
- July 27, 2025
- आब-ओ-हवा
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महिला कहानीकारों ने लेखन के आकाश की असीमता देख ली है। अब उनके लिए चुने हुए विषय, चुनी हुई भाषा की स्वयं स्वीकृत पाबन्दियां जैसा कुछ भी नहीं है... हिंदी साहित्य की प्रमुख लेखिकाओं के हवाले से लेखन प्रवृत्तियों/योगदानों को लक्ष्य करता निबंध।
शशि खरे की कलम से....
नई कहानी और महिला कथाकार
“आदिकाल से शाश्वत सत्य की कठोरता, हृदय-नितल में छुपे-पले एवं कल्पना की उड़ान भरते हुए भावों को अगणित रंगों में, बहुविध आयामों में, कहानी रूपांकित करती आ रही है, फिर भी नयी की नयी है कहानी।” कहानी जीवन की वेदनाओं-संवेदनाओं से जुड़ी होती है, मन को तृप्ति व आनंद देती है।, मन को तृप्ति व आनंद देती है। अतः महिला सृजनहार रचनाकारों ने तमाम विधाओं में से कहानी को सर्वाधिक पसंद किया है अपनी इच्छाओं, स्वप्नों और चिन्तन की अभिव्यक्ति के लिए।
नयी कहानी में नया क्या है? नई कहानी में कथावस्तु, शिल्प, शैली एवं उद्देश्य भी परिवर्तित हो गये हैं। अब कहानी समाज सुधारक, उपदेशक की व्यास गद्दी से उठकर जीवन के जटिल एवं व्यापक यथार्थ की अभिव्यक्ति है। कल्पना और सुखद अंत प्रधान न होकर सच का सामना करती है तथा विषय वस्तु, शिल्प-शैली, भाषा के मामले में किसी भी पूर्वाग्रह से मुक्त होती है।
आदमी के जीवन में वास्तविकता में न सही, कहानी में तो सुखद अंत होता ही था, जिसकी अभिलाषा श्रोता/पाठक के मन में रहती ही है। कहानी वह जाग्रत स्वप्न होता था, जिसमें समस्याओं का सुलझाव चमत्कारी ढंग से हमेशा सुखद होता था, इस प्रकार वह सदियों तक सबकी प्रिय ज़रूरत बनी रही।
उन्नीसवीं सदी में क्रमशः जाग्रत होते और संगठित होते देश में स्वतंत्रता की मांग विभिन्न कुप्रथाओं से मुक्ति की मांग, रूसी बोल्शेविक क्रांति की चमक से प्रभावित होकर सामाजिक समरसता की मांग, वर्ग भेद समाप्ति की मांग ने एक अलग सर्वथा नवीन वातावरण बना दिया था, तब सहज ही साहित्य पर भी असर पड़ा और कहानी में इनके रंग चढ़ गये।
1956 में भैरवप्रसाद गुप्त के नयी कहानी विशेषांक के साथ ही नयी कहानी का पदार्पण हुआ माना जाता है। जिस तरह समाज व परिवार में बिखराव आया, वैसा कहानी में भी आया। कहानी के स्वरूप में बदलाव समय और समाज के चेहरे के अनुरूप आता रहा।
आज़ादी के बाद मोहभंग का वातावरण बनने लगा। हिंदी कहानी के इतिहास में एक और नये आंदोलन का आरंभ हुआ, जिसे नयी कहानी के नाम से जाना जाता है।
▪️ क्या महिला कहानीकार की कहानियां कहानी जगत में अलग परिचय रखती हैं? अथवा कहानी, कहानी है पुरुष या स्त्री लेखक किसी ने भी लिखी हो।
स्त्री लेखन यह शब्द, यह परिचय सिरे से ही ग़लत है। लेखन क्या है… सपने, इच्छाएं, कल्पनाएं, सार्थक विचारों की अंतर्धारा की अभिव्यक्ति, कुछ रचने, सृजन करने की प्राकृतिक इच्छा, हृदय को कहीं भावासिक्त होकर उड़ेलने की इच्छा, इस रचना प्रक्रिया में क्या स्त्री और क्या पुरुष।
