bharat ke padosi desh, भारत के पड़ोसी
हास्य-व्यंग्य आदित्य की कलम से....

विश्वगुरु भारत के पड़ोसी

             पूरे विश्व में भारत का डंका बज रहा है। विश्व के विकसित कहलाने वाले देश वैश्विक मुद्दों पर भारत की प्रतिक्रिया का मुंह जोहते रहते है। भारत के पड़ोसी देश इस उपलब्धि से उसी तरह डाह रखते हैं, जिस तरह मोहल्ले में किसी एक आदमी द्वारा तरक़्क़ी करने पर पूरा मोहल्ला। भारत को प्राचीन काल से अपने दर्शन, विज्ञान और सांस्कृतिक विशेषताओं के कारण विश्वगुरु के रूप में देखा जाता रहा है। क्रीमिया युद्ध में यूक्रेन और रशिया के बीच भारत की मध्यस्थता ने तृतीय विश्वयुद्ध रुकवाया; भारत-पाकिस्तान संघर्ष में पाकिस्तान को नेस्तनाबूद करने के बावजूद अभयदान दिया, यहां तक कि इसका श्रेय ट्रंप के खाते में डालकर उसे नोबेल शांति पुरस्कार की दावेदारी का मौक़ा दिलवाया; फ़िलिस्तीन और ईरान के प्रति सहानुभूति होने के बावजूद तटस्थ होकर इज़राइल के शांति प्रयासों का समर्थन किया; वैश्विक अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुज़र रही है, उसे संबल देने के लिए विदेशों से युद्ध सामग्री चार से पांच गुना ज़्यादा दाम चुकाकर खरीदी; भारतीय आम जनता ने सस्ते क्रूड आइल और गैस का लोभ न करके घरेलू बाज़ार में उसे महंगे दामों पर खरीदकर देशभक्ति का परिचय दिया… ऐसी बहुत-सी घटनाओं के आलोक में आज निर्विवाद रूप से पूरा विश्व भारत को विश्वगुरु के रूप में स्वीकार कर रहा है (ऐसा भारत के मीडिया का मानना है) और मीडिया इस संदर्भ में विश्वपटल पर अन्य देशों की क्या राय है, उसे लेना ज़रूरी नहीं समझता (उसकी परवाह नहीं करता)।

दुर्भाग्य से भारत के पड़ोसी देश हमारी गुरुता का किंचित मात्र भी सम्मान नहीं करते। मज़े की बात यह है कि इनमें से कुछ देशों की उत्पत्ति भारत से ही हुई है और कुछ देश सैकड़ों सालों से भारत की छत्रछाया में रहकर नक्शे पर बने हुए हैं। श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल समय-समय पर भारत विरोध का सुर अलापते रहते है। ऋषियों की धरा के प्रति विद्वेष के परिणाम तो भुगतने ही होंगे.. कुछ अरसे से इन देशों में संकट छाया हुआ है, वहां तबाही का ऐसा मंज़र दिखायी दे रहा है मानो दुर्वासा ऋषि के श्राप से ये देश जल उठे हों। यह जानकर बड़ी हैरानी होती है कि इन देशों में जनता ने महँगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, तानाशाही प्रवृत्ति और लोकतंत्र के पतन के कारण विद्रोह किया। नासमझ बगल में बैठे विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को देखकर भी सबक नहीं ले पाये कि यह सब तो लोकतंत्र की मज़बूती टेस्ट करने के टूल्स हैं, इन छोटी बातों से भला लोकतंत्र ख़त्म होता है..! इन देशों की जनता को ग़ैर-ज़िम्मेदाराना तरीक़ों से सत्ता परिवर्तन के लिए हिंसा का सहारा नहीं लेना चाहिए?

इन देशों को सब कुछ पा लेने की अधीरता है, भारत में भविष्य की योजनाओं और लक्ष्यों के आसरे वर्तमान की ज़रूरतों को होल्ड पर रखने की अद्भुत तरक़ीब का उपयोग किया जाता है, मसलन जिन बदलावों की जनता को दरकार है उसे पाने के लिए हमने सन 2045 का लक्ष्य तय किया है।

