
- August 27, 2025
- आब-ओ-हवा
- 4
कहानी सूक्ष्म संवेदनशीलता और अभूतपूर्व चित्रात्मकता के कारण प्रभावित करती है। सृजन करने की नैसर्गिक चाह एवं अभिव्यक्ति की इच्छा मिलकर स्वरा के रूप में लेखिका के अंतर्मन से जिस तरह खुलकर बातें करती हैं, उसी के अनुरूप बेलाग बेबाक अबाध प्रवाह में कलम चली है। कहानी में कविता जैसा सतत् बहाव है। - शशि खरे (संपादक-कथा प्रस्तुति)
अनीता श्रीवास्तव की कलम से....
तिड़ककर टूटना
एकांत! तुम्हें ‘इग्नोर’ करना अब ज़रूरी हो गया था.. सच… वरना तुम मेरी आँखों में घुसकर बैठ जाते, फिर जहाँ-जहाँ मैं जाती तुम वहाँ-वहाँ जाते और फ़साद खड़ा करते। आँखें इस तरह किसी का ख़ुद पर काबिज़ होना पसंद नहीं करतीं। आँखें आज़ादी चाहतीं हैं… तब भी जब शेष शरीर अधीन हो, तब भी जब शेष शरीर अचल हो, बल्कि होता तो यहाँ तक है कि एक दिन वे अचल शरीर को एकाएक छोड़ कर अनंत की यात्रा पर निकल जाती हैं। किवाड़ की तरह पलकें खुली छोड़कर। इस तरह, अगर मैं एकांत से पीछा न छुड़ाती, तो उसके आवारा साथी अवसाद और निराशा भी मुझसे मिलने आ जाते। लॉकडाउन के कठिन समय में यह एक चुनौती थी।
अकेलापन अब मेरे अस्तित्व का हिस्सा बन गया था। मैंने उसे एक साथी की तरह स्वीकार कर लिया था और आप जिसे स्वीकार कर लेते हैं, उससे निभ ही जाती है फिर चाहे वो फूल हो या कांटा। साथी, जो मेरे भीतर ही रहते थे, अवसर पाकर प्रकट हो जाया करते थे… मेरी हिफाज़त करने। मैं देख रही थी, बेल के उस दरख़्त को जिसमें अधिक ऊँचाई पर फल लगे थे। सुबह-सुबह जब मैं उठकर बाहर आती, एक–दो बेल मुझे गिरे हुए मिलते। इससे पहले पेड़ की ऊँचाई और उसमें लगे फलों की ओर मेरा ध्यान ही नहीं गया था। मैंने बेल के पेड़ को केवल बेलपत्र के लिए ही याद रखा था। गिरे हुए एक बेल को मैंने हाथ में उठाया, उसकी बाह्य फलभित्ति एक जगह चटख गयी थी। गिरकर चटखी या चटखकर गिरी, मेरे लिए शोध का विषय हुआ! अगर चटख कर गिरा तो ये फल का तिड़कना कहा जाएगा, प्रकीर्णन की प्रक्रिया में ऐसा होता है, जब पके हुए फल भीतर के दबाव के कारण बाहर से फट जाते हैं यानी तिड़क जाते हैं।
जब एकांत से शिकायतें बंद हो गयीं तो मेरे भीतर से नये-नये साथी प्रकट होने लगे। नेपथ्य के पीछे से कलाकार…
स्वरा, “चलो, एक बढ़िया सा गीत बजाओ..”
