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नियमित ब्लॉग अरुण अर्णव खरे की कलम से....

व्यंग्य शीर्षक: ऐसा हो, ऐसा-वैसा नहीं

            बात उस समय की है, जब कोरोना के कारण लेखक ऑनलाइन साहित्यिक समूहों में सक्रिय होकर अपनी रचनात्मकता को गतिशील बनाये रखने के लिए प्रयासरत थे। इसी उद्देश्य से हम कुछ मित्रों ने मिलकर ‘व्यंग्यधारा’ समूह की स्थापना की थी। इस समूह में होने वाले रचनापाठ और उस पर होने वाले विमर्श में वरिष्ठ व्यंग्यकार राजेंद्र वर्मा प्रायः रचना के शीर्षक पर अपने विचार रखते। कई बार उन्हें लगता कि शीर्षक रचना के मिज़ाज के अनुरूप नहीं है और कई बार वे शीर्षक की सार्थकता को लेकर संतोष भी प्रकट करते। उनका मानना था व्यंग्य-रचना का शीर्षक विषय के अनुकूल तो हो ही, लेकिन उसमें व्यंजना या उलटबांसी भी होनी चाहिए।

जब पहली बार शीर्षक को लेकर उनका आग्रह सुना, तो मुझे एक घटना याद आ गयी। उन दिनों मैं खेल-लेखन में अधिक सक्रिय था और ‘खेल हलचल’ पत्रिका के लिए ओलंपिक खेलों पर एक शृंखला लिख रहा था। मेरे एक लेख का शीर्षक था- “सफलता के हिंडोले में उड़ते जीवन साथी”। इसे पढ़कर नई दुनिया के संपादकीय विभाग में कार्यरत स्व. सुरेश गावड़े जी ने कहा था “आप इतने अनोखे शीर्षक कैसे सोच लेते हो?” उनकी यह टिप्पणी सुनकर मुझे ख़ुशी हुई थी, लेकिन जल्द ही वह प्रसंग स्मृति से धुंधला पड़ गया। वर्मा जी के विद्वतापूर्ण विमर्श ने उस घटना को ताज़ा कर दिया। गावड़े जी की बात सुखद और आत्मीयता से भरी थी, जबकि वर्मा जी का आग्रह शीर्षक में रचना के संपूर्ण आस्वाद की अभिव्यक्ति पर केंद्रित था।

संपूर्ण आस्वाद वह साहित्यिक अनुभव है, जिसमें रचना के सभी घटक- विषय, भाषा, शैली, प्रतीक, व्यंग्य की धार, हास्य का रस और व्यंजना की तीव्रता, एक साथ मिलकर पाठक को समग्र भावानुभूति कराते हैं। व्यंग्य-साहित्य में संपूर्ण आस्वाद विशेष महत्व रखता है, क्योंकि यहाँ शीर्षक और कथ्य का आपसी संबंध पाठक को प्रारंभ से ही उस व्यंग्यात्मक भावभूमि में ले जाता है, जहाँ हास्य और कटाक्ष मिलकर सत्य का उद्घाटन करते हैं। शीर्षक यदि रचना की अंतर्धारा को अभिव्यक्त करता है तो वह रचना-पाठ के पहले ही क्षण पाठक को संपूर्ण आस्वाद से जोड़ देता है। यही कारण है व्यंग्य रचना में शीर्षक का विशेष महत्व होता है।

साहित्य में यदि आपके पास विचार है और उन्हें शब्दों में ढालने का हुनर भी है, तो रचना को आकार देना आपको कठिन नहीं लगेगा। कठिनाई तब आती है, जब उस रचना का शीर्षक क्या हो, प्रश्न सामने आता है? यह प्रश्न अक्सर लेखक को सबसे अधिक व्यथित करता है। शीर्षक की सार्थकता और प्रासंगिकता को लेकर लेखक घंटों सोचता है, फिर भी संतोषजनक हल नहीं सूझता। यह असमंजस किसी एक लेखक का नहीं है, लगभग हर लेखक कभी न कभी इस असहाय स्थिति से गुज़रता है। कई बार तो स्थिति ऐसी बन जाती है कि रचना को उसका अभीष्ट शीर्षक मिल ही नहीं पाता, और तब यह आशंका बनी रहती है कि संपूर्ण रचना अपने उत्कृष्ट कथ्य और शिल्प के बावजूद पाठकों की दृष्टि से अनदेखी न रह जाये।

