
- September 18, 2025
- आब-ओ-हवा
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विश्लेषण और चिंता डॉ. आलोक त्रिपाठी की कलम से....
विज़न 2035: भारत में स्वास्थ्य निगरानी- वरदान या ख़तरा?
भारत ने 4 दिसम्बर 2020 को कोविड महामारी के समय एक योजना- विज़न 2035: पब्लिक हेल्थ सर्विलांस इन इंडिया जारी की, जिसका उद्देश्य था:
- सर्वजन स्वास्थ्य निगरानी– हर नागरिक की बीमारी, टीकाकरण और स्वास्थ्य डेटा को जोड़ना।
- डिजिटल स्वास्थ्य पहचान (Health ID)– यूनिक हेल्थ आईडी से अस्पताल, लैब और दवाओं का रिकॉर्ड एकीकृत करना।
- त्वरित चेतावनी प्रणाली– महामारी या बीमारी के फैलाव को शुरूआती चरण में पकड़ना और रोकथाम करना।
- AI और डेटा आधारित भविष्यवाणी– आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेन्स के ज़रिये बीमारियों के पैटर्न व रिस्क का अनुमान लगाना।
- पर्यावरण व व्यावसायिक स्वास्थ्य शामिल करना– प्रदूषण, कामकाज की स्थिति और जीवनशैली से जुड़ी बीमारियों पर निगरानी।
- वैश्विक मानकों से तालमेल– WHO जैसे अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के साथ मिलकर “पब्लिक हेल्थ एमर्जेन्सीज़ ऑफ़ इंटरनेशनल कंसर्न ” के लिए तैयार रहना।
वैसे तो हर शासन की ज़िम्मेदारी है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, संचार आदि नागरिक मूलभूत सुविधाओं का ख्याल रखे और उसके लिए योजना बनाये। तो प्रश्न यह उठता है कि 2020 की बात पर अब चर्चा की अभी क्या प्रासंगिकता है? इसी वर्ष 2025 में ही WHO ने पैंडेमिक ट्रीटी को पास कराया, जिसका उद्देश्य भविष्य की महामारियों के लिए वैश्विक तैयारी और प्रतिक्रिया को मज़बूत करना है। सीधे शब्दों में एक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक केन्द्रीकृत कंट्रोल रूम बनाना, जिसके बाद इस विज़न 2035 के विभिन्न पहलुओं पर ध्यान देना आवश्यक हो जाता है क्योंकि ये दोनों बातें एक मूल पृष्ठभूमि, COVID 2019 के बाद ही मूर्त रूप में आयी थीं। कोविड क्या था, क्यों था और टीकाकरण के क्या परिणाम हुए ये हम सबको पता है। अतः उस विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है।

अभी यहाँ मैं WHO द्वारा की गयी पैंडेमिक ट्रीटी की बात नहीं कर रहा हूँ क्योकि वो अपने आप में कई सवाल खड़े करती है। मसलन, जब बीमारियां जलवायु और भौगोलिक परिदृश्य पर निर्भर करती हैं तो किस आधार पर ये अन्तरराष्ट्रीय संस्था एक तरह के रोकथाम या उपचार की बात करती है? क्या COVID-19 की तरह फिर किसी अन्य प्रयोग की सम्भावना है? किसी को नहीं पता।
अब आते हैं मूल प्रश्न पर कि इस विज़न की मूलभूत बातें क्या हैं? और हम इनसे कैसे प्रभावित होते हैं?
तो इसे समझने के लिए आप ये समझिए कि इसका वर्तमान स्वरूप कैसे आया और इसमें किस-किसका योगदान है। संक्षेप में यह यूनिवर्सिटी ऑफ़ मैनिटोबा (कनाडा) और नीति आयोग ने मिलकर तैयार किया है। अब प्रश्न यह है कि यूनिवर्सिटी ऑफ़ मैनिटोबा, कनाडा ही क्यों? और क्या भारत में इस तरह के संसथान नहीं है जो इसे कर सकते हैं? इन प्रश्नों के उत्तर तो शीर्ष पदों पर बैठे लोगों के पास ही होंगे। किन्तु यहाँ एक प्रश्न महत्वपूर्ण है और यह चर्चा यहाँ अनिवार्य है।
असुरक्षित सिस्टम और डेटा शेयरिंग!
