
- November 5, 2025
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महान फ़िल्मकार ऋत्विक घटक की जन्म शताब्दी का भी अवसर है और उनके गुज़रने की अर्धशती का भी। इस समय वे कितने प्रांसगिक हैं, उन्हें क्यों और कैसे याद किया जाये...
ऋत्विक घटक: सिनेमा की एक भाषा का नाम
100 साल पहले 4 नवम्बर 1925 को ढाका (पूर्वी बंगाल) में महान फ़िल्मकार ऋत्विक घटक का जन्म हुआ था। भारतीय फ़िल्म जगत ने जो विश्व स्तरीय कलाकार दिये हैं, उनमें घटक का शुमार रहा है। 1940 के दशक से नयी धारा के सिनेमा से संबद्ध भारत में जिन सिने कलाकारों के नाम उभरने लगे थे, उस शृंखला में भी घटक प्रमुख रहे। सत्यजीत रे और मृणाल सेन के साथ, ऋत्विक घटक ने बांग्ला सिनेमा के माध्यम से हाशिये के लोगों के संघर्षों को न केवल कलात्मक अभिव्यक्ति दी बल्कि इस त्रयी ने दुनिया के महानतम फ़िल्मकारों में अपना नाम दर्ज करवाया।
ऋत्विक घटक ने कभी व्यावसायिक सफलता को तवज्जो नहीं दी शायद इसी कारण उनका सिनेमाई सफ़र संघर्षों से भरा रहा, और जीवन की पगडंडी काँटों से सजी रही। उन्होंने अपनी कला को बाज़ार की नहीं, मनुष्य की पीड़ा और उसकी जिजीविषा की सेवा में अर्पित किया। ग़रीबी वर्षों तक चाहे उनके साथ रही पर सच्चे कलाकार की तरह वे अपने ध्येय से विचलित नहीं हुए। उनकी फ़िल्मों में विभाजित बंगाल का दुःख, स्वतंत्रता के बाद की बेरोज़गारी की कड़वाहट और आम जनमानस के जीवन की कठिन सच्चाइयाँ सजीव हो उठती हैं। उनकी पहली फ़िल्म ‘नागरिक’ उस युवा पीढ़ी की व्यथा कहती है, जो सपनों के टूटने से जर्जर हो चुकी थी। वहीं उनकी प्रसिद्ध फ़िल्म त्रयी —‘मेघे ढाका तारा’, ‘कोमल गान्धार’ और ‘सुवर्णरेखा’— विभाजन के घावों को एक गहन वेदना के साथ उकेरती है।
आलोचक बताते हैं ऋत्विक घटक ने सिनेमा की एक नयी भाषा गढ़ने में अपनी प्रतिभा को झोंका — एक ऐसी भाषा जो मेलोड्रामा की तीव्रता, यथार्थवाद की सादगी, ब्रेष्ट से प्रेरित रंगमंच की चेतना और भारतीय लोकनाट्य की आत्मा, सबको अपने भीतर समेटे हुए थी।
निर्देशक ही नहीं, घटक एक गहरे चिंतक और लेखक के रूप में भी सिनेमा के पीछे की वैचारिकता को बहस में लाने से चूके नहीं। ‘सिनेमा एंड आई’ पुस्तक और अनेक लेखों में उन्होंने सिनेमा के रूप, अर्थ और सामाजिक दायित्व पर चिंतन किया है। कुछ समय उन्होंने भारतीय फ़िल्म और टेलीविजन संस्थान, पुणे में अध्यापन किया और उनकी शिक्षा का प्रभाव और दृष्टि मणि कौल, कुमार शाहनी, अदूर गोपालकृष्णन जैसे फ़िल्मकारों पर नज़र आता रहा। कहा जा सकता है कि ऋत्विक घटक एक फ़िल्मकार ही नहीं, बल्कि भारतीय सिनेमा की आत्मा में बसी एक ज्वाला थे, जिससे कई मशालें जलीं।