इसमें संदेह नहीं कि साहित्य की हर रचना अपने कथ्य और शिल्प से जीवंत होती है, किंतु उसका शीर्षक वह पहला बिंदु है, जहाँ पाठक की दृष्टि आकर ठहरती है। शीर्षक किसी रचना का मात्र नाम नहीं, बल्कि रचना की पहचान, उसकी व्यंजना और उसके प्रभाव का द्वार है। एक सशक्त शीर्षक पाठक को भीतर खींच लेता है और रचना के भावलोक में प्रवेश का मार्ग प्रशस्त करता है। यदि शीर्षक आकर्षक और मर्मस्पर्शी हो, तो वह न केवल रचना की गरिमा को बढ़ा देता है, बल्कि उसकी प्रभावशीलता को कई गुना विस्तृत भी कर देता है।

शीर्षक को निःसंकोच रचना की मुखाकृति कहा जा सकता है। जिस प्रकार किसी व्यक्ति के चेहरे से उसका पहला प्रभाव हमारे मन पर अंकित होता है, उसी प्रकार रचना का शीर्षक भी पाठक के मन में आकर्षण और जिज्ञासा, एक साथ जगाता है। शीर्षक की यह प्रथम छवि पाठक को सहज ही रचना के अंतर में प्रवेश करने के लिए आमंत्रित करती है। शीर्षक केवल मोहक न रहकर रचना के मर्म का सटीक दर्पण बन जाये, तो वह सोने पर सुहागा की कहावत को साकार कर देता है।

हिंदी व्यंग्य-साहित्य में हम देखते हैं कि सभी बड़े रचनाकार शीर्षक को लेकर अत्यंत सजग रहे हैं। हरिशंकर परसाई की रचनाएँ- ठिठुरता हुआ गणतंत्र, अकाल में उत्सव, सदाचार का तावीज़, भोलाराम का जीव और विकलांग श्रद्धा का दौर इसके सशक्त उदाहरण हैं। ये शीर्षक केवल आकर्षक ही नहीं, बल्कि गहरे सामाजिक और राजनीतिक संदर्भों पर सीधी चोट करते हैं तथा पाठक के मन में सहज ही जिज्ञासा और आकर्षण जगाते हैं। ज़रा सोचिए, ठिठुरता हुआ गणतंत्र अपने आप में कितना सटीक और अभीष्ट शीर्षक है। यह न केवल कथ्य के साथ न्याय करता है बल्कि पाठक को ‘वाह’ कहने पर विवश कर देता है। यह शीर्षक मात्र वाक्यांश नहीं है, बल्कि समय की जीवंत तस्वीर है, जहाँ लोकतंत्र ठिठुरन से काँप रहा है और जनता के अधिकार बर्फ़ की तरह जम चुके हैं। शीर्षक पढ़ते ही व्यंग्य की सर्द हवा भीतर तक उतर जाती है। आप चाहें तो एक छोटा-सा प्रयोग कर सकते हैं- शीर्षक को भूलकर रचना को पढ़िए, फिर विचार कीजिए कि उसका शीर्षक क्या होना चाहिए? आप पाएँगे कि इस रचना के लिए इससे अधिक मारक और परिपूर्ण शीर्षक दूसरा नहीं हो सकता। इसी प्रकार अकाल में उत्सव शीर्षक स्वयं एक विसंगति का रूपक है, जो गहरी अर्थवत्ता से भरा हुआ है। अकाल जैसे दारुण प्रसंग में उत्सव की बात करना सत्ता की संवेदनहीनता और सामाजिक विडंबना पर सीधी चोट है।

