mitti ke diye, clay lamps
पाक्षिक ब्लॉग भवेश दिलशाद की कलम से....

150 करोड़ दीये जलाने का रिकॉर्ड बन पाएगा?

           शहर के अंधेरे को इक चराग़ काफ़ी है
           सौ चराग़ जलते हैं इक चराग़ जलने से (एहतिशाम अख़्तर)

दीये बालने का मौक़ा फिर आया। हम सतही जगमग, ऊपरी चकाचौंध में ही खोये रहे। एक दीये से सौ जल सकते हैं, शहर का अंधेरा एक दीये से इस तरह दूर हो सकता है। पर हम न तो शहर का प्रतीक समझ पा रहे हैं, न अंधेरे का और न दीये का। यह सब मन के भीतर की, मन की गहराइयों की बातें हैं। अब तो मन की बातें भी इतनी ऊपरी-ऊपरी हो चली हैं कि ओढ़े हुए किसी लबादे भर की बातें बनकर रह जाती हैं।

मन में कहीं गहरे बहुत भेद छुपे हुए हैं। बहुत सारे गुप्त गुनाह। यही वे अंधेरे हैं, जिनसे हमें लड़ना है, उबरना है। ये अंधेरे तब छंटेंगे जब मन के भीतर जो दीप है, उसे रोशन करना मुमकिन हो सकेगा। नहीं, यह किसी पाखंडी बाबा जैसी कोई बात नहीं हो रही है। यह मन का अंधेरा ही हमारे जीवन पर छाया रहता है। बजाय इससे मुक़ाबले के हम हैं कि ‘डेकोरेटिव दीये’ के फेर में रह जाते हैं। बिजली है, स्ट्रीट लाइटें हैं, उस पर बल्बों की झिलमिलाती झालरों से पूरा मकान पाट देना, फिर और एक ईंधन ख़र्च करते हुए तेल और घी के दीयों या मोमबत्तियों की मालाएं सजाना! सूरज को दीया दिखाने वाली कहावत के शिकार आप, आपको नहीं लगता यह उत्सव से कहीं ज़ियादा सुप्तावस्था है? आपके उत्साह का फ़ायदा उठाना है? फ़ायदा उठा कौन रहा है?

भीतर रोशनी करने से ज़ियादा आसान है बाहरी चकाचौंध का जाल। समझने वाले समझते हैं और यही तमाशा चलता रहता है। 26 लाख दीये जलाने का रिकॉर्ड बनाया जाता है। इस रिकॉर्ड के लिए ड्रोन्स और हेलीकॉप्टर लगाये जा रहे हैं, गिनीज़ बुक के लोग गिनती कर रहे हैं कि सच में 26 लाख से ज़ियादा दीये जलाये गये! ज़रा विचार करके देखिए रिकॉर्ड है या तमाशा। कोई पूछ क्यों नहीं रहा कि क्यों? सिस्टम, लोग, संस्थाएं, मीडिया सबके सब चुपचाप हैं। क्या हासिल हुआ इस रिकॉर्ड से? कौन-सा अंधेरा छंट गया?

ये सब मैं इसी उम्मीद पर कह रहा हूं कि आते रहते हैं बेहतर सुनने वाले। जब ये बातें कर रहा हूं तो ख़याल आ रहा है कि इस दौर में इन बातों का समय है भी या नहीं! अंधों के शहर में आईने बेचने वाली बात तो नहीं! क्यूंकि मन के दीये की बात से पहले आती है अपनी आब-ओ-हवा की बात। सीधे समझ में आने वाली बात। रोज़मर्रा की बात। जिस हवा में हमें सांस लेना है, हमारे बच्चों को रहना है, जिस पानी से हमारी नस्लों को आबाद रहना है, हम उत्सव की इसी बाहरी चकाचौंध के नाम पर उस आब-ओ-हवा के साथ बलात्कार करने पर तुले हैं। किसी की सुनने को तैयार नहीं हम।

हमें जानलेवा, कान और आंखें फोड़ने वाले पटाखे इसलिए फोड़ने हैं कि किसी और मज़हब के लोग भी अपने ढंग से अपना त्योहार मनाते हैं। आपने सच में कभी इस तर्क पर सोचा भी है? सोचकर भी आप इस पर अडिग हैं? और इस पर तुर्रा यह कि आप इस तरह मनाये जाते त्योहार को, अपनी करतूतों को ‘पवित्र’ कह पा रहे हैं?