आपको याद होगा कुछ वर्ष पहले AIIMS का सर्वर हैक हो गया था और पूरे देश में खलबली मच गयी थी कि विदेशियों के पास देश के बड़े लोगों से लेकर आम लोगों का डेटा जा सकता है, जिसके दुरुपयोग होने कि पूरी सम्भावना है। AIIMS हैक (2022) ने दिखाया कि सिस्टम कितना असुरक्षित है। परेशान करने वाला सवाल यह है कि इस बात पर मीडिया में गहन ख़ामोशी है।
एक प्रश्न और भी जो दिमाग़ को परेशान कर रहा है, वह यह कि यह विज़न दस्तावेज़ दिसम्बर 14, 2020 को जारी किया गया था, जबकि इसकी शुरूआत अप्रैल 2020 में हो गयी थी। तब तक भारत में महामारी की स्थिति उतनी भयावह नहीं थी। तब तक भारत में केवल 448 मृत्यु हुई थीं, जिनमें से 75% कोमॉर्बिड जैसे बीमारी से ग्रस्त थे। प्रश्न यह उठता है आख़िर विदेशी विश्वविद्यालय की मदद क्यों ली गयी? क्या भारत में कोई संस्था ऐसी नहीं थी जो ये कर सके? और नहीं थी तो उसे बनाया जाना चाहिए था न कि भारत के नागरिकों का स्वास्थ्य डेटा विदेश के साथ साझा करना चाहिए था। ऐसा क्यों आवश्यक है! इस पर हम बाद में आते हैं परन्तु अभी इस समय मैनिटोबा यूनिवर्सिटी पर थोड़ी बात कर लेते हैं।
विदेशी जुड़ाव: इस यूनिवर्सिटी को सबसे ज्यादा फ़ंडिंग ($450M+) गेट्स फ़ाउंडेशन से मिलती है। वैसे जिन्हें न पता हो, उनकी जानकारी के लिए बता दूँ गेट्स फ़ाउंडेशन से सबसे ज़्यादा दान प्राप्त करने वाली एक संस्था GAVI है, जिसने 2009 में HPV के वैक्सीन का ट्राइल किया था। उसके बाद 7 बच्चियों कि जान गयी और हां, हमेशा की तरह वैक्सीन से उन मौतों का कोई लेना-देना नहीं था। आशानुरूप ही ICMR को उसमें किसी व्यक्ति, या संस्था की कोई ज़िम्मेदारी नज़र नहीं आयी। इस घटना पर संसदीय समिति की रिपोर्ट में काफ़ी कुछ बातें स्पष्ट हैं। उससे भी बड़ा प्रश्न कि किसी मीडिया में भी इस बात से सम्बन्धित कोई जनकारी नहीं है कि वो कहाँ है और कैसे है! यह बात तब और भी महत्वपूर्ण हो जाती है, जब सरकार ज़ोर-शोर से HPV वैक्सीनेशन की बात कर रही है, जिसमें मीडिया भी काफ़ी उत्साहित है।
विदेशी एजेंडा भारतीय प्राथमिकताओं पर हावी होगा?
अतः जब हर नागरिक का स्वास्थ्य रिकॉर्ड यूनिक हेल्थ ID से जुड़ जुड़ जाएगा जो कि मैनिटोबा यूनिवर्सिटी के लिए भी सुलभ होगा, तो कितनी गारंटी है कि इसका दुरुपयोग नहीं होगा? इस डेटा में हर नागरिक की अस्पताल विज़िट, लैब रिपोर्ट, दवाइयाँ और पर्यावरणीय डेटा तक रिकॉर्ड होगा। जैसा कि रिपोर्ट कहती है ये डाटा अनाम होगा परन्तु यह डेटा तो होगा। कितने लोगो को क्या-क्या समस्या है, उनका शरीर किस बीमारी में किस तरह की प्रतिक्रिया करता है, कौन सी बीमारी की आशंका ज़्यादा है… बाक़ी आलोक या परलोक या किसी व्यक्ति के नाम से मतलब नहीं है, 140 करोड़ लोगों के नाम में किसी को कोई दिलचस्पी होगी! हलाकि यह भी बताते चलें कि नामुमकिन नहीं है वेब सर्च से नाम निकाल लेना, वह भी बिल गेट्स के लिए। विशेषज्ञ साबित कर चुके हैं कि अनाम डेटा भी पहचान में बदला जा सकता है।
अतः बिना स्वदेशी मज़बूत इन्फ्रास्ट्रक्चर के इस तरह प्रयास दुष्परिणाम ही लाएंगे, जिससे कई तरह के ख़तरे पैदा हो सकते हैं। जैसे कि प्रोफ़ाइलिंग का औज़ार, बीमा भेदभाव, फ़ार्मा की आमदनी में वृद्धि के लिए नयी योजनाओं का निर्माण तथा और भी बहुत कुछ, जो पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है अभी।
अन्ततः WHO की पैंडेमिक ट्रीटी द्वारा एक केंद्रीकृत कंट्रोल रूम बनाना (WHO को भी बिल गेट्स के द्वारा उदार अनुदान मिलता रहता है), बिल गेट्स का “अनुदान” मैनिटोबा जैसे विदेशी संस्था को और उसका और इस विज़न दस्तावेज़ में सहयोग… ये सब आपको सिर्फ़ एक पैन कार्ड या कोई और कार्ड देने के बजाय कुछ और है। तकनीक तटस्थ है, संस्था या व्यक्ति नहीं और न ही कोई व्यावसायिक तंत्र कभी दान करता है, वो करता है तो बस निवेश। अब ज़रूरत है जागरूकता और जनचर्चा की— क्योंकि यह फ़ैसला सीधे हमारे स्वास्थ्य और निजता से जुड़ा है।

डॉ. आलोक त्रिपाठी
2 दशकों से ज्यादा समय से उच्च शिक्षा में अध्यापन व शोध क्षेत्र में संलग्न डॉ. आलोक के दर्जनों शोध पत्र प्रकाशित हैं और अब तक वह 4 किताबें लिख चुके हैं। जीवविज्ञान, वनस्पति शास्त्र और उससे जुड़े क्षेत्रों में विशेषज्ञता रखने वाले डॉ. आलोक वर्तमान में एक स्वास्थ्य एडवोकेसी संस्था फॉर्मोन के संस्थापक हैं।
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