महिला साहित्यकारों ने लिखना आरंभ किया, उस काल की स्त्री अंधकार से बाहर आ रही थी। अतः एकाएक गति संभव नहीं थी। घर-द्वार, रिश्ते, रिवाज, कर्त्तव्य, सेवा, त्याग बहुत कुछ यही विषय, भाषा की मर्यादा के ध्यान के साथ लिखे गये। समय के साथ महिला रचनाकारों ने अपनी कलम की पहुंच को खुला आसमान दिया।
1975 से कुछ साहित्यिक विद्वानों ने हिंदी कहानी में फिर एक नया रूपांतरण देखा। जीवन आदर्शों पर संदेह और प्रश्नचिह्न लगाकर महिला कहानीकारों ने भी घर की चौखट से बाहर निकल कर देश-दुनिया के जटिल एवं व्यापक यथार्थ को अपना लक्ष्य बनाया। स्त्री के आर्थिक, सामाजिक व समानता के अधिकार संबंधी विचारों और परिवर्तनों को महिला रचनाकारों ने नई कहानी का विषय बनाया।
भक्ति की सात्विक, छायावाद की मसृण, लज्जालु संस्कारी भाषा नये विषयों, नये मुद्दों, नयी अवसरवादी मानसिकता का साथ नहीं निभा सकती थी। अतः कथ्य, पात्र, चरित्र, दशा-देश के अनुरूप भाषा, मुहावरे, गालियां सभी को प्रवेश दिया।
▪️ नयी कहानी की महिला रचनाकारों ने भी हिंदी साहित्य के भंडार को भरने में अविस्मरणीय योगदान दिया है:- शशिप्रभा शास्त्री, शिवानी, कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, उषा प्रियवंदा, ममता कालिया, दीप्ति खंडेलवाल, मृणाल पांडे, मृदुला गर्ग, चित्रा मुद्गल, राजी सेठ, मंजुल भगत, सुधा अरोड़ा, सूर्यबाला, चंद्रकांता, नमिता सिंह, उषा किरण खान, जया जादवानी, श्रद्धा थवाईत, सुषमा मुनीन्द्र।
नासिरा शर्मा
नासिरा शर्मा की प्रत्येक कृति का वैचारिक परिदृश्य बहुत विराट है। उनकी कहानियां भी एक उपन्यास का कथ्य रखती हैं। उनकी कहानियों के नारी पात्र अपनी योग्यता और स्वाभिमान से पुरुषों की दुनिया में भी समानता का अधिकार चाहते हैं। नासिरा शर्मा का बेहद चर्चित कहानी संकलन ‘शामी काग़ज़’ पाठक के मन पर गहरी छाप छोड़ता है। उन्हीं के शब्दों में– “अहसास की भूमि पर रचा मेरा यह संकलन ‘शामी काग़ज़’ एक ऐसा दर्पण है, जो ईरानी रंगों से सराबोर होने के बावजूद इंसानी भावनाओं का प्रतीक है। उसमें हर देश, भाषा, रंग का इंसान अपना प्रतिबिंब देख सकता है।”
ईरानी स्त्रियां और ईरानी समाज पर लिखी ये कहानियां एक बार पढ़ने पर भी कभी भुलायी नहीं जा सकतीं। भाषा और कहन ऐसी है कि भाव रंगों में उतर जाते हैं। ‘ख़ुशबू का रंग’
- – “दिन तो वो गिनते हैं जिन्हें साल ख़त्म होने का इंतज़ार होता है” (पेज 12)। “लड़कियों का वजूद क्या है? कैसी होती हैं, क्या वे अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो सकती हैं।”
- — “औरतें कोई लिबास नहीं कि जब चाहे बदल लो।”
शामी काग़ज़ संकलन की अंतिम कहानी की नायिका जैसे एक सदी है। वह अप्रतिम है, शानदार पति, सास ससुर, घर, कुलीनता, समृद्धि सभी कुछ है उसके पास। उसकी दिनचर्या से अज्ञेय की कहानी ‘रोज़’ की याद आती है। ऐसा लगता है कि यह ‘रोज़’ की आगे की कहानी है, जो नासिरा शर्मा ने पूरी कर दी है। रोज़ की मालती घड़याल के घंटे सुनकर कहती है, “फिर ग्यारह बज गये”- एक गहरी उसांस भरती है और जूठे बर्तन समेटने लगती है। नयी कहानी की यह नायिका भी एक मशीन की तरह ज़िम्मेदारी निभाती है– टेबल पर नाश्ता चुनवाती है, बच्चे को स्कूल भिजवाती है, आफिस जाते हुए पति का चुंबन स्वीकार करती है लेकिन उसांस भरकर नहीं बैठ जाती, अंततः घर से निकल जाती है, उस मित्रवत व्यक्ति के गैराज जैसे घर, बेतरतीब चीज़ों में जैसे वह अपना अस्तित्व खोजती है।
