
- September 12, 2025
- आब-ओ-हवा
- 2
फ़िल्म चर्चा ख़ुदेजा ख़ान की कलम से....
सितारे ज़मीं पर... सबके अलग नॉर्मल से तालमेल का पैग़ाम
फ़िल्म “सितारे जमीं पर” की चर्चा अब भी थमी नहीं है। होना भी चाहिए। सामाजिक सरोकारों की फ़िल्में कम बनती हैं। ख़ासकर उस वर्ग के लिए जिन्हें समाज मुख्यधारा से काटकर रखता है। जाने कैसी मानसिकता है जिन लोगों को सबसे अधिक सहिष्णुता व सहानुभूति की आवश्यकता होती है, उन्हें ही अलग-थलग करके उपेक्षा का शिकार बना दिया जाता है।
डाउन सिंड्रोम, ऑटिज़्म स्पेक्ट्रम, ट्राईसोमी सिंड्रोम, विज़ुअल इम्पेयरमेंट (दृष्टिदोष) जैसे डिसएबल बच्चों को लेकर बनाया गया एक “सोशल स्पोर्ट्स ड्रामा” ‘सितारे ज़मीं पर’ यदि दर्शकों में उनके प्रति संवेदना जगाने में सहायक होता है, तो इसे सोद्देश्य सृजनधर्मिता कहा जाएगा।
इस फ़िल्म को ओटीटी के बजाय एकल व मल्टीप्लेक्स सिनेमाघरों में प्रदर्शित कर यह भी सुनिश्चित किया गया कि यह संदेश आम जनता तक पहुंचे। पता नहीं आम जनता इसे कितना आत्मसात कर पायी, लेकिन मैं अपनी बात करूं तो इस फ़िल्म में सिंड्रोम के अलावा भी जितने किरदार हैं, उनकी अपनी कहानी भी साथ-साथ चलती है।

यह फ़िल्म “तारे ज़मीं पर” का सीक्वल न होकर उसके आगे वयस्कता की ओर बढ़ते इन बच्चों को बास्केटबॉल जैसे खेल के माध्यम से ‘सामान्य जन’ की पंक्ति में ला खड़ा करने की एक सराहनीय कोशिश है। एक ओर तो इस खेल के कोच और डाउन सिंड्रोम बच्चों के बीच रिश्ता बनने का ड्रामा रचा गया है और दूसरी ओर, एक सुंदर कपल होते हुए भी हीरो गुलशन (आमिर ख़ान) हीरोइन सुनीता (जेनेलिया डिसूज़ा) कुछ मुश्किलों से जूझ रहे हैं। गुलशन अपने जीवन के कटु अनुभवों से विचलित होकर पिता बनने से हिचकता है। चूंकि उसके पिता बचपन में छोड़कर चले गये इसलिए उसके मन में एक असुरक्षा की भावना घर कर गयी है कि वो भी अच्छा पिता नहीं बन सकता।
कहानी बढ़ती है तो गुलशन की मां का अफ़ेयर अपने ही बावर्ची के साथ सामने आता है और गुलशन एकाएक स्वीकार नहीं कर पाता। सुनीता कहती भी है, “मां की भी अपनी लाइफ़ है”। लेकिन “मम्मी की कोई लाइफ़ नहीं होती”, गुलशन का यह जवाब समाज की पितृसत्तात्मक मानसिकता को स्वर देता है। यह द्वंद्व अंत तक उसके चेहरे पर दिखता रहता है, हालांकि फ़िल्म हैपी एंडिंग और सकारात्मक नोट पर छूटती है।
“सबका अपना-अपना नॉर्मल है”, यह संवाद डाउन सिंड्रोम बच्चों का अपना नॉर्मल होने का तथ्य सामने लाता है। सामान्य दिखने वाला आदमी भी कहीं न कहीं अपनी मानसिक दुर्बलताओं से जूझता ही है, लेकिन भारत जैसे विकासशील देश की सामाजिक, संकीर्ण संरचना में ‘मेंटल हेल्थ’ पर खुलकर बात नहीं की जाती क्योंकि यहां ‘मानसिक समस्या’ को पागलपन की श्रेणी में रखकर देखा जाता है और यह सामान्य प्रचलित धारणा है।