जलते जंगल जैसी रोशन इस बस्ती को समझाओ
नफ़रत वाली आग से दीये नहीं जलाये जाते (भवेश दिलशाद)

नफ़रत वाली आग भड़काना बहुत आसान होता है। भड़काने वाले जानते हैं। आप भड़ककर भिड़ते रहते हैं और भड़काने वाले कुछ और खेल खेलते हैं। मैं जिस न्यूज़रूम में रहा, वहां धीरे-धीरे ‘पॉलिसी’ उस मोड़ तक आ गयी थी कि सत्ताविरोध तो छोड़िए, वह एक शब्द तक वर्जित था, जो सत्ता को मूड के मुताबिक़ न हो। सूचनाओं को छुपाने का खेल चल रहा था। मैं सोचता था हमारे संस्थान के छुपाने से क्या सूचना छुप सकेगी! लेकिन जब कई संस्थान ऐसे हो जाएं तो वाक़ई सूचनाएं छुपायी जा सकती हैं। और फिर जनमानस को भड़काया, उकसाया, वरगलाया, धुंधलाया, चुप कराया और मिटाया जा सकता है।

दीवाली के फ़ौरन बाद जो सूचनाएं आयीं, ध्यान से देखिए। एक यह कि दिल्ली से ज़्यादा प्रदूषित हवा छोटे शहरों में पायी गयी। छोट शहर सच में बड़े गुनहगार हैं या ऐसा प्रदर्शित किया जा रहा है? एक और रिपोर्ट टाइम्स ऑफ़ इंडिया की इस शीर्षक से आयी: Delhi air pollution: At peak hours, data goes blank at many stations; experts raise alarm। माने दीवाली की रात जिस अवधि में सबसे ज़्यादा प्रदूषण फैलने की आशंका रही, कई स्टेशनों पर उस अवधि का डेटा ग़ायब कर दिया गया। तो आप देख रहे हैं सूचना छुपा ली जाएगी, निष्कर्षों और विश्लेषणों में हेराफेरी कर दी जाएगी… कुछ अरसे बाद दिल्ली सरकार दावा कर देगी हवा बेहतर करने का जो काम सालों में नहीं हो पाया, हमने झट कर दिया। देश के मुट्ठी भर अमीर तबक़े के लिए हवा-पानी की फ़िक्र है ही नहीं, शिकार हम-आप ही होंगे।

ऊपरी चकाचौंध में जब तक आप मदहोश हैं, तब तक भीतर ही भीतर और अंधेरा पनपता रहेगा। आप ‘दिव्य’ के नाम पर ‘भव्य’ नज़ारों और नफ़रत के औज़ारों के शिकार बनाये जाते रहेंगे।

चराग़ों के बदले मकाँ जल रहे हैं
नया है ज़माना नयी रौशनी है (ख़ुमार बाराबंकवी)

इन मिसरों में मकान को मकान नहीं पढ़ रहा हूं। ऊपर पहले शेर में शहर की तरह ही यह मकान भी हमारे जीवन, किरदार और हमारे पूरे अस्तित्व की मूरत है, जो जली जा रही है। हम बाहर-बाहर लाखों दीये के रिकॉर्ड में लगे हैं, भीतर-भीतर घुप अंधकार। लकीर के फ़कीर आप लोग जिस तरह चाहें दीये जलाएं, हम तो उस दिन दीवाली समझेंगे जब हिंदोस्तान के तक़रीबन डेढ़ सौ करोड़ दीये रोशन होने का रिकॉर्ड बनेगा! यही क्या दुनिया भर के सवा आठ सौ करोड़ दीये क्यूं नहीं! हम ख़याली ही सही, अनसुने ही सही, चुप भी क्यूं रहें! यह जो नये ज़माने की नयी रोशनी है, इस अंधेरे के ख़िलाफ़ वक़्त-वक़्त पर हम बोलेंगे,​ क्यूंकि

इस उम्मीद पे रोज़ चराग़ जलाते हैं
आने वाले बरसों बाद भी आते हैं (ज़ेहरा निगाह)

भवेश दिलशाद, bhavesh dilshaad

भवेश दिलशाद

क़ुदरत से शायर और पेशे से पत्रकार। ग़ज़ल रंग सीरीज़ में तीन संग्रह 'सियाह', 'नील' और 'सुर्ख़' प्रकाशित। रचनात्मक लेखन, संपादन, अनुवाद... में विशेष दक्षता। साहित्य की चार काव्य पुस्तकों का संपादन। पूर्व शौक़िया रंगमंच कलाकार। साहित्य एवं फ़िल्म समालोचना भी एक आयाम। वस्तुत: लेखन और कला की दुनिया का बाशिंदा। अपनी इस दुनिया के मार्फ़त एक और दुनिया को बेहतर करने के लिए बेचैन।

6 comments on “150 करोड़ दीये जलाने का रिकॉर्ड बन पाएगा?