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भोलाराम का जीव का उदाहरण और भी रोचक है। यदि लेखक यहाँ ‘आत्मा’ शब्द का प्रयोग करते, तो शीर्षक साधारण हो जाता किंतु ‘जीव’ शब्द ने शीर्षक में न केवल जान डाल दी, बल्कि नौकरशाही की ठंडी फाइलों में अटके जीवन की विडंबना के कथ्य को भी जीवंत कर दिया। इसी तरह सदाचार का तावीज़ शीर्षक में वह व्यंग्यात्मक धार है, जो नैतिकता को वस्तु की तरह पहन लेने और दिखावे का आभूषण बना देने वाली प्रवृत्ति पर तीखा कटाक्ष करता है। विकलांग श्रद्धा का दौर अंधविश्वास और विवेकहीन आस्था का ऐसा चित्र खींचता है, जहाँ श्रद्धा अपने ही बोझ तले पंगु हो जाती है। परसाई जी की ये रचनाएँ कालजयी हैं। यह कहना उचित नहीं होगा कि वे केवल शीर्षकों की वजह से कालजयी बनीं, किंतु यह स्वीकारना ही होगा कि उनके शीर्षकों में ज़बरदस्त अपील है। यह अपील इतनी चित्ताकर्षक है कि पाठक को बरबस अपनी ओर खींच लेती हैं और उसे रचना के मर्म तक पहुँचने के लिए प्रेरित करती है।

शरद जोशी की चर्चित रचनाओं के शीर्षक- जीप पर सवार इल्लियाँ, अतृप्त आत्माएँ रेल यात्रा पर और हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे, अपनी सहज व्यंजना और अजीबोग़रीब विसंगतियों के कारण पाठक को तुरंत आकृष्ट कर लेते हैं। इनके कथ्य से गुज़रने के बाद तो पाठक लेखक की पैनी दृष्टि और चुटीली शैली का मुरीद हो जाता है। इसी प्रकार ज्ञान चतुर्वेदी की व्यंग्य रचनाओं- दंगे में मुर्गा, ख़ामोश! नंगे हमाम में हैं, मूर्खता में ही होशियारी है और हिंदी में मनहूस रहने की परंपरा, में शीर्षक ही जुगुप्सा का भाव जगा देते हैं। इन शीर्षकों में गहरी फ़ैंटेसी और प्रतीकात्मकता है, जो रचना की विलक्षणता का संकेत देते हैं। इन्हें पढ़ने के बाद पाठक चमत्कृत और विचलित, दोनों ही अनुभव करता है। रवीन्द्रनाथ त्यागी के शीर्षक भी अपनी अनूठी चुटीली शैली और व्यंग्यात्मक तीखेपन के लिए जाने जाते हैं। अफ़सरशाही की अंत्येष्टि, पूरब खिले पलाश पिया, खुली धूप में नाव पर और प्रेम गली अति साँकरी जैसे शीर्षक न केवल उनकी रचनाओं की धार से परिचित कराते हैं, बल्कि लोक-भाषा की सहजता के साथ संवेदनशील व्यंग्य-बोध का भी अनुभव कराते हैं। कहने का आशय यह है कि आकर्षक शीर्षक केवल ध्यान आकृष्ट ही नहीं करते, बल्कि पूरी रचना की सुगढ़ता और सशक्तता का अहसास भी कराते हैं।