मैं, “कौन सा”
“वही तुम्हारा पसंदीदा। आशा पारिख पर फ़िल्माया गया… (मुस्कुराते हुए) हूँsss ख़त लिख दे…
गाना बजने लगता है। मैं और स्वरा साथ में गुनगुनाने लगते हैं। मेरे दो कमरे के फ्लैट में स्वर लहरियाँ गूँजने लगतीं हैं। एक नहीं, कई बार गाने को रिपीट करके बजाया गया। वो जो शुरू में दो पंक्तियां हैं। स्वरा कान पर हाथ लगाकर ख़ुद गा उठती है:
अबके बरस भी बीत न जाएँ ये सावन की रातें
देख ले मेरी ये बेचैनी और लिख दे दो बातें
मैं उसका स्वर औऱ अभिनय देख दंग रह जाती हूँ। संगीत बज रहा है। स्वरा हाथ में माइक ले लेती है (अभिनय)। न जाने क्या सूझी, माइक एक किनारे रख दिया, स्वरा नाचने लगती है।
“उफ़्फ़ स्वरा अपनी उम्र का तो ख़याल कर”
मेरी सबसे पुरानी और अंतरंग सखी थी स्वरा। मैंने सबसे ज़्यादा वक़्त उसी के साथ बिताया था। भोर में उठते ही स्वरा भजन छेड़ देती। राम, कृष्ण, शिव के भजन, फिर निर्गुण सत्संगी भजन तो कभी कबीर, रहीम और तुलसी के दोहे। रात सोने से पहले लता दी के रोमांटिक गाने या जगजीत की गज़लें। मैंने स्वरा के साथ कुछ गानों का अभ्यास भी किया।
‘दिल का दिया जला के गया ये कौन मेरी तन्हाई में’, एक दिन मेरे पास खड़े होकर उसने गुनगुनाया, मैं रोटियाँ बना रही थी, चुपचाप। स्वरा का गाना मनमोहक था। अंतिम रोटी सेकते ही उसने फुर्ती में आकर गैस की नॉब घुमा दी। फिर चुटकी बजाकर बोली,
“शुरू हो जा रानी”
एक आज्ञाकारी बच्ची की तरह मैं गा रही थी। मुझे मेरी अनुगूँज सुनायी पड़ रही थी। कमरे की दीवारें, उन तक पहुंच रही स्वर लहरियों को वापिस मुझ तक पहुँचा रही थीं। मैं, फिर हैरान थी। स्वरा की उपस्थिति इतनी दमदार थी कि न दिखते हुए भी वह थी और सशरीर उपस्थित होते हुए भी मैं वहाँ नहीं थी। स्वरा ने मेरी गायकी को रिकॉर्ड किया और मेरी सहेली नीति को भेज दिया। नीति एक अच्छी नृत्यांगना है। स्वरा का उसका मिलन, दोनों को ही आनन्द देता है। मैं इस सबके बीच भूख को भूल चुकी थी।
नीति से देर तक चैट होती रही। रात्रि का एक पहर बीत चुका था। मैं रसोई में जाती हूँ और ताज़े बने भोजन को फिर से गर्म करने लगती हूँ। अब ख़त्म करने के इरादे से इसे खाया जाएगा। स्वरा जा चुकी है। मेरे साथ खा नहीं रही है। खाने के लिए वो रुकी ही नहीं क्योंकि स्वरा को मैंने कभी रोका ही नहीं। वह अपनी मर्ज़ी से… जब जी चाहा आती और जाती रही। मेरे नितांत निजी पलों में आकर मेरा दिल बहलाती रही। मैंने उसे अतिथि जैसा मान नहीं दिया। उसने बुरा नहीं माना। इतनी निकटता थी हम दोनों में, कि उसने भी मेरी ही तरह औपचारिकता को महत्व नहीं दिया। आज सोचती हूँ अगर मैंने स्वरा को मान दिया होता… उसे पाला पोसा होता तो उसे मेरा साथ पाने के लिए एकांत की प्रतीक्षा न करनी पड़ती। स्वरा जीवनपर्यंत मेरे साथ ही रहती और मुझे… सम्भव है… अनन्त तक ले जाती।
दिन भर की थकान मिटाने के लिए मैं कप भर चाय के साथ हूँ। तभी कविता आ जाती है..