  1. आदरणीय संपादक जी, सादर अभिवादन।
    संपादक बड़ा गरिमामय शब्द है। पद भी गरिमामय है। इसमें दायित्व और जोखिम दोनों का समन्वय भी है। बुद्धि-बल का प्रकट स्वरूप भी, सो बड़े से बड़ा भी संपादक से उलझने का साहस नहीं करता। जबकि संपादक अपनी सुविधानुसार मनमोहन सिंह अथवा वीरप्पन से मिल और उलझ सकता है।
    मैंने छोटी सी भूमिका केवल उलझन से बचने के लिए बनाई। आपका सम्पादकीय बहुत पसंद आया। पहले एक सौ पचास करोड़ और उसके बाद सवा आठ सौ करोड़ दीए रोशन करने की आपकी कामना को, आमीन !
    भौतिकता की चकाचौंध और पर्यावरणीय चिंता, जो आज के प्रबुद्ध वर्ग का प्रिय विषय है, को आपने भी यथोचित स्थान और सम्मान दिया है। “हमें जानलेवा, कान और आंखें फोड़ने वाले पटाखे इसलिए फोड़ने हैं कि किसी और मज़हब के लोग भी अपने ढंग से अपना त्योहार मनाते हैं।” लिखकर अपनी निरपेक्षता को साधने का सुन्दर प्रयास भी किया है। परन्तु, “इस पर तुर्रा यह कि आप इस तरह मनाये जाते त्योहार को, अपनी करतूतों को ‘पवित्र’ कह पा रहे हैं?” लिखकर सापेक्षता भी प्रकट कर दी । साधुवाद।
    हम भारतवासियों की एक समस्या यह है कि हम भौतिक समस्यायों का हल आध्यात्मिकता में और आध्यात्मिक समस्या का हल भौतिकता में खोजते हैं। एक वर्ग ऐसा भी है जिसके लिए सबकुछ भौतिक है, आध्यात्मिक जैसा कुछ है ही नहीं। कुछ लोग इन्हे नास्तिक तो कुछ लोग वामपंथी कहते हैं, अपनी सुविधानुसार । लेकिन जो आस्तिक हैं, यहाँ आस्तिक का पर्याय दक्षिणपंथी नहीं समझना चाहिए, उन्हें देवासुर संग्राम से लेकर द्वितीय विश्व युद्ध, स्वतंत्रता के बाद और उसके पूर्व के सभी धार्मिक और पंथ-निरपेक्ष आचरणों का पता है। उन्हें यह भी पता है कि गरजने वाले बदल बरसते नहीं हैं। कि पर-उपदेश सबसे सरल और निकृष्ट कार्य है। कि यूक्रेन, गाजा, ईरान आदि में वर्षों से पटाखे जलाए / चलाए जा रहे हैं। दीवाली का उत्सव वर्षों से चल रहा है। कहीं कोई वायु प्रदुषण नहीं हो रहा, कही कोई ध्वनि प्रदुषण नहीं हो रहा। करोड़ों की आत्माएं ज्योतित हो चुकी हैं। यह प्रक्रिया अभी जारी है। संभावना है कि शीघ्र ही यह “पवित्र” कार्य वैश्विक स्तर पर आरम्भ हो जाएगा। और शायद तब आपके सवा आठ सौ करोड़ दीए रोशन होने कि कामना मूर्त रूप ले सकेगी।
    छब्बीस लाख दीयों के जल जाने की सघन व्यथा में मैं आपके साथ हूँ।
    सांत्वना स्वरूप ग़ालिब का एक शेर भेंट करता हूँ….

    इशरते कतरा है दरया में फ़ना हो जाना।
    दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना।

  2. छुपी घातें मीडिया पर , सत्यान्वेषकों पर ,मूल अधिकारों की बात करने वालों पर हमारे लोकतंत्र के सिकुड़ते हुए दायरे की ओर संकेत करती हैं।
    भवेश दिलशाद का हम बोलेंगे अच्छे साहस के साथ लिया गया संकल्प है।

    सभी को एक साथ आगे आकर आवाज उठानी होगी वरना निराशा के गीत तो लिखे ही जा रहे हैं।

    राजनीति में तो चरम सीमा पर गिरावट है ही अब तो कहीं कोई उजाले की किरण दिखाई नहीं देती ।

    ये दिए जलाना राज्य सरकार की ओर से तो सही नहीं था।
    बड़ा दिन आने वाला है क्या मोमबत्तियाँ भी इसी तरह जलाई जायेंगी।