आप ध्यान से इन चारों व्यंग्यकारों की रचनाओं के शीर्षकों को देखेंगे तो सहज ही उनकी रचनाओं के तेवर और ट्रीटमेंट को समझ सकेंगे। परसाई जी के शीर्षक गहरी व्यंजनात्मकता के साथ सामाजिक-राजनीतिक सच्चाइयों पर सीधी चोट करते हैं, शरद जोशी के शीर्षक चुटकी और हास्य-विसंगति का सहारा लेकर व्यंग्य रचते हैं, ज्ञान चतुर्वेदी के शीर्षक प्रतीकात्मकता और फैंटेसी का संकेत देते हैं तथा रवीन्द्रनाथ त्यागी के शीर्षक सरलता, काव्यमयता और लोकधर्मी सौंदर्य का आभास देते हैं। एक अर्थ में, ये शीर्षक इन चारों के संपूर्ण रचना-संसार के आईने हैं। परसाई के व्यंग्य में गंभीरता का स्वर है। वे सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक पाखंड का बेझिझक पर्दाफ़ाश करते हैं। उनकी रचनाओं को पढ़कर पाठक ठहरकर सोचता है और उसके मन में विसंगतियों का बोध तीव्र हो उठता है। शरद जोशी अपेक्षाकृत सहज, चुटीले और खिलंदड़े अंदाज़ में भीतर से पैना व्यंग्य उभारते हैं।

रवीन्द्रनाथ त्यागी के व्यंग्य में हास्य की प्रधानता है। उनके व्यंग्य में लोकभाषा की सहजता के साथ व्यंग्य की अंतर्धारा प्रवाहित होती रहती है। दूसरी ओर ज्ञान चतुर्वेदी की रचनाएँ फैंटेसी-प्रधान और तीखी होने के साथ-साथ कई बार पाठक के अंतर्मन में गहराई तक उतर जाती हैं। उनकी रचनाओं से गुज़रते हुए पाठक चौंकता है, उसके मन में जिज्ञासा और जुगुप्सा दोनों जागृत होती हैं और रचना को आगे पढ़ने की बेचैनी बढ़ती चली जाती है।

शीर्षक क्यों महत्वपूर्ण हैं, इसे समझने के लिए अपने समय के प्रमुख व्यंग्यकारों की रचनाओं को आधार बनाया गया है। ये सभी रचनाकार अपनी शैली, कथन और विषय-चयन की दृष्टि से एक-दूसरे से बिल्कुल अलग हैं लेकिन शीर्षक को लेकर सभी समान रूप से सजग दिखायी देते हैं। निष्कर्षतः कहा कहा जा सकता है कि आकर्षक और अर्थपूर्ण शीर्षक केवल ध्यान आकृष्ट ही नहीं करते, बल्कि रचना की संपूर्ण देहयष्टि का भी आभास कराते हैं। शीर्षक की मारकता पाठक को भीतर तक खींचती है और उसे उस भावभूमि के लिए तैयार करती है, जहाँ हास्य और विडंबना के आवरण से सच का उद्घाटन होना है। यही कारण है परसाई, शरद जोशी, ज्ञान चतुर्वेदी और रवीन्द्रनाथ त्यागी जैसे रचनाकारों के व्यंग्य-शीर्षक अपने आप में कालजयी प्रतीक बन गये हैं। ये न केवल रचना के मर्म को उजागर करते हैं, बल्कि पाठक की स्मृति में भी लंबे समय तक गूंजते रहते हैं।

अरुण अर्णव खरे, arun arnaw khare

अरुण अर्णव खरे

अभियांत्रिकीय क्षेत्र में वरिष्ठ पद से सेवानिवृत्त। कथा एवं व्यंग्य साहित्य में चर्चित हस्ताक्षर। बीस से अधिक प्रतिष्ठित सम्मान प्राप्त। अपने माता-पिता की स्मृति में 'शांति-गया' साहित्यिक सम्मान समारोह आयोजित करते हैं। दो उपन्यास, पांच कथा संग्रह, चार व्यंग्य संग्रह और दो काव्य संग्रह के साथ ही अनेक समवेत संकलनों में शामिल तथा देश भर में पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन। खेलों से संबंधित लेखन में विशेष रुचि, इसकी भी नौ पुस्तकें आपके नाम। दो ​विश्व हिंदी सम्मेलनों में शिरकत के साथ ही मॉरिशस में 'हिंदी की सांस्कृतिक विरासत' विषय पर व्याख्यान भी।

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