“चाय पियोगी”, मैं उसे बगल में बिठाते हुए लोकाचार निभाती हूँ।
हमने चाय आधी-आधी साझा कर ली। कविता को मैं सदा मान देती आयी हूँ। एक अलग धरातल है मेरे उसके रिश्ते का। चाय पीते-पीते मैं उसे देख रही हूँ।
“ठीक हो”, उसने पूछा।
“हूँ”, मेरा छोटा जवाब।
“आज का दिन कैसा रहा?” उसने मेरे कंधे पर हाथ रखा।
मैंने नीचा सिर करके क्या जताना चाहा मुझे याद नहीं। उसने मेरी ठुड्डी को अपनी अंगुलियों के पोरों से नज़ाक़त से छुआ। ख़ाली कप मेरे हाथ से लेकर अलग रख दिया। बोली,
“चलो बाहर, थोड़ा घूम आएं”
मैं उसकी बात का विरोध करने की स्थिति में नहीं थी। वस्तुतः अवरोध मुझमें बचे नहीं थे अब तक। जब अवरोध नहीं होते आपका उत्साह आँखें मूँदकर झपकी लेने लगता है। आप नींद में भी चल सकते हैं। निरुत्साहित, मरे से।
हम दोनों टहल रही हैं। उसने मेरे हाथ में हाथ डाल रखा है। सड़क दूर तक ख़ाली है। कोरोना के संक्रमितों की संख्या में ग्यारह की वृद्धि हुई है। ख़बर लगते ही लोग पहले से ज़्यादा सतर्क हो गये, घरों से निकलना लगभग बंद। इक्का-दुक्का साइकिल, कार या फिर सायरन बजाती प्रशासन की गाड़ी, सड़क के नसीब में आजकल इतना ही है। सड़क के दोनों ओर गुड़हल, कनैर और अमरूद के पेड़ हैं। इन पेड़ों के पीछे दूर तक पेड़ों के झुरमुट हैं। जहाँ लाइन ख़त्म होती है वहाँ एक गुलमोहर भी लगा है। हम चलते-चलते कुछ दूर निकल आये, इतने कि गुलमोहर के नीचे लगी बेंच तक पहुँच गये। वह मुझे बेंच पर बैठने का इशारा करती हुई ख़ुद बैठ जाती है।
“तुम लिखती क्यों नहीं?” उसने हमदर्दी की छुअन वाला अपना हाथ मेरे हाथ से अलग करते हुए पूछा। मुझे उसका यह प्रश्न प्रहार सा लगा। मेरी चेतना ने मुझे सावधान कर दिया। मुझमें ये उत्साह संचरित हुआ कि मैं उत्तर देकर उसे निरुत्तर कर दूँ:
“मन नहीं करता।”
“ग़लत”, उसका लहजा तल्ख हो उठा।
“मैं क्या तुम्हें जानती नहीं।”
उसने साक्ष्य प्रस्तुत करते हुए मेरे कई गीत मेरे ही सामने गुनगुनाये। अब मैं निरुत्तर थी। मैं अपना मुख दूसरी ओर कर लेती हूँ। उसे मुझ पर रहम आ जाता है। मेरे गले में बांहें डालकर वो मुझे कमरे तक ले आती है। कुर्सी पर बिठाती है। कागज़-कलम मेरे हाथ में पकड़ा देती है। मुझे मेज़ की ओर घुमाकर ख़ुद सामने बैठ जाती है। कविता पंक्ति बोलती है, “ख़ाली घर है”…
मैं उसे देखती हूँ। मेरी आँखों में नमी है। मैं पलकें झुकाकर उसे छुपाती हूँ। मुझे अब, धुंधला दिख रहा है। कविता दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ती है…
ख़ाली घर है किसे पुकारें
शोर बहुत करतीं दीवारें!
गेट खुलें तो चीं-चीं करते
ठक-सी होती जब कुछ धरते
मेज़ पड़ी अजगर सी सोयी
कुर्सी अपने-आप में खोयी
हत्थे उसके हाथ पसारें
ख़ाली घर है किसे पुकारें…
पंखा सन्न-सन्न चलता है
हिलता पर्दा भी खलता है
हिले कलेंडर का जब पन्ना
दिन गिनने की जगी तमन्ना
वार-दिवस अब किस पर वारें!
ख़ाली घर है किसे पुकारें…
खिड़की से झाँका करता है
दिन, दिन-भर फाँका करता है
कोई नहीं देता है दाने
हल्ला-गुल्ला झगड़ा ताने
द्वार मौन की वन्दनवारें
ख़ाली घर है किसे पुकारें…
ये किसके हैं कोमल गात
गले में डाल रहे हैं हाथ
मैंने गाकर तुम्हें बुलाया
तुमने मीठी नींद सुलाया
आओ प्यारी नज़र उतारें!
ख़ाली घर है किसे पुकारें…
ये है मेरी बहियाँ गोरी
मम्मी मैं छोटी-सी लोरी
ऐसा कहकर झूम गयी
लोरी माथा चूम गयी
गोद से कैसे इसे उतारें!