वर्तमान की विडंबना है कि ऐसी विरासत के संस्थान और सिनेमा को कलात्मकता और वास्तविकता से पलायन का माध्यम बनाने की कोशिशें की जा रही हैं ताकि अभिव्यक्ति और वैचारिकता को हाशिये पर धकेला जा सके। 6 फरवरी 1976 को संसार से विदा हुए घटक को गये हुए भी 50 बरस पूरे हो रहे हैं इसलिए घटक के कृतित्व और जीवन को याद करना महज़ औपचारिकता नहीं बल्कि एक प्रेरणा है कि कला को सत्ता उपासक न बनाकर जनता के हाथों में मुक्ति का हथियार थमाने की दिशा में बढ़ा जाये। सुब्रत सिन्हा ने ‘हम देखेंगे’ पत्र के लिए एक लेख लिखा है, जिसका अनुवाद मनोज कुलकर्णी ने किया है। इस भूमिका से इस लेख के अंश यहां साभार प्रस्तुत…
ऋत्विक घटक का फ़िल्मों की ओर रुख़
1943 में ‘इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन’ (इप्टा) का जन्म हुआ। कलाओं में एक यथार्थवादी प्रामाणिकता की इसी आकांक्षा के साथ ऋत्विक कुमार घटक (4 नवंबर 1925-6 फरवरी 1976) ने सांस्कृतिक मोर्चे पर बतौर एक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता अपनी यात्रा शुरू की। कभी-कभार प्रकाशित कुछ लघु कथाओं से इतर उनकी शुरूआत रंगमंच के इर्द-गिर्द हुई थी। बतौर एक नाटककार, अभिनेता और निर्देशक। 1943 से 1953 के बीच घटक ने टैगोर के अनेक नाटकों (अचलायतन, डाकघर, नोटीर पूजा) के मंचन में हिस्सा लिया। यह एक ऐसा रिश्ता था, जिसे ‘मैं उनके बिना बात नहीं कर सकता’ कह कालांतर में उन्होंने इसका महत्व स्वीकारा। ब्रेख्त के कुछ अनूदित नाटक ‘खोडिर गंडी’ और ‘गैलीलियो चरित’, ख़ुद अपने कुछ नाटक कालो सायर, दलील, इस्पात, ज्वलंता और ज्वाला और विजोन भट्टाचार्य के ‘कलंक’, ‘नबान्न’ जैसे नाटकों के साथ ता-उस्र उनकी दोस्ती रही आयी।
ठीक-ठीक कह सकना मुश्किल है कि इप्टा या उसके सदस्यों ने कब सिनेमा में प्रवेश किया। हालांकि इसकी पहली फ़ीचर फ़िल्म ‘धरती के लाल’ 1946 में प्रदर्शित हुई थी, जिसका निर्देशन ख़्वाजा अहमद अब्बास ने किया था। पटकथा लिखने में बिजॉन भट्टाचार्य ने योगदान दिया था, जबकि शंभु मित्र और तृप्ति मित्र ने अभिनय किया था। भारत और ख़ासकर बंगाल, यानी आज़ादी के बाद के पश्चिम-बंगाल में प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलनों पर इसका असर होना ही था। बंगाल में प्रगतिशील साहित्यिक हस्तियों के सिनेमा में जाने का इतिहास रहा था। 1930 के मध्य में काज़ी नज़रूल इस्लाम ने फ़िल्मों में अभिनय शुरू किया। कल्लोल युग के शैलजानंद मुखोपाध्याय और प्रेमेंद्र मित्र 1940 के दशक की शुरूआत में सिनेमा-क्षेत्र में आये। हालांकि इप्टा द्वारा अपने बैनर तले फ़िल्म निर्माण का भारतीय सिनेमा पर गहरा प्रभाव पड़ा, तब भी इसके कई सदस्य देव आनंद-चेतन आनंद के ‘नवकेतन प्रोडकशन्स’ जैसे अन्य स्वतंत्र निर्माताओं के ज़रिये भी फ़िल्मों में आये। मगर, बंगाली फ़िल्म उद्योग में प्रगतिशील रंग-जगत और सिनेमा के बीच ऐसा संबंध ख़ासा महत्वपूर्ण था।
