
- October 15, 2025
- आब-ओ-हवा
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नियमित ब्लॉग आशीष दशोत्तर की कलम से....
शेर और शाइरी के बीच की जगह
किसी भी शेर की ख़ूबसूरती का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जाता है कि उसमें शाइरी हुई है या नहीं। जो कहा है वह तो सामने दिख रहा है मगर जो नहीं कहा गया है, वह सामने आना चाहिए। हर शेर अपने आप में मुकम्मल होता है। सभी में ख़यालों की तर्जुमानी तो होती है मगर कुछ शेर ऐसे होते हैं, जो दिल पर नक़्श हो जाते हैं। शाइरी वहीं होती है। शेर होने में वक़्त नहीं लगता मगर शाइरी होने में ज़रूर वक़्त लगता है। इसीलिए तो ख़ुदा-ए-सुख़न मीर को भी यह कहना पड़ा-
मिसरा कोई-कोई कभू मौज़ूँ करूँ हूँ मैं
किस ख़ुश-सलीक़गी से जिगर ख़ूँ करूँ हूँ मैं
दरअसल शेर में शाइरी होना ही ख़ास है। शाइरी अगर शेर के अंदर कहीं है तो उसे ढूंढना और उसका आनंद लेना, शेर पढ़ने वाले को सुकून देता है। शेर में लफ़्ज़ नज़र आते हैं और शाइरी में लफ़्ज़ नहीं होते, वहां अहसासात होते हैं। इसी बात को हिंदी के बड़े कवि राजेश जोशी बहुत गहराई से कहते हैं-
कविता की दो पंक्तियों के बीच मैं वह जगह हूँ
जो सूनी-सूनी-सी दिखती है हमेशा
यहीं कवि की अदृश्य परछाईं घूमती रहती है अक्सर
मैं कवि के ब्रह्मांड की एक गुप्त आकाशगंगा हूँ
शब्द यहाँ आने से अक्सर आँख चुराते हैं
ज़ाहिर सी बात है, जहां अर्थ खुलते हैं वहां शब्द मौन हो जाते हैं। शब्दों की ख़ामोशी जिस अर्थ को उजागर करती है, वहीं शेर की गिरहें खुलती हैं। जो इस गिरह तक पहुंच जाता है और उसे खोलने की कोशिश करता है, वह उस शेर के असली मज़मून तक पहुंचता है। जो शेर दिल पर असर करता है, उसमें वह असर उस ख़ाली जगह से ही आता है। जहां कोई लफ़्ज़ नहीं होता, जहां जज़्बात होते हैं, जहां दिल से कही हुई बात होती है। उस ख़ाली जगह पर ही नज़रें नहीं टिकतीं और जहां दिल पहुंच जाता है, जब उस जगह पर दिल पहुंचता है तो ऐसी शाइरी नज़र आती है, जो किसी भी शेर को मुकम्मल बनाती है। तभी तो अहमद सलमान कहते हैं-
जो दिख रहा उसी के अंदर जो अन-दिखा है वो शाइरी है
जो कह सका था वो कह चुका हूँ जो रह गया है वो शाइरी है
तमाम दरिया जो एक समुंदर में गिर रहे हैं तो क्या अजब है
वो एक दरिया जो रास्ते में ही रह गया है वो शाइरी है
जहां कुछ छूट गया है, शाइरी वहीं से शुरू होती है। सब कुछ दृश्य होने पर शाइरी के क़रीब नहीं पहुंचा जा सकता। वहां तक पहुंचने के लिए उसके भीतर से गुज़रना पड़ता है। शेर को समझना आसान है शाइरी को समझना मुश्किल। मौजूदा दौर में शेर तो ख़ूब कहे जा रहे हैं मगर शाइरी का रंग कहीं-कहीं देखने को मिलता है। एक शेर का मुकम्मल होना इतना ज़रूरी नहीं होता, जितना कि उन रास्तों से गुज़रना जहां से होकर एक शेर की रूह तक पहुंचा जा सकता है। अलग संदर्भ में बात ज़रूर कही है मगर इसे एक शेर के मुकम्मल होने और उसे ग़ज़ल तक पहुंचने के नज़रिये से देखा जाये तो जोश मलीहाबादी ने किस ख़ूबसूरती से इस बात को कहा है-
दरिया का मोड़, नग़्मा-ए-शीरीं का ज़ेर-ओ-बम
चादर शब-ए-नुजूम की, शबनम का रख़्त-ए-नम
तितली का नाज़-ए-रक़्स, ग़ज़ाला का हुस्न-ए-रम
मोती की आब, गुल की महक, माह-ए-नौ का ख़म
इन सब के इम्तिज़ाज से पैदा हुई है तू।
यहां समझने लायक़ यह है कि किसी ज़ुबान की बात करते हुए भी शाइरी की ख़ूबसूरती को बयान किया जा सकता है। शाइरी का सफ़र बहुत लंबा है। और इसमें किसी मिसरे के पीछे चलते ख़ामोश मआनी को समझना और भी मुश्किल।

आशीष दशोत्तर
ख़ुद को तालिबे-इल्म कहते हैं। ये भी कहते हैं कि अभी लफ़्ज़ों को सलीक़े से रखने, संवारने और समझने की कोशिश में मुब्तला हैं और अपने अग्रजों को पढ़ने की कोशिश में कहीं कुछ लिखना भी जारी है। आशीष दशोत्तर पत्र पत्रिकाओं में लगातार छपते हैं और आपकी क़रीब आधा दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हैं।
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