
- July 31, 2025
- आब-ओ-हवा
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मुंशी प्रेमचंद (31.07.1880-08.10.1936) की जयंती के अवसर पर, प्रेमचंद साहित्य के ऐतिहासिक महत्व पर वैचारिकी...
पंकज निनाद की कलम से....
जब इतिहास ही खो जाये..
इतिहास राजनीति का जनक है, पर राजनीति हमारा वर्तमान और भविष्य। बेहतर भविष्य के लिए बेहतर राजनीति अनिवार्य है इसलिए इतिहास को पढ़ना ज़रूरी है, भले ही वह कितना ही उबाऊ क्यों न लगे। आख़िर इतिहास पढ़ना इतना उबाऊ क्यों लगता है? क्योंकि यह प्रायः रूखा और मानवीय संवेदनाओं से रहित होता है। अब सोचिए, यदि आज़ादी के सौ साल पहले का इतिहास मिटा दिया जाये या कहीं खो जाये? तब शायद प्रेमचंद को पढ़ना ही एकमात्र विकल्प बचेगा। उनके अथाह कथा-सागर में आपको वह इतिहास मिलेगा, जो मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण है।
इतिहास हमेशा राजाओं और शिकारियों का ही लिखा गया है। जंगल में क्या सिर्फ़ शेर ही रहते हैं? हिरण भी तो होते हैं। लेकिन कहानियाँ हमेशा शेरों और शिकारियों की ही लिखी गयीं। प्रेमचंद की महानता यही है कि उन्होंने हिरणों की कहानियाँ लिखीं। उनकी कलम राजाओं की वीरगाथाओं से मुक्त थी। जब वे गोदान में होरी की कहानी लिखते हैं, तो यह पहचानना मुश्किल हो जाता है कि उनकी कलम में स्याही थी या ख़ून-ए-जिगर। कर्ज़ में डूबे होरी का संत्रास हमें अपना-सा लगता है। पूस की रात में जब हल्कू ठंड से ठिठुरता है, तो पाठक की रीढ़ में भी सिहरन दौड़ जाती है। उनकी कहानियों में महाजनों और ज़मींदारों की मक्कारी की चिपचिपाहट हमारे बदन पर महसूस होती है। सद्गति का नायक दुखी, एक दलित, जब उसकी लाश को सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है, और पुलिस के डर से कोई उसे हाथ नहीं लगाता, तब मन व्यथित हो उठता है। जब चील, गिद्ध और गीदड़ उसकी देह को नोचते हैं, तो उनके पंजों और दाँतों के घाव हम अपनी आत्मा पर महसूस करते हैं। यह सही मायने में जंगल के हिरणों की कहानियाँ हैं।
ये कहानियाँ सौ साल पहले लिखी गयीं, जो उस काल की जीवंत दास्तान हैं। यहाँ राजाओं की गौरव-गाथाएँ नहीं, बल्कि उस समय का कड़वा यथार्थ है। एक ऐसा सच्चा इतिहास, जो उन तमाम सूरमाओं की पोल खोल देता है, जिनकी वीरगाथाओं से इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं। इन कथाओं के माध्यम से आप उस अतीत से जुड़ जाते हैं, जो इतिहास में दर्ज नहीं है। क्यों नहीं दर्ज है? क्योंकि कहानियाँ शिकारियों ने लिखीं। यदि हिरणों ने लिखी होतीं, तो इतिहास कुछ और होता। आज़ादी से पहले के सौ सालों के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक हालात प्रेमचंद के साहित्य में स्पष्ट झलकते हैं। उनके साहित्य से पता चलता है कि देश की अधिकांश जनता न केवल गरीबी से जूझ रही थी, बल्कि जातियों के दलदल में आकंठ डूबी थी। धार्मिक कुरीतियों और पाखंडों के गंदे नाले बह रहे थे। साहूकारों, ज़मींदारों और उच्च वर्गों की मक्कारी की उफनती नदियाँ थीं। जहालत की यह अंधेरी सुरंग हज़ारों साल पुरानी थी। यह शोषण मुग़लों के आने से पहले का था। उससे पहले देशी राजाओं का शासन था, जो कम क्रूर नहीं था। ठाकुर, ब्राह्मण, ज़मींदार, सामंत, महाजन, साहूकार— ये हमेशा सत्ता के नुमाइंदे रहे। सत्ता बदलती रही, ये बने