1940 के दशक के अंत तक इप्टा के अनेक सदस्य विभिन्न भूमिकाओं में फ़िल्मों से जुड़ने लगे थे। ‘जागते रहो / एक दिन रात्रे’ (1956) में निर्देशन के दुर्लभ प्रयास सहित शंभु मिन्र ने बाद में कुछ फ़िल्मों में अभिनय किया। बिजॉन भट्टाचार्य 1946 से स्क्रिप्ट लिखने और अभिनय करने लगे, 1950 में उत्पल दत्त ने ‘माइकल मधुसूदन’ के साथ अपना फ़िल्मी जीवन शुरू किया और अंत तक आते-आते दो सौ फ़िल्मों में अभिनय के अलावा कुछ फ़िल्मों का निर्देशन भी किया। कहा जा सकता है कि बंगाल के साहित्यिक-सास्कृतिक हलक़ों, मसलन कल्लोल समूह या इप्टा, के सदस्यों की बढ़ती उपस्थिति ने फ़िल्मों में एक निर्णायक मोड़ ला दिया। जहां सिनेमा अब ‘वास्तविकता की नक़ल करती छाया की छाया मात्र’ न रहकर सांसारिक जीवन का प्रतिनिधित्व करने वाला एक ज़ोरदार साहसिक रूप बन गया था। नेमाई घोष की ‘छिन्नमूल’ (1950) को याद किया जा सकता है, जो बंगाली फ़िल्मों में सामाजिक यथार्थवाद की ताज़ा हवा लेकर आयी। प्रावदा में जिसकी प्रशंसा पोडवकिन ने की थी। ऐसे ऐतिहासिक और फलते-फूलते सांस्कृतिक वातावरण से ऋत्विक घटक ने फ़िल्मी-क्षेत्र में प्रवेश किया। जो तब तक इप्टा में एक ख्यात सांस्कृतिक कार्यकर्ता थे और जिन पर 1951 में इप्टा की बंगाल शाखा का केंद्रीय सैद्धांतिक दस्तावेज़ तैयार करने का दायित्व रहा था।
‘बेदिनी’ के लिए घटक को निर्देशन की पहली ज़िम्मेदारी मिली। जो ताराशंकर बंद्योपाध्याय की एक लघुकथा पर आधारित थी, जिसमें उन्होंने निर्मल डे की जगह ली थी। 1951 में शुरू हुई इस फ़िल्म की शूटिंग लेकिन पूरी न हो सकी। उनकी बनाई पहली पूरी फ़िल्म ‘नागरिक’ का फ़िल्मांकन और संपादन 1952-53 में हुआ। मगर, वह 1977 में सिनेमाघरों तक पहुंच सकी। अपने निर्माण के पच्चीस बरसों बाद। जब तक कि निर्देशक ही इस दुनिया से जा चुके थे। इसमें वर्ग और लिंग आधारित शहरी जीवन का एक लगभग रोमानी चित्रण था। यह फ़िल्म बदनसीबी के अकल्पनीय झोंकों से निपटने की कोशिश करते, अपने पैतृक घरों से उखड़े, दो परिवारों के बारे में है। जिसकी शुरूआत में ही एक वाचक नदी किनारे की एक बस्ती की पृष्ठभूमि में एक आदर्श और एक आदर्शीकृत नागरिक की तलाश की बात करता है। उसी बात का रानी रॉय का अनुवाद ‘मैं उसे पहचानता हूं, मैंने उसे पहले देखा है। यहां खड़ा है महान शहर, जहां एक अडिग लौह-संरचना तले नदी चुपचाप बहती है, जिसके किनारे-किनारे एक गाथा लुढ़कती है, आंसुओं और मुस्कानों की। जहां, एक और दिन का काम ख़त्म हुआ है और थके हुए लाखों कामगारों के जीवन का सूरज एक बार फिर अस्त हो गया है। आकाश घिरा हुआ है, तारों के जाल से… उसे ऐसे ही आकाश तले देखा है… ऊंचे और नीचे नागरिकों बीच वह एक नागरिक।’
