
- October 15, 2025
- आब-ओ-हवा
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नियमित ब्लॉग मिथलेश राय की कलम से....
कौन था हिन्दी सिनेमा का पहला 'जुबली कुमार'
बरसात बीत चुकी है। अक्टूबर के पहले सप्ताह तक ठंड की आहट मिलने लगी है। बड़े-बूढ़े जिसे गुलाबी ठंड कहते हैं। दीवाली अगले महीने है। तब दशहरा-दीवाली मिलाकर लगभग एक महीने की छुट्टी मिल जाया करती थी, हम लोगों को। वह ज़माना भी कितना सुन्दर था, कोई जल्दी नहीं थी। बड़ी सीधी-सच्ची थी तरक्की की डगर। किसान, मज़दूर दुकानदार, नौकरीपेशा लोगों की आमदनी में कोई ख़ास फ़र्क न था। दीवाली की इस एक महीने की छुट्टी का हमारे लिए बहुत महत्व था, खेती-किसानी से जुड़े लोग इस एक महीने में धान की फसल काटकर गेहूं, चना बो लेते फिर सब फुर्सत। फिर पढ़ाई चालू हो जाती, उधर गेहूं काटते-काटते परीक्षाएं हो जातीं, फिर दो महीने बरसात के पहले की तैयारी, शादी-ब्याह निपट जाते। आज तो तुम लड़कों को छुट्टी भी नहीं मिलती, घर के काम करना तुम लोग क्या सीखोगे।
मैंने देखा सरदार जी रवि, महेश और पिंटू के बीच बैठकर मैदान में सुबह की गुनगुनी धूप में बोलते जा रहे हैं। मैने पूछा “क्या, हुआ सरदार जी?”
“अरे आओ भाई, बस तुम्हारी कमी थी पूरी हुई।”
सरदार दिलीप सिंह जी ने बताया, “बस ऐसे ही कुछ दिन के लिए गांव चला गया था”
“क्यों भाई ये बार-बार गांव क्यों चले जाते हो।”
सरदार जी की बातों में थोड़ी चुहलबाज़ी देखकर मुझे अच्छा लगा।
इधर पास की चाय वाली दुकान पर रेडियो पर, अमीरबाई कर्नाटकी का गाया गीत “हाय रामा मिलके बिछड़ गयीं अखियां” बज रहा है। संग-संग सरदार जी भी धीमे-धीमे मगन हो गाये जा रहे हैं। तभी उन्होंने मुझसे पूछा किस फ़िल्म का गाना है। मैने यूं ही कहा, ‘नदिया के पार’ का और सरदार जी समेत सब लोग हंसने लगे। यह हमारे ज़माने की जुबली कुमार की सबसे प्रसिद्ध फ़िल्म “रतन” का गाना है।
“कौन राजेन्द्र कुमार?”… “नहीं यार ये अब तो सब आज़ादी के बाद के हीरो हैं, हमारा ज़माना ब्लैक एंड व्हाइट सिनेमा का था, तब हीरो हुआ करता था करण दीवान, क्या ख़ूबसूरत आदमी था। तीन भाइयों में सबसे छोटा था। वैसे तो वह पत्रकार था, पर फिर लाहौर से बॉम्बे आया। पहले एक-दो पंजाबी फ़िल्मों में काम किया, लेकिन बाद में उसने हिंदी सिनेमा में वो रंग जमाया कि उसकी कई फ़िल्में सिल्वर जुबली रहीं। सच तो यह है कि हिन्दी सिनेमा का पहला जुबली कुमार करण दीवान ही था।

उस ज़माने में करण दीवान और स्वर्णलता की जोड़ी ख़ूब चली, इसके आलावा नूरजहां, मीना कुमारी, वैजयन्ती माला सभी के साथ उसने काम किया, रतन तो हम लोगों ने कई बार देखी।”
“हम लोग मतलब!” मैने पूछा। “अरे था मेरा एक दोस्त, उसी के कारण मैंने भी देखी। पहले तो मैंने सोचा रतन का रोल करण दीवान का होगा पर फ़िल्म में दीवान का नाम गोविंद है। यह फ़िल्म गानों से सजी फ़िल्म है। सभी गाने अपने ज़माने के हिट गाने थे। नौशाद ने इसमें ज़ोहरा बाई, दीवान, अमीर बाई सभी को गाने के लिए लिया। फ़िल्म की शुरूआत ही सावन के गाने से होती है। फ़िल्म में गोविंद गांव के बनिया का लड़का है और गौरी राजपूत परिवार से है। दोनों बचपन के दोस्त, धीरे-धीरे जब बड़े होते हैं उनमें प्रेम हो जाता है। दोनों शादी करना चाहते हैं किन्तु गौरी की अलग जाति होने के कारण उसकी शादी रतन से हो जाती है, जो अमीर है किंतु गौरी से उम्र में दोगुना है। इधर गोविन्द गौरी की शादी हो जाने से दुखी होकर घर छोड़कर जंगल में घूमता फिरता है। बाद में गौरी उससे मिलने आती है लेकिन वह ज़हर खाकर मर जाता है। अपनी ससुराल लौटते हुए गौरी भी मर जाती है। फ़िल्म प्रेम और सामाजिक व्यवस्था को लेकर बनी है। हालांकि फ़िल्म के अंत में रतन समाज बदलने और नयी रीत चलाने को लेकर एक लंबा स्पीच देता है पर फ़िल्म का नाम ‘रतन’ कुछ जमता नहीं है। वास्तव में, यह लैला मजनूं, शीरीं फ़रहाद की तर्ज़ पर बनी फ़िल्म गोविंद गौरी है। इसके अंत में गौरी एक संवाद भी बोलती है, “जाकर पूरे हिंदुस्तान में कह दो कि कोई गोविन्द गौरी प्रेम न करें।”
इस फ़िल्म को देखने के पीछे करण दीवान और स्वर्णलता की जोड़ी को देखना और “चले जाना नहीं नैन मिलाके सैयां बेदर्दी” गाना तो था ही, पर एक बड़ा कारण बाद में पता चला। वह यह कि मेरा दोस्त बनिया था और उसका भी कहीं चक्कर चल रहा था। बाद में मैंने उससे कहा था, यार फ़िल्म और जीवन में बहुत अंतर है। अब तो वह भी मेरी तरह बूढ़ा हो गया होगा….
ख़ैर, हमारा ज़माना तो करण दीवान का ही था, 1950 के बाद तो उसने अनेक फ़िल्मों में काम किया। उसकी पत्नी का नाम मंजू था। वह भी गायकी और अभिनय की दुनिया में थी, इसी रतन फ़िल्म के बाद दोनों ने शादी की। कहते हैं, साल 1979 में इस पहले जुबली कुमार की मृत्यु हो गयी।”
फिर सरदार जी कुछ तो गाते हुए चल दिये, “हाथ सीने पर रख दो तो करार आ जाये” हम लोग भी उनके पीछे-पीछे मैदान से बाहर आ गये।

मिथलेश रॉय
पेशे से शिक्षक, प्रवृत्ति से कवि, लेखक मिथिलेश रॉय पांच साझा कविता संग्रहों में संकलित हैं और चार लघुकथा संग्रह प्रकाशित। 'साहित्य की बात' मंच, विदिशा से श्रीमती गायत्री देवी अग्रवाल पुरस्कार 2024 से सम्मानित। साथ ही, साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका "वनप्रिया" के संपादक।
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