छोटे देश छोटी मानसिकता से ग्रसित हैं, यही कारण है वे भारत की ज़रा-ज़रा-सी बातों का बुरा मान जाते हैं। एक हम है कि अमेरिका द्वारा अनेक बार दुत्कारे जाने पर भी उसकी मित्रता का दंभ भरते हैं और ज़रा-सा पुचकार दे तो उसकी तारीफ़ में क़सीदे पढ़ने लगते हैं, जिसके लिए प्रायोजित चारणों को मीडिया में यशगान हेतु पोषित किया गया है। हाल में ख़बर आयी कि नेपाल की जनता ने भारत के चुने हुए पूर्वाग्रह से ग्रसित पोषित मीडियाकर्मियों का स्वागत थप्पड़ों से किया। बांग्लादेश और म्यांमार से अक्सर घुसपैठियों के मुद्दे पर कहा-सुनी होती रहती है लेकिन हमने मानवीय आधार पर उन्हें कभी खदेड़ा नहीं, हम अमेरिका जैसे संकीर्ण हृदय के नहीं हैं। हम तो “सबहिं भूमि गोपाल की” वाली मान्यता पर विश्वास करते हैं। श्रीलंका के चीन के साथ दिन-ब-दिन बढ़ते प्रेम ने भारत के हिन्द महासागर में प्रभाव को चुनौती दे रखी है, समुद्री व्यापार पर भी इसके नकारात्मक प्रभाव पड़ रहे हैं। जब हम ही चीन के गले में हाथ डाले फोटो खिंचवाने में गौरव अनुभव कर रहे हैं, तो पड़ोसियों को किस आधार पर गरियाएं।

मुझे सबसे ज़्यादा नेपाल ने निराश किया है। बहुसंख्य हिन्दू जनसंख्या में तो रामराज्य होना चाहिए था, फिर ये आपसी टकराव किसलिए? इस तथ्य से मैं बहुत क्षुब्ध हूँ कि हिंदू बहुल होकर भी नेपाल के लोग आपसी प्रेम और सौहार्द्र से नहीं रह पा रहे जबकि भारत में इसकी शर्तिया गैरन्टी नुक्कड़ के पान ठेलों से लेकर दिल्ली तक बांटी जा रही है। हमने नेपाल को हमेशा सौतेली माँ के वैधानिक पुत्र की तरह प्यार किया है। उसे अपने घर में आने-जाने, खाने-पीने, काम-धंधा करने की आज़ादी दे रखी है। यहां तक कि उसकी देखभाल की ज़िम्मेदारी भी हमारे ही कंधों पर है। लेकिन, यह छोटा भाई कभी भी हमारी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरा। राजतंत्र के पतन के बाद आज तक कोई पुख़्ता व्यवस्था वहां स्थापित नहीं हो पायी। भारत और चीन के राजनीतिक प्रशिक्षण के बावजूद वहां असमंजस और अस्थिरता की स्थिति बनी हुई है। बहुत कम अरसे में फिर से नेपाल की आब-ओ-हवा स्थापित नेताओं और प्रभावशाली वर्गों के मुफ़ीद नहीं रही है। पृथ्वी पर नेपाल ही एकमात्र उम्मीद थी, जो हिंदू राष्ट्र के सपने को साकार कर सकता था। नेपाल का तो पता नहीं पर भारत के हिंदुओं का एक बड़ा वर्ग नेपाल को हिन्दू राष्ट्र के रूप में देखना चाहता है। फिर वो लोकतंत्र के रूप में हो या राजतंत्र के रूप में।

नेताओं के आश्वासनों, भविष्य के सपनों, धर्म की दुहाई और देशभक्ति के जज़्बे की आड़ में अपनी नाकामी छुपाने वालों से हमारे युवा सस्ता इंटरनेट डेटा और अनलिमिटेड टॉक टाइम मांग कर ही संतुष्ट है। यूट्यूब, व्हाट्सअप और टिकटॉक वाली भारत के उलट नेपाल की जेनरेशन फ़ील-गुड के मोड में नहीं दिखायी देती। नेपाली युवा न केवल सरकार से जवाब मांग रहे हैं बल्कि संतोष न मिलने पर दौड़ा-दौड़ा के हिसाब मांग रहे है।

aditya, आदित्य

आदित्य

प्राचीन भारतीय इतिहास में एम. फिल. की डिग्री रखने वाले आदित्य शिक्षा के क्षेत्र में विभिन्न एनजीओ के साथ विगत 15 वर्षों से जुड़े रहे हैं। स्वभाव से कलाप्रेमी हैं।

1 comment on “विश्वगुरु भारत के पड़ोसी

  1. बहुत कुछ नई जानकारी भी मिली, बहुत खूब बढ़िया व्यंग्य है।

    एक बात है ,आप लिखते हैं बांग्लादेश और म्यांमार के घुसपैठियों को खदेड़ा नहीं — गिनती करने और पहचान करने और वापस भेजा जाएगा यह कहने से भी बहुत सारे मानवाधिकार संगठन और विपक्षी नाराज हो रहे हैं ।

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