ख़ाली घर है किसे पुकारें
शोर बहुत करतीं दीवारें!
कविता बोलती जाती है, मैं लिखती जाती हूँ। इस तरह कविता का आकर जाना बिल्कुल लौकिक व्यवहार था। मैं उसे मान देती और वह मुझे उपहार देकर जाती।
आज मेरी झोली उसके दिये उपहारों से भरी हुई है। मैं जान गयी हूँ स्वरा से कविता का स्वभाव भिन्न है। यद्यपि कविता, स्वरा का साथ यदा-कदा मांगती रहती है, ख़ासकर तब, जब उसे गीत रचने होते हैं। मेरा क्या, मैं तो दोनों से बनाकर रखती हूँ।
इस तरह लॉकडाउन से उपजा अकेलापन बीत रहा है। अपनी इन्ही दो सखियों के बूते, मैं इस चुनौती का सामना कर रही हूँ। आजकल वर्क फ़्रॉम होम का चलन ज़ोरों पर है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की तर्ज़ पर हमारी सरकारों ने भी घर से काम लेने की नीति बना डाली। बच्चों की कक्षाएँ भी ऑनलाइन चल रहीं हैं। मुझे उन्हें ‘फलों में प्रकीर्णन’ पढ़ाना है। निषेचित अंड से फल बनता है जो अपने भीतर बीजों को सहेजे रहता है।
हम सब भी तो फल ही हैं। कितने ही बीजों को अपने में सहेजे हुए। परिपक्व होने पर इन्हीं बीजों से उत्पन्न दबाव के कारण एक दिन इनकी बाह्य भित्ति तिड़ककर टूट जाती है और बीज दूर तक छिटक जाते हैं। जो उर्वरा भूमि तक पहुँच जाते हैं, वे वृक्ष बनकर पुनः फलों से लद जाते हैं… मगर उनका क्या जो उर्वरा भूमि तक नहीं पहुँच पाते!
अगली सुबह। जब मैं उठकर बाहर आती हूँ। मेरे एक हाथ में झाड़ू है। मेरी दृष्टि बेल के ऊँचे वृक्ष पर जाती है। ऐन उसी वक़्त, एक बेल गिरता है। मैं झाड़ू फेंककर उसे लपक लेती हूँ। मगर यह क्या! चटखा हुआ बेल! उसकी भित्ति तिड़क गयी थी। भीतर से उसका चिकना गूदा नरमी और ख़ुशबू के साथ झाँक रहा था। सावन का सोमवार होने के कारण, स्नान के बाद मैं पूजा में शिव जी को वही बेल अर्पण करती हूँ। धूप-दीप प्रज्ज्वलित करती हूँ, “जय शिव ओंकारा..”, मैं आर्तभाव से गाने लगती हूँ। आरती समाप्त हो जाती है। आर्तभाव अभी भी बना हुआ है। मेरे एक ओर स्वरा, दूसरी ओर कविता आकर खड़ी हो जाती हैं। आर्तभाव और अधिक आर्त होता चला जाता है। स्वरा का गला और कविता के शब्द…

अनीता श्रीवास्तव
पेशे से शिक्षक और स्वभाव से कवि, कथाकार, व्यंग्यकार, मंच संचालक, पूर्व रेडियो/टीवी उद्घोषिका। 200 से अधिक रचनाएँ प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। कनाडा से प्रकाशित पाक्षिक वेब पत्रिका 'साहित्य कुंज' में नियमित लेखन। 'तिड़क कर टूटना' शीर्षक से कहानी संग्रह और 'जीवन वीणा' शीर्षक से कविता संग्रह और ‘बचते-बचते प्रेमालाप’ व्यंग्य संग्रह प्रकाशित। यू ट्यूब चैनल 'शब्द वीणा', ब्लॉग 'बत्तोरानी' चर्चित। त्रैमासिक ई-पत्रिका 'साहित्य सरोवर' का संपादन भी।
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कहानी को स्थान देने का आभार। आशा है प्रबुद्ध जन अपनी राय दे कर मुझे मार्गदर्शन देंगे।
बहुत शानदार, आनंद आ गया ।
बहुत सुंदर कहानी है। बधाई कहानीकार को।
नाजुक कहानी, नाजुक मिज़ाज की!