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पड़ताल भवेश दिलशाद की कलम से....

बड़ा ख़तरा! अंधकार से अंधी खाई की तरफ़ बांग्लादेश

             नाम से ही सुनायी देता है कि एक ऐसी ज़मीन, जहां बांग्ला भावना या सांस्कृतिक मूल्य हैं। जिस मुल्क का राष्ट्रगान ही बांग्ला में है और टैगोर की क़लम से है। जिस मुल्क की तामीर की बुनियाद ही इस्लामीकरण की ज़िद के ख़िलाफ़ बांग्ला कल्चर को बचाने की रही, अपने बनने के पांच दशक बाद अब सांप्रदायिक मुल्क का रूप लेने की दिशा में तेज़ी से बढ़ रहा है। ख़तरे बहुत भयानक दिख रहे हैं। क्या यहां महिलाओं की स्थिति बदतर हो जाएगी? क्या बांग्लादेश में सांप्रदायिक नफ़रत और हिंसा रोज़मर्रा की बात हो जाएगी? 1 करोड़ से ज़्यादा ग़ैर मुस्लिम आबादी इस देश में सुरक्षित रह पाएगी या पलायन को मजबूर होगी?

शेख़ हसीना को मौत की सज़ा सुनाये जाने के बाद बांग्लादेश की मौजूदा सत्ता और सियासत पर जो सवाल खड़े हुए हैं, अगर आपको चिंता में नहीं डालते तो आप पड़ोस के घर में लगी आग से मुंह चुराने वाले उस तरह के व्यक्ति हैं, जो अपना घर जलने के ख़तरे से अनजान बना रहने में ख़ुश है। इन ख़तरों को प्रगतिशील समाज भांप रहा है और इसके बारे में लेखक खुलकर बात करने का साहस भी दिखा रहे हैं।

सोमवार देर रात एक्स पर एक पोस्ट में, 1994 से भारत में रह रहीं बांग्लादेश से निर्वासित लेखक तस्लीमा नसरीन ने यूनुस शासन की सियासत को कठघरे में रख दिया। उनका सवाल है, प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने का आदेश देने वाले “आतंकवादियों” को न्याय के कठघरे में क्यों नहीं लाया जा रहा? 63 वर्षीय तस्लीमा ने लिखा, “जिन कार्रवाइयों के लिए यूनुस और उनकी जिहादी ताक़तों ने हसीना को मुजरिम क़रार दिया है – जब यूनुस और जिहादी ताक़तें वही काम करती हैं, तो उन्हें न्यायसंगत घोषित कर देते हैं। इंसाफ़ के नाम पर ये तमाशा कब ख़त्म होगा।”

भारत की भूमिका!

भारत अपने आप को विश्वगुरु, शांति का संदेशवाहक और लोकतंत्र की जननी कहने से चूकता नहीं है, लेकिन क्या यह चिंताजनक नहीं है कि भारत की नाक के नीचे एक छोटा सा मुल्क कुछ ही महीनों में देखते ही देखते, धड़ल्ले से, इस्लामी देश बनता चला गया! वह भी ऐसा देश, जो एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र रहा। क्या इसमें भारत की कूटनीति और जियोपॉलिटिक्स को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए था? क्या यह किये जाने के बावजूद ऐसा हुआ है?