लेखिका की कलम बहुत साफ़ दृश्य सामने रखती है। साठ सत्तर वर्ष पहले नायिका का यह फ़ैसला बग़ावत ही तो था। नयी महिला रचनाकारों में भरपूर साहस है।
नमिता सिंह
नमिता सिंह की कहानियों का संसार भी बहुत विस्तृत है। उन्होंने अपने बहुत सहज-सरल अंदाज़ में महिला लेखन के बंधे-बंधाये ढर्रे से हटकर नवीन शिल्प, नवीन विषय-वस्तु को कहानियों को आधार बनाया।
छुटभैय्ये अपराधी नेताओं की बाढ़, साम्प्रदायिकता को फ़ायदे की तरह इस्तेमाल करने की राजनीतिक सोच घटने के बदले दिनो-दिन बढ़ता जातिवाद आदि सभी मुद्दों पर उनकी कहानियों में एक ताकतवर झौंका है, जो पाठक के मन को हिलाकर रख देता है। नमिता सिंह जी के सात कहानी संकलन हैं, दो उपन्यास एवं अनेक संपादित पुस्तकें हैं। 2004–2014 तक हिंदी की श्रेष्ठ पत्रिका ‘वर्तमान साहित्य’ का सफल संपादन किया है।
उन्होंने अपनी कहानियों में सामाजिक राजनीतिक विसंगतियों, हर तरफ़ से पिसता-जूझता मध्यम वर्ग, पुरुष सत्तात्मक व्यवस्था में स्त्री के जागने की सुगबुगाहट एवं स्वयं की पहचान बनाने के प्रयत्न को स्थान दिया है।
‘कर्फ्यू व अन्य कहानियां’ संकलन की कहानी ‘बन्तो’ हिंदी की सर्वश्रेष्ठ कहानियों की पंक्ति में बैठती है। नारी की मूक पशुवत स्थिति की करुणामय प्रस्तुति वाली सैकड़ों कहानियां हैं, किंतु इस कहानी की कहन उसे अद्वितीय बनाती है। कहानी में नमिता सिंह जी की निष्पक्ष-निर्विकार कलमकूची पंजाब के किसी पिण्ड का फ़लक अनेक रंगों से चित्रित करती है। यह गुण कहानी को विशेष प्रभावशाली बनाता है कि पूरी कहानी में एक शब्द नहीं है, जो सामने आकर सूत्रधार की तरह कहे कि बंतो एक निर्जीव वस्तु के समान है, बंतो मूक पशु है। भैंस को खोलकर ले जाने वाले दृश्य में भैंस का चिल्लाना और विरोध दिखाया है परन्तु बंतो का शिलावत रहना, सदियों से गांवों में, शहरों में, निचले वर्गों में, मध्यम वर्गों में दुनिया में हर कहीं जीवन से वंचित रहने वाली स्त्री का एक त्रासद महाकाव्य है।
“जैसा मुर्दा सन्नाटा उसकी कुठड़िया में जमा रहता, वैसा ही मरघट उसके चेहरे पर… सूनी मुर्दार आंखें, कहीं कोई हरकत नहीं।” -(115 पेज)
बंतो की चुप्पी कहानी के प्रत्येक दृश्य में मुख्य होकर अनेक मुखों से बोलती है- घर के सामने से गुज़रती सलीक़े से साड़ी पहनने वाली मास्टरनी, धुंआ उगलती रेलगाड़ी, आकृतियां बदलते बादलों के टुकड़े… कहानी के साथ तमाम दृश्य भावाभिव्यक्ति के लिए सटीक संगत करते हैं और कथाप्रवाह में साथ देते हैं।