रहे। आज भी बने हुए हैं। शोषण का यह कारोबार अनवरत जारी है। जब अंग्रेज़ आये, तो यही लोग उनके वफ़ादार बन गये। उनके काले क़ानूनों का सबसे ज़्यादा लाभ इन्हीं ने उठाया। आम जनता का पहला सामना इन्हीं से होता था। जनता को ग़ुलाम रखने के लिए इनके पास धर्म, जाति, रीति-रिवाजों और परंपराओं की ज़ंजीरें थीं। “फूट डालो और राज करो” की नीति अंग्रेज़ों ने इन्हीं से सीखी। चार वर्णों की व्यवस्था जनता को बाँटने की साज़िश थी। मुग़लों के बाद इसमें धर्म का रंग भी जुड़ गया, जिसका अंग्रेज़ों ने ख़ूब फ़ायदा उठाया।
जब देश आज़ादी की लड़ाई लड़ रहा था, तब यही लोग अंग्रेज़ों के सहायक बने। प्रेमचंद की कहानियों का किरदार मोटेराम शास्त्री याद कीजिए, जो जनता को स्वतंत्रता सेनानियों के ख़िलाफ़ भड़काता था। बाद में यही मोटेराम शास्त्री जैसे लोग कुछ संगठनों, जैसे आरएसएस और हिंदू महासभा के पीछे थे। मुस्लिम लीग भी अंग्रेज़ों के इशारों पर चलने वालों का जमावड़ा थी। इनमें और उनमें अंतर बस दाढ़ी और चोटी का था; चरित्र तो दोनों का एक-सा था।
जब देश आज़ाद हुआ, तो यही लोग कांग्रेस के नुमाइंदे बन गये। आज़ादी से पहले की कांग्रेस और आज़ादी के बाद की कांग्रेस की शक्ल में इसलिए गहरा अंतर है, क्योंकि सत्ता का केवल हस्तांतरण हुआ, पर आम जनता की ग़ुलामी जस की तस रही। जिन लोगों ने कभी सत्ता के गलियारों में अपने हित साधे, वही आज मौजूदा व्यवस्थाओं में विभिन्न रूपों में मौजूद हैं। दलबदल तो जैसे उनके स्वभाव का हिस्सा है। उनका अतीत इतना जटिल और विवादास्पद है कि अब वे इतिहास के पन्नों को बदलने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन उनके सामने प्रेमचंद का विशाल कथा-सागर एक पहाड़ की तरह खड़ा है, जिसे लांघ पाना आसान नहीं। इसलिए अब कुछ लोग प्रेमचंद के चरित्र को बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं।
चरित्र हनन की उनकी परंपरा पुरानी है। पहले बुद्ध पर कीचड़ उछाला गया, फिर महावीर, कबीर, तुलसी, गांधी पर और अब प्रेमचंद पर। परसाई की रचना प्रेमचंद के फटे जूते से हम जान सकते हैं कि प्रेमचंद ने कितने परिश्रम और संघर्षों का सामना किया। लेकिन कुछ लोग उनके इस संघर्ष को झुठलाने की कोशिश कर रहे हैं।
संस्कृत का एक प्रसिद्ध सुभाषित कहता है:
“येषां नोद्यानदेशेषु वृक्षाः सन्ति महाफलाः।
तेषां वन्द्यास्त्वरा मूलास्तेषामाराध्य एवरोम।”
अर्थात, जिनके आँगन में बड़े और फलदायी वृक्ष नहीं होते, उनके लिए अरंडी जैसे तुच्छ झाड़ भी पूजनीय हो जाते हैं। इसका उलट भी उतना ही सत्य है: जिनके आराध्य अरंडी जैसे हैं, वे अपने आँगन में बड़े वृक्ष कभी उगने नहीं देते। लेकिन उन्हें यह नहीं मालूम कि लेखक अपने विचारों से अमर होता है। शरीर दुर्बल हो सकता है, पर विचार हमेशा जीवित रहते हैं। अपनी कहानियों, अपने किरदारों और अपने सच के साथ प्रेमचंद भी हमेशा ज़िंदा रहेंगे।

पंकज निनाद
पेशे से लेखक और अभिनेता पंकज निनाद मूलतः नाटककार हैं। आपके लिखे अनेक नाटक सफलतापूर्वक देश भर में मंचित हो चुके हैं। दो नाटक 'ज़हर' और 'तितली' एम.ए. हिंदी साहित्य के पाठ्यक्रम में भी शुमार हैं। स्टूडेंट बुलेटिन पाक्षिक अख़बार का संपादन कर पंकज निनाद ने लेखन/पत्रकारिता की शुरूआत छात्र जीवन से ही की थी।
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