डॉ. स्वामी श्यामानंद सरस्वती 'रौशन', dr roshan, swami shyamanand saraswati roshan
पाक्षिक ब्लॉग सलीम सरमद की कलम से....

किताब, जादू और डॉ. स्वामी श्यामानंद सरस्वती 'रौशन'

            मेरे बाएं हाथ में डॉ. स्वामी श्यामानंद सरस्वती ‘रौशन’ जी की किताब थी, जिसे मैंने अपनी उंगलियों में फंसाकर थोड़ा-सा ऊपर उठा रखा था। कभी-कभी दाएं हाथ का सहारा लेकर वो किताब सीने के पास जाकर मेरी बढ़ती हुई धड़कनों को भी सुन लेती थी, शायद उस ढलते हुए दिन में उन धड़कनों का ही असर था कि मेरे क़दमों की रफ़्तार सुस्त हो रही थी और मेरी आँखों में मंज़िलों के ख़्वाब बदल रहे थे।

दिलों में गूंजते रहते हैं
तुम्हारे शेर हैं बाँसुरी के
फूल सरीख़ा कौन आया है
महके-महके हैं घर-आंगन

शाम हो चुकी थी, क्षितिज से कुछ ऊपर फैली हुई गहरी लाली और ज़मीन के नज़दीक ठहरी हुई कालिमा, दोनों कुछ बैंगनी-सा रंग बनाकर मेरे अस्तित्व पर बरस रही थीं। सड़क पर लगे खंभे इस तरह लग रहे थे, मानो वो आसमान से भी ऊंचे हों और उनसे गिरती हुई दूधिया रोशनी नीचे आते-आते एक छोटे से गोल घेरे में सिमट रही है।

आ रही हैं नई कोंपलें
शुद्ध इनको हवा दीजिए

मेरी रीढ़ की हड्डी तन चुकी थी, गर्दन उठी हुई, चेहरा सामने, जबड़े कसे हुए और आंखें स्थिर थीं। मैं अपने आसपास के संसार को नहीं देख रहा था, मुझे लग रहा था कि सब मुझे देख रहे हैं। मैं किसी शहज़ादे की तरह अकड़कर मगर अपनी मद्धम चाल से आगे बढ़ रहा था। मुझे अपने भीतर अचानक एक बहुत बड़ा बदलाव महसूस हो रहा था और ये सारा जादू का खेल, मात्र उस किताब के कारण था।

लग रहा हूँ पुराने लोगों-सा
जी रही है कोई सदी मुझमें

डॉ. स्वामी श्यामानंद सरस्वती ‘रौशन’… उस भारी-भरकम नाम को किताब के कवर पर देखकर ही मैं अपने कांधों पर ज़िम्मेदारी का बोझ बढ़ा रहा था। जैसे एक अज़ीम इल्म की विरासत मुझे सौंपी जा रही हो… मानो देवदार के विशाल वृक्ष ने प्रकट होकर नन्हे पौधे को बाज़ुओं से पकड़कर सीधा खड़ा कर दिया था, मुझे बड़ा बना दिया था।

प्रेम की आग रूप ही से लगे
रूप क्या है दियासलाई है

उस किताब में रुबाइयात थीं, जिन्हें सत्यम, शिवम, सुंदरम तीन हिस्सों में बांटा गया था। मैंने पहली बार कविता में गणित को सही मायने में समझा था, ब्रह्मांड में अंकों के जादू को भी, पानी के बहाव और नदी के कर्व को, घुंघरूओं की आवाज़ छन-छन, छनन-छन, शब्दों के वज़्न, मिसरों में मीटर, अर्क़ान को, फ़ेलुन-फ़ाइलुन-मुस्तफ़इलुन इस लय ने मुझे बांध लिया था।

घर-घर जाकर ढूंढ रहा हूँ
‘रौशन’ हिन्दोस्तान कहाँ है

ये किताब मुझे कमलकांत सक्सेना जी ने पढ़कर लौटाने के लिए दी थी ताकि मैं शायरी में बह्र को समझ सकूँ, उस किताब में क्या-क्या था, वो अब मेरी यादों के हिसार से बाहर जा चुका है। मैं उस शाम जब घर आने के लिए मिनी बस में बैठा था, तभी किसी अंकल ने कहा- “आपके हाथ में ये कौन-सी किताब है? एक बालक के कानों ने ‘तुम्हारे हाथ में’ की जगह ‘आपके हाथ में’ सुना था, उस किताब ने मुझे वाक़ई बड़ा बना दिया था।

कामना है कि तुझमें समा जाऊं मैं
किस नदी को समंदर नहीं चाहिए

मैं डॉ. स्वामी श्यामानंद सरस्वती ‘रौशन’ जी से कभी नहीं मिला और न उनके बारे में कुछ जानता हूँ, वो रूखे-सूखे यथार्थ में जिये, उनकी नम आंखों में सपने लहलहाये, अपने सीधे-सच्चे विचारों को कविता में पेश करते रहे या उनके पास कोई विस्तृत जादुई, काल्पनिक दुनिया थी, मैं नहीं जानता। भवेश दिलशाद से ‘सुर बांसुरी के’ उनकी ग़ज़लों का संकलन लाया हूँ, तो उनके कुछ अशआर लिख पाया। वो अपने जीवन में हिंदी ग़ज़ल के इतिहास में कुछ पन्ने जोड़ रहे थे, ख़ैर अब तो हिंदी-उर्दू में बहुत भेद नहीं है। हाँ, सुना है वो कविता में छंद के प्रति अति सजग थे, शायर कैसे थे, मैं वाक़ई नहीं जानता… मगर उस किताब के कारण अपने भीतर हुए बदलाव को अब तक महसूस करता हूँ।

जो ग़ज़ल के तक़ाज़ों पे उतरे खरी
आज हिंदी में ऐसी ग़ज़ल चाहिए
उठ गया कौन बीच से अपने
प्रार्थनाएं उदास बैठी हैं

सलीम सरमद

सलीम सरमद

1982 में इटावा (उ.प्र.) में जन्मे सलीम सरमद की शिक्षा भोपाल में हुई और भोपाल ही उनकी कर्म-भूमि है। वह साहित्य सृजन के साथ सरकारी शिक्षक के तौर पर विद्यार्थियों को भौतिक विज्ञान पढ़ाते हैं। सलीम अपने लेखन में अक्सर प्रयोगधर्मी हैं, उनके मिज़ाज में एकरंगी नहीं है। 'मिट्टी नम' उनकी चौथी किताब है, जो ग़ज़लों और नज़्मों का संकलन है। इससे पहले सरमद की तीन किताबें 'शहज़ादों का ख़ून' (कथेतर) 'दूसरा कबीर' (गद्य/काव्य) और 'तीसरा किरदार' (उपन्यास) प्रकाशित हो चुकी हैं।

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