क्या इस बात से नज़र फेर लेना चाहिए कि मुस्लिम बहुल आबादी वाले लोकतांत्रिक देश के इस्लामीकरण होने की प्रक्रिया में भारत इसलिए हस्तक्षेप नहीं कर पाया क्योंकि नैतिक रूप से उसकी सियासत आंखें मिलाने की स्थिति में नहीं थी? यानी जब आप ख़ुद एक महान धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक परंपरा के देश को ‘हिंदू राष्ट्र’ के झंडे के तले लाने पर आमादा हैं, ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द तक हटाये जाने के मुद्दे सिस्टम प्रायोजित सोशल मीडिया से लेकर मीडिया के साथ ही नेताओं के बीच बहस में आते हैं, मुसलमानों के ख़िलाफ़ लगातार एक दशक से हिंसा और नफ़रत का माहौल बना हुआ है, आतंकवाद समस्या का हल कुछ है नहीं बल्कि नफ़रत से यह मसला और भयानक होता जा रहा है… आपको नहीं लगता यह सब दुनिया भर में देखा जा रहा है? शायद आपसे ही शय पाकर छोटे देश भी आपकी राह पर चल पड़े हैं! आप यहां ‘हिंदू राष्ट्र’ का हल्ला मचाते रहे और आपका ही बनाया हुआ एक लोकतांत्रिक देश ‘इस्लामी राष्ट्र’ तक़रीबन बन ही गया!

सब सत्ता का खेल है!

बांग्लादेश के इस्लामी देश बन जाने से बड़े ख़तरे क्या होने वाले हैं? इससे जुड़े कुछ मामलों पर तस्लीमा नसरीन ने एक साक्षात्कार में हाल ही खुलकर अपने विचार रखे। कुछ सवाल और जवाब यहां देखिए और इन शब्दों की ध्वनियों को ठीक से बांचिए:

— बांग्लादेश अब एक सांप्रदायिक, लंगड़ी सरकार के अधीन है, जिसने शासन की सारी वैधता खो दी है, आपकी क्या राय है?
— बिल्कुल मैं पूरी तरह सहमत हूँ। जो सरकार जनविश्वास खो चुकी है तथा भय और दमन के ज़रिये राज कर रही है, वह वैधता का दम कैसे भर सकती है! जब नागरिकों को स्वतंत्र रूप से मतदान करने के अधिकार से वंचित किया जाता है, जब विपक्ष को चुप करा दिया जाता है और जब प्रैस बोलने नहीं देती, तो लोकतंत्र एक खोखला शब्द बन जाता है। यह पिछली सरकार के लिए भी सच था और मौजूदा सरकार के लिए भी उतना ही कड़वा सच है।

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बांग्लादेश को एक ऐसी सरकार की ज़रूरत है जो अपने लोगों की इच्छा का प्रतिनिधित्व कर सके, न कि किसी शासक परिवार या सांप्रदायिक बहुमत की। जितनी जल्दी लोकतंत्र बहाल होगा, उतनी ही जल्दी देश अपनी बर्बाद हुई संस्थाओं का पुनर्निर्माण शुरू कर सकेगा। शासन के मूल में अगर पारदर्शिता, जवाबदेही और धर्मनिरपेक्ष मूल्य नहीं हैं तो वास्तविक स्वतंत्रता संभव ही नहीं है।

— चिंताजनक है कि देश इस्लामी कट्टरपंथ के एक ख़तरनाक दौर में आ गया है। आप इस पतन को कैसे समझती हैं: क्या यह मुख्यतः राजनीतिक है, वैचारिक या किसी गहरे सामाजिक पतन का परिणाम है?
— इस्लामी कट्टरपंथ का उदय राजनीति, विचारधारा और सामाजिक पतन के एक लंबे और ख़तरनाक घालमेल का अंजाम है। राजनीतिक रूप से, धर्म को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया है – सत्ता हासिल करने और असहमति को दबाने के लिए एक सुविधाजनक साधन। एक के बाद एक सरकारों ने धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की रक्षा करने के बजाय कट्टरपंथियों के साथ समझौता किया। वैचारिक रूप से, दशकों से चली आ रही सांप्रदायिक शिक्षा ने तार्किक सोच को तबाह कर दिया। जब तर्क की जगह विश्वास ले लेता है, तो असहिष्णुता बेलगाम हो ही जाती है। सामाजिक रूप से, यह शिक्षा, महिला अधिकारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पतन का आईना है। एक समाज, जो महिलाओं का दमन करता है, प्