसे यह दुखद न हो, अनैतिक न हो… यह कौन-सा सिस्टम है? क्या विकसित भारत की शर्त गिरे हुए मूल्य और पिछड़ी नैतिकताएं होंगी?

अब आप बोलिए कि एक जागरूक वोटर की नैतिकता क्या है, दर्जनों लाशों से गुज़र रही प्रक्रिया में वह सहभागी बने? जिस पर दलगत सियासत से प्रेरित होने की शंकाओं के उचित कारण हैं, उस प्रक्रिया में सहयोग करे? विद्रोह के लिए अभी कुछ और मौतों का इंतज़ार करे? या फिर इस सड़े हुए सिस्टम का हिस्सा बनने से खुलकर इनकार करे? एक ज़िम्मेदार नागरिक का फ़र्ज़ क्या यह नहीं कि वह नामाकूल सिस्टम को अनुकूल करने की प्रक्रिया में एक मज़बूत इकाई बने?

भवेश दिलशाद, bhavesh dilshaad

भवेश दिलशाद

क़ुदरत से शायर और पेशे से पत्रकार। ग़ज़ल रंग सीरीज़ में तीन संग्रह 'सियाह', 'नील' और 'सुर्ख़' प्रकाशित। रचनात्मक लेखन, संपादन, अनुवाद... में विशेष दक्षता। साहित्य की चार काव्य पुस्तकों का संपादन। पूर्व शौक़िया रंगमंच कलाकार। साहित्य एवं फ़िल्म समालोचना भी एक आयाम। वस्तुत: लेखन और कला की दुनिया का बाशिंदा। अपनी इस दुनिया के मार्फ़त एक और दुनिया को बेहतर करने के लिए बेचैन।

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