फ़िल्म हालांकि विद्रोही वर्ग-संघर्ष के ज़रिये रोज़मर्रा के जीवन से मुक्ति चाहते एक आदर्श नागरिक की रोमांटिक तलाश को चित्रित करते हुए आधुनिकतावादी संवेदनशील तत्वों को दर्शाती है, ऐसा बंगाली फ़िल्मों में अक्सर नहीं हुआ था। इसी दौरान, गोर्की के ‘लोअर डेप्थ’ पर आधारित एक नाटक ‘निचेर महाल” का अभ्यास करते हुए घटक ने प्रचलित समझ और प्रथाओं के बारे में अपना असंतोष जताते हुए एक और सैद्धांतिक दस्तावेज: ‘ऑन द कल्चरल फ्रंट’ (सांस्कृतिक-मोर्चे पर) लिखकर 1954 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया को सौंपा। उक्त दस्तावेज़ को पार्टी से ज्यादा तवज्जोह नहीं मिली। 1955 में घटक की पार्टी-सदस्यता का नवीनीकरण न किया जाना, घटक के जीवन के एक बेहद स्पष्ट मोड़ को चिह्नित करता है। अगले तीन वर्षों में घटक ने तत्कालीन बिहार राज्य के लिए तीन वृत्तचित्र फिल्माये- ‘आदिवासियों का जीवनसोत’ (1955), ‘बिहार के दर्शनीय स्थान’ (1955) और ‘ओराव’ (1957)।
इसी बीच न्यूयॉर्क के ‘म्यूज़ियम ऑफ़ मॉर्डर्न आर्ट’ में सत्यजित राय की ‘पाथेर पांचाली’ (1955) का वर्ल्ड-प्रीमियर हुआ। जिसने भारतीय फ़िल्मों की पृष्ठभूमि और उनकी वैश्विक स्वीकृति को निर्णायक तौर पर बदल डाला। 1957 में सिनेमाघरों में लगी घटक की पहली फ़िल्म ‘अजांत्रिक’ (द अनमेकेनिकल) एक ड्राइवर-मैकेनिक का रोज़ी-रोटी देने वाली अपनी कार के साथ रिश्ते के ‘मानवीकरण’ की पड़ताल करती है। दो साल बाद घटक ‘बारी थेके पालिये’ (1959) बनाते हैं। एक बाल-फ़िल्म, जो एक नौजवान के शहर के प्रति रोमांच और असंतोष पर आधारित है।
कहा जा सकता है घटक को अपना केन्द्रीय विषय कुछ देर से मिला, जिसके लिए वे सर्वाधिक याद किये जाते हैं, विभाजन और जबरन पलायन का वह मसला उनकी तीसरी या चौथी फ़िल्म ‘मेघे ढाका तारा’ (1960) में दिखायी देता है। मगर, एक बार जब यह उन्हें यह मिल जाता है, तो घटक उसे एक त्रयी में बदल देते हैं। जो सिर्फ़ विषयगत समानता से जुड़ी हैं। जहां ‘मेघे ढाका तारा’ हताश आर्थिक कष्टों के बीच संघर्षरत एक शरणार्थी परिवार की विपदाओं का वर्णन करती है, ‘कोमल गांधार’ (1961) सांस्कृतिक सक्रियता के ज़रिये एक पुनर्परिभाषित और साझा मातृभूमि के अस्तित्व की संभावनाएं तलाशती है और ‘सुबर्णरेखा’ (1962) जबरन विस्थापन और अलग-धलग जीवन पर कहर शुद्धतावाद के नैतिक परिणामों पर सवाल उठाती है। उनकी सिनेमा-त्रयी, बन रहे एक नये देश में पुनर्वास की विकट वास्तविकताओं और फिर कभी उनकी न होने वाली एक निकटस्थ मातृभूमि की दूरस्थ स्मृतियों के बीच विभाजित अस्तित्व का वृत्तान्त रचती है।