फ़िल्म के संवाद बताते हैं कि सच यह है हमारी क़िस्मत हथेली पर नहीं क्रोमोसोम्स पर लिखी होती है। 23-23 के जोड़े में हमारे क्रोमोसोम्स होते हैं। यदि एक क्रोमोसोम इधर से उधर हो जाये तो हम डाउन सिंड्रोम से पीड़ित हो जाएं- “गुड फ़ॉर नथिंग” फिर भी फ़िल्म बताती है कि किसी घर में ऐसा एक बच्चा हो भी जाये तो दुख की बात नहीं। ये बच्चे घर को बूढ़ा नहीं होने देते क्योंकि न कहीं ये जा सकते और न आप इन्हें छोड़कर कहीं जा सकते, हाल-चाल पूछने वाले भी आते रहते हैं जिससे घर कभी ख़ाली नहीं होता।
कोच और खिलाड़ी बच्चों के बीच धीरे-धीरे डेवलप होती केमिस्ट्री जताती है कि हम एक दूसरे से बहुत कुछ सीखते हैं। पानी का डर, लिफ़्ट का डर जिनसे अकेले निपटना संभव नहीं, परंतु परस्पर सहयोग से इससे निपटा जा सकता है।
डाउन सिंड्रोम बौद्धिकता का नॉर्मल
बाॅस्केटबाॅल के फ़ाइनल मैच में इन डिसएबल बच्चों की टीम, विरोधी टीम के जीतने पर उन्हीं की तरह ख़ुशियां मनाते हुए कहती है- “हम दूसरे नम्बर पर जीते हैं” यह जुमला कोई नाॅर्मल नहीं कह सकता क्योंकि उनकी नॉर्मेलिटी ने उन्हें प्रोफ़ेशनल बना दिया है। यह वही कह सकता है जो हृदय से निष्कपट और निश्छल हो। इन बच्चों की यही तो विशेषता है। वयस्क होकर भी इनकी बौद्धिक क्षमता 8-8 साल की आयु से अधिक नहीं होती। अंग्रेज़ी चिकित्सक डाॅ. जाॅन लैंगडन डाउन ने 1862 में इस सिंड्रोम का पता लगाया। उन्हीं के नाम पर इसे डाउन सिंड्रोम कहा गया।
फ़िल्म का एक और संवाद महत्वपूर्ण है ‘हमारा हर ख़्वाब पूरा हो ज़रूरी नहीं लेकिन किसी का सपना अधूरा नहीं रहना चाहिए’, यहां “किसी” को अपने साथ जोड़ने, साथ लेकर चलने और उनके प्रति सहिष्णु बने रहने की बात पर प्रमुखता से फ़ोकस किया गया है। और अंत में कोच का कहना- “मैं इनका कोच नहीं, ये मेरे कोच हैं”, “जो सिर्फ़ अपने बारे में सोचते हैं वो दूसरों के बारे में नहीं सोच पाते”, दिल छू लेता है।
आमिर ख़ान प्रोडक्शन की यह फ़िल्म आर.एस. प्रसन्ना द्वारा निर्देशित है। गीत-संगीत, पटकथा के अनुकूल है। आधुनिक तकनीकी युग की संवेदनहीनता में संवेदना को बचाने तथा संवेदनशील बने रहने के प्रयास की इस फ़िल्म को एक मुहिम भी कहा जा सकता है।

ख़ुदेजा ख़ान
हिंदी-उर्दू की कवयित्री, समीक्षक और एकाधिक पुस्तकों की संपादक। अब तक पांच पुस्तकें अपने नाम कर चुकीं ख़ुदेजा साहित्यिक व सामाजिक संस्थाओं से सम्बद्ध हैं और समकालीन चिंताओं पर लेखन हेतु प्रतिबद्ध भी। एक त्रैमासिक पत्रिका 'वनप्रिया' की और कुछ साहित्यिक पुस्तकों सह संपादक भी रही हैं।
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बहुत ही सही और दिल को छू लेने वाली समीक्षा। ख़ुदेजा ख़ान मैडम का द्वारा लिखी हुई चाहे कविता हो, लेख हो यां चाहे किसी किताब यां सिनेमा की समीक्षा, उनके शब्द हमेशा न्याय करते हैं।
अच्छी समीक्षा लिखी ख़ुदेज़ा जी ने ,इनके विचार से हर बार सहमति बन जाती है क्योंकि यह यथार्थ के पक्ष में लिखती है ।
शुभकामना