    ” हो चले हैं हम
    अंधेरों के उपासक।

    भोर के हर प्रश्न
    को टाले हुए हैं।

    चुप्पियों ने एक
    सन्नाटा रचा है।
    जब कभी अन्याय की
    तूती बजी है। ”

    राजकुमार राज का गीत

  3. डेकोरेटिव दीयों का फेर!
    क्या कहने!
    150 करोड़ दीये जलाने के रेकॉर्ड बनाने का कॉन्सेप्ट लाजवाब,,,,,
    और दिल्ली की हवा साफ़ करने,,,,,
    डेटा ग़ायब करने,,,,

    क्या ख़ूब तंज़ भी

  4. भावेश जी का शानदार आलेख।
    वाक़ई इस दौर में सच कहने का साहस जुटाना ही सबसे बड़ी चुनौती है। हवा के साथ बह कर जीना सबसे आसान विकल्प है मगर सत्य कहने के साथ सुनने का माद्दा रखना उससे भी दुरूह।

    देश का युवावर्ग, जो ऊर्जा से लबरेज़ होता है किंतु जिसे कभी बुद्धिजीवी वर्ग कहना मूर्खता से कम नहीं रहा, वह कुत्सित राजनीति का टूल बना हुआ है वह जुनून में अपने सारे अधिकार कर्त्तव्यों से इतिश्री करता हुआ सत्ता के चरणों मे लोट रहा है तो मीडिया का भी युवा वर्ग सियासत की गोद में बैठ कर लॉलीपॉप चूसता नज़र आता है।
    मजाल है कि वह सच कहने का साहस जुटा पाए। दूसरी बात यह भी देखने और समझने योग्य है कि जो सत्ता के ख़िलाफ़ लिखने का साहस जुटा रहे हैं,उनके पीछे भी उनका अपना राजनीतिक स्वार्थ नज़र आता है।
    150 करोड़ दीपक जलाने के पीछे एकजुटता का संदेश हो सकता है मगर यह एकजुटता किस कार्य के लिए है? इस जागृत नवचेतना का उद्देश्य क्या है? बेरोज़गार युवाशक्ति का राजनीति द्वारा ऐसा दुरुपयोग अभूतपूर्व और चिंताजनक है। हर घर में एक लीडर पनप रहा है। क्या इसी तरह सोशल मीडिया की झूठी कहानियों और प्रेषित फ़र्ज़ी इतिहास के आधार पर इस देश का भविष्य साधा जाएगा। युवा पठन-पाठन और चिंतन से कोसों दूर है, अब वह कुछ करना ही नहीं चाहता। जो पढ़-लिख कर सरकारी नौकरियाँ करेंगे वो सभी कल इन्हीं नेतागीरी जनित अल्पबुद्धि अलमबरदारों के मातहत होंगे।
    साहित्यकार वर्ग अपनी लेखनी के लिए फिर किसी राजप्रासाद की तलाश में रहेगा, और राजा के विरोध में उठने वाले स्वरों पर पालतू कुत्ते की तरह भौंकने के लिए सदैव तत्पर दिखेगा। वह
    अपने झूठे सम्मानों को पाकर फूला न समाएगा जिस पर तालियाँ बजाने के लिए वह ईमानदार लेखक भी सिर्फ़ इसलिए विवश होगा कि उस पर दुर्भावना और ईर्ष्या भाव के इल्ज़ाम न लगें।

    राजकुमार’राज़’

  5. शशि खरे जी आपने भावना को समझा, शुक्रिया। रंजना जी, ग़ज़ाला जी, राजकुमार जी आपके प्रतिसाद के लिए शुक्रिया। प्रेमचंद जी आपका स्वागत है। आप जिस तरह तंज़ कर रहे हैं, वह सिर्फ़ इसलिए कि आपने सिर्फ़ यही ब्लॉग पढ़ा है। आप मूल भावना नहीं समझ पाये हैं, ऐसा भी नहीं है। बस यह कि आप आब ओ हवा नियमित पढ़िए, कम से कम यह ब्लॉग ही तो आप महसूस कर पाएंगे कि नफ़रत और युद्ध का विरोध इस मंच से समय समय पर, मौक़े मौक़े पर किया जा रहा है… हम सद्भाव, मन और स्नेह से दीये जलाने के पक्ष में हमेशा हैं। कोई शेर क्या अर्ज़ करूं, आपके लिए पूरी ग़ज़ल है, इस लिंक पर देखिए:
    https://aabohawa.org/famous-ghazals-by-ahmad-faraz-vineet-aashna-saleem-sarmad-bhavesh-dilshad/

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