…फ़ीचर फ़िल्मों से इतर घटक ने उस्ताद अलाउद्दीन ख़ान (1963), सिविल डिफ़ेंस (1965), ‘साईंटिस्ट्स ऑफ दुमोरो’ (1967), ‘छाऊ डान्स ऑफ पुरुलिया’ (1970) आदि अनेक वृत्तचित्र भी बनाये। लेनिन की जन्म शताब्दी के अवसर पर निर्मित छोटे सी डॉक्यू-फीचर ‘आमार लेनिन’ (मेरा लेनिन, 1970) उस समय भारत में प्रतिबंधित कर दी गयी थी, लेकिन सोवियत-रस में उसे पुरस्कार और प्रशंसा मिली। 1965-66 में पुणे के ‘फिल्म और टेलीविजन संस्थान’ में अपने संक्षिप्त अध्यापन-काल के दौरान घटक ने कुछ डिप्लोमा फ़िल्में भी बनायीं, जहां उन्होंने मणि कौल, कुमार शाहनी, अडूर गोपालकृष्णन और जॉन अब्राहम जैसे अपने छात्रों पर एक अमिट छाप छोड़ी। सबसे दिलचस्प तथ्य यह है कि घटक ने कुछ वृत्तचितत्रों के अलावा पूरी लंबाई वाली कमअज़कम चार फ़ीचर फ़िल्मों (‘बेदेनी’, 1951, ‘कातो अजानारे’, 1959, ‘बगलार बंगदर्शन’, 1964 और ‘रंगीर गोलाम’, 1968) को पूरा करने की कोशिशें कीं और विफल रहे।

…आज बेहद सम्मानित मानी जाने वाली तमाम पूरी-अधूरी सिनेमाई परियोजनाओं से इतर घटक ने अनेक नाटकों, लघुकथाओं, निबधों, रिपोर्ताजों और कई पत्र-पत्रिकाओं को दिये गये साक्षात्कारों की भी एक विरासत छोड़ी है। आज, किसी सामान्य उत्साही के लिए इनमें से कुछ ही कभी-कभार उपलब्ध हो पाते हैं।
…औपनिवेशिक उत्पीड़न के गवाह रहे ऋत्विक घटक ने ख़ुद को उससे लड़ने और बेहद अस्थिर विश्व-व्यवस्था में उभरते एक राष्ट्र-राज्य में शोषितों की चिंताओं को आवाज़ देने में लगा दिया। इन सबके बीच उन्होंने किसी मीनार-शिखर से निहारते हुए कला नहीं रची बल्कि सांसारिक लोगों के रोज़मर्रा के जीवन को, उनके भयानक आघातों और छोटी-छोटी जीतों को बहुत सहानुभूति से देखा और दर्ज किया। अर्धसदी बीत जाने पर राष्ट्र और विश्व, दोनों ही, विभाजनकारी एजेंडों, दमनकारी राज्यों और अधिनायकवादी शासनों की खाई में चक्कर खाते से मालूम देते हैं। यदि सहानुभूति को हम एक मौक़ा देने को तैयार हैं, तो घटक आज, उनके अपने समय से कम प्रासंगिक नहीं लगेंगे।
सोत:
ऋत्विक घटक, पार्टीशन क्वार्टेट I: नागरिक, अनुवाद- रानी रॉय.,
संपादन- इरा भास्कर, नई दिल्ली : तुलिका बुक्स: 20211
ऋत्विक घटक, ऑन द कल्चरल ‘फ्रंट’ (1954), कोलकाता:
ऋत्विक मेमोरियल ट्रस्ट, 20001
ऋत्विक घटक, चलचित्र मामुष एवं आरो किछु, संपादक- संजय
मुखोषाध्याय, कोलकाता: डे’स,2005।
पॉल विलमैन और अन्य., एमसाइक्लोपीडिया ऑफ इंडियन सिनेमा,
नई दिल्ली: ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1998
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बहुत अच्छा आलेख