पंजाबी घरों में बोली जाने वाली भाषा, कथ्य के रंग गहरे कर रही है- ‘वह गरम रोट्टी लाकर थाली में डाल रही थी’, उत्तर भारत में परोसना, परोस रही थी कहा जाता है। कहानी में एक अन्य महत्वपूर्ण परिवर्तन बड़ी ख़ामोशी से साथ चलता है, बलबीर के ‘स्वभाव में परिवर्तन’, जब वह बंतो को मूल्य चुकाकर ले जा रहा था, वह अपनी मां से अंतिम बार मिलकर चुपचाप साइकिल के कैरियर पर बैठ गयी, भैंस ने तो प्रतिरोध भी किया था पर बंतो गूंगी हो गयी थी। उस समय बलबीर खलनायक लगता है, बाद में बंतो के साथ कोई बुरा व्यवहार नहीं, उसे घर की व्यवस्था सौंपना जैसे समय परिवर्तन का संकेत है– स्त्री का शोषण नहीं, अत्याचार नहीं एवं उसे भी स्थान देना– स्थितियां अपनी गति से बदल रही हैं।
धुंधलकों की क्रमशः समाप्ति की आश्वस्ति देता हुआ कहानी का अंत– ‘जैसे नंबरदार को बिना भैंस खोले वापस दूर तक खदेड़ दिया हो।’
नमिता जी की कहानियां कई रूपों एवं कई स्तरों पर हो रहे परिवर्तनों को लक्ष्य करती हैं। “खुले आकाश के नीचे” में एकदम बदले हुए चरित्र की कहानियां हैं। इन अधिकांश कहानियों में लेखिका, पाठक को परिस्थितिजन्य धुंधलके में, पराजय की ग्लानि में नहीं छोड़ती बल्कि इससे बचे रहकर जीने की एवं आगे बढ़ने की राह दिखाती हैं। वर्तमान समय में कहानी को लेखक निस्पृह भाव से सामने रखते हैं। घटना का, स्थिति का, पात्रों का क्या होगा, यह एक डेल्टा की भांति पाठक के लिए छोड़ दिया जाता है, पाठक अपनी बुद्धि अनुसार विचार करें।
‘खुले आकाश के नीचे’ कहानी में ग्रामीण परिवेश से आया सामान्य नौजवान, अपनी दिनचर्या से लेकर पार्टी के आफिस तक कितने प्रतिरोधों को झेलता है, उपयोग में लाकर छोड़ देने की चालाकी एवं अपने परिश्रम व प्रतिभा के प्रति ईर्ष्या को सहता हुआ मतलबी दुनिया में किस तरह स्वयं को बचाकर रखना चाहिए, इसका अनुभव प्राप्त करता है। बड़ी आदर्शवादी बातें करने वाली सिद्धांत वाली राजनीतिक पार्टियों का अंदरूनी हाल, गलाकाट स्पर्धा, परिवारवाद समस्त सच्चाई इस कहानी में मिलेगी।
सारे उच्च आदर्शों का गट्ठर स्त्री के सिर पर लादकर पुरुष महान संस्कृति का झंडा हाथ में लेकर आगे चलता है। “खुले आकाश के नीचे” की ‘बीना’ किसी आदर्श के झमेले में नहीं पड़ती, खुलकर मौक़ापरस्ती दिखाती है।
वर्ग भेद, उससे उपजी कुंठा, तिरस्कार यह सब शायद ही कभी समाप्त हो किंतु यह कहानी ‘खुले आकाश के नीचे’ प्रत्येक उस व्यक्ति के लिए जो नया-नया इस अति जटिल ज़िंदगी के संघर्ष में उतरा है। उसके लिए यह कहानी एक “मेनीफैस्टो” है— ‘यह एक अच्छा लक्षण है वरना सारी जिंदगी असंख्य बीनाओं और राजेशों से ही निपटने में ख़त्म हो जाएगी।”
▪️ इंसान की बहुत सारी समस्याएं हैं, चिंताएं हैं, अच्छाइयां हैं और कमज़ोरियां हैं, रही हैं और रहेंगी। नमिता जी की कहानियों में सम्पूर्ण ज़िंदगी का सागर ठाठें मार रहा है। उनमें जिजीविषा, संघर्ष और संवेदना के विविध रूपों को देखा जा सकता है। वे छुटभैय्या नेताओं, गांवों की राजनीति और दबंगों से पीड़ित लोगों को, राष्ट्रीय स्तर तक की बड़ी पार्टियों के बेहद अंदरूनी सत्य को बेबाकी से सामने लाती हैं। वर्ग संघर्ष के साथ स्त्री ने भी अपने अस्तित्व को जाना है। बेफ़िक्र, बेझिझक वह अपने स्वार्थों को पूरा कर लेती है। नारी आदर्शों के झांसे में नहीं आना चाहती और यदि आ गयी तो इसे स्त्री जीवन का भाग्य नहीं मानती, अपनी ग़लती मानती है।
- – “हाई स्कूल स्तर की नैतिकता और मध्यवर्गीय दोहरेपन की ज़िंदगी ने लगता है हम दोनों को ही पटखनी दे दी” —’जमी हुई बर्फ़’।
- – “उसे (स्त्री) अपना देय चाहिए। अपनी स्वयं की नितांत अपनी उपलब्धि” –’ममी’।
‘परतें’, ‘एक निर्णय’, ‘लहरों के बीच’ ऐसी ही कहानियां हैं। नमिता सिंह जी ने जातिवाद की विद्रूपताओं, दुखद स्थितियों पर भी बहुत लिखा है। गांवों में बहुत ग़रीब, ऊपर से कोटा वर्ग वाले परिवारों का जीवन इस दुनिया में भी जीते जी ही नरक का अनुभव देने वाला होता है, कहानी ‘दर्द’ इसका यथार्थ लेखाजोखा है।
▪️ 1970 के दशक में शुरूआती वर्षों में कस्बों, नगरों में जो चर्चाएं व गोष्ठियां होती थीं, उनमें साहित्य, साहित्यकार, राजनीतिक और देश-विदेश की घटनाएं बस यही विषय होते थे। तब सम्प्रदायों की समस्या इतनी विकराल न थी, लोग मकान, प्लाट, शेयर खरीदकर संपत्ति जोड़ने की परवाह ही नहीं करते थे।
कुछ समय के बाद देशी पूंजीवाद ने अपनी जड़ें पसारीं, उदारीकरण ने बाज़ारवाद को रौद्र रूप दे दिया। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, चारों लक्ष्यों में केवल ‘अर्थवाद’ ने रीति-रिवाजों, रिश्तों, प्रेम, कर्त्तव्य, तीज-त्यौहारों, मेल-जोल, उत्सवों के वटवृक्षों के पत्ते-पत्ते को अपनी राख से ढांक लिया है। अब धरती पर जैसे केवल पैसा सांसें ले रहा है इसीलिए नयी कहानी में भी भूमण्डलीकरण, नवउपभोक्तावाद, रोज़ी-रोटी की तलाश से लेकर करोड़ों-अरबों कमाने की लिप्सा के चित्र हैं, कारपोरेट जगत, चंट मीडिया, औद्योगिक सभ्यता की बातें हैं। महिला साहित्यकारों ने भी इन विषयों को अपनी रचनाओं के लिए चुना है। विज्ञान, रहस्य, षड्यंत्रों के कथानक महिलाओं ने भले ही बहुत कम चुने हों, किंतु नयी महिला कहानीकारों ने प्रेम और सेक्स पर लिखने में किसी चौखट की परवाह नहीं की है। घटते पाठक शायद लौट आएं।
अनीता श्रीवास्तव
नयी कहानी में यथार्थ प्रस्तुति के कारण कठोरता, शुष्कता, लंबे राजनीतिक धरातल के कारण बोझिलता को दूर रखने के लिए अनीता श्रीवास्तव ने अपनी कहानियों में हास्य और व्यंग्य का समेकित उपयोग किया है।
अनीता श्रीवास्तव लोकप्रिय लेखिका हैं, उनका व्यंग्य आधारित संकलन- “बचते-बचते प्रेमालाप” बहुत पसंद किया गया है एवं कादंबरी पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। उनकी लगभग दो सौ रचनाएं विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। अनीता जी के कहानी संकलन “तिड़ककर टूटना” की कहानियां सूक्ष्म संवेदनशीलता और अभूतपूर्व चित्रात्मकता के कारण बहुत प्रभावित करती हैं। अनीता श्रीवास्तव ने व्यंग्य विधा में खूब सफलता प्राप्त करने के साथ नयी कहानी में भी एक अद्भुत यथार्थ संसार प्रस्तुत किया है।
उनकी नयी कहानियों के कथानक हमारे अपने ही हैं, हमारे आसपास के, हमारे जीवन के नित्य अभिन्न घटनाक्रम हैं, चाहे कोरोना हो, मज़दूरों का पलायन, राहत केंद्र, किसी शहर में भटकती कोई पगली जिसके पीछे की दर्दनाक प्रेम कहानी वही जो हमेशा ही दोहरायी जाती रहती है।
‘रूठा बच्चा’ शहरी जीवन की सुविधाओं की सज़ा काटते हुए एक ग्रामीण अप्रवासी अर्थात गांव से नौकरी के लिए नगर में बसने को विवश आदमी की कहानी। बिना लाग-लपेट के सरल जीवन का आदी विष्णु की परेशानी, खीझ की मनोवैज्ञानिक किंतु गुदगुदाते संवादों में है। बरबस हंसा देने वाले संवाद, वार्तालाप उनकी कहानियों की विशेषता भी है और पहचान भी।
‘घर’, ‘पतोली’, ‘उसने क्या लिखा’, ‘सतीत्व बनाम स्त्रीत्व’ और ‘तिड़ककर टूटना’– ये हमारे समय का ब्यौरा भी हैं और पारिवारिक, सामाजिक जीवन में हो रहे परिवर्तनों का अंकन भी हैं, आंकलन भी हैं। उनकी दृष्टि घटनाओं के पीछे छिपे मनोवैज्ञानिक कारणों को बारीक़ी से जांच लेती है। ‘तिड़ककर टूटना’ कहानी अपनी अनुभूतियों की सच्चाई को स्पष्ट आकार देने के यत्न में एक ख़ूबसूरत सशक्त रचना है, कुछ-कुछ डायरी जैसी शैली में, अंतर्मन से अंतर्मन की बातें। जिस तरह एकान्त में लेखिका का अंतर्मन अपनी स्वरा से खुलकर बातें करता है, उसी अनुरूप बेलाग जैसे एक प्रवाह में कलम चली है। समस्त ऊपरी बाधाओं को उपेक्षित छोड़कर लेखिका की ‘कविता’ स्वरा एक रचनात्मक ऊर्जा से भरी हुई नये सृजन के लिए तत्पर रहती है। यह बड़ी प्रेरणादायक सुखद प्रभाव छोड़ने वाली कहानी है। ‘सतीत्व बनाम स्त्रीत्व’ एक चिरन्तन प्रश्न सामने रखती है, एक सिक्के के दो पहलू, सदियों पहले किसी नीति निर्धारक ने स्त्रीत्व के साथ सतीत्व का युग्म किन्हीं कमज़ोर, संदेही, स्वार्थी पलों में बनाया होगा। स्त्रीत्व एक प्रकृतिजन्य गुण है, धर्म है। सतीत्व सोच-विचारकर स्थापित किया गया धर्म है। इनके बीच की रस्साकशी बहुत संभलकर संयम से इस कहानी में वर्णित है।
▪️ आज की महिला कहानीकारों ने लेखन के आकाश की असीमता देख ली है। अब उनके लिए चुने हुए विषय, चुनी हुई भाषा की स्वयं स्वीकृत पाबन्दियां जैसा कुछ भी नहीं है। तेज़ी से बदलते वक़्त के साथ रिश्तों को, इंसानियत को परखने की कहानी है, नयी कहानी एवं किसी भी पूर्वाग्रह से मुक्त है।
ब्रेख़्त ने लिखा है– “जब अंधेरा होगा तब हम अंधेरे के गीत गाएंगे।” हमारी हिन्दी की कहानीकार स्वयं एक नया सूर्य बनाकर उजाले की कहानियां लिखेंगी।

शशि खरे
ज्योतिष ने केतु की संगत दी है, जो बेचैन रहता है किसी रहस्य को खोजने में। उसके साथ-साथ मैं भी। केतु के पास मात्र हृदय है जिसकी धड़कनें चार्ज रखने के लिए लिखना पड़ता है। क्या लिखूँ? केतु ढूँढ़ता है तो कहानियाँ बनती हैं, ललित लेख, कभी कविता और डायरी के पन्ने भरते हैं। सपने लिखती हूँ, कौन जाने कभी दुनिया वैसी ही बन जाये जिसके सपने हम सब देखते हैं। यों एक कहानी संकलन प्रकाशित हुआ है। 'रस सिद्धांत परम्परा' पुस्तक एक संपादित शोधग्रंथ है, 'रस' की खोज में ही। बस इतना ही परिचय- "हिल-हिलकर बींधे बयार से कांटे हर पल/नहीं निशाजल, हैं गुलाब पर आंसू छल-छल/झर जाएंगी पुहुप-पंखुरी, गंध उड़ेगी/अजर अमर रह जाएगा जीवन का दलदल।
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वाह सम्यक एवं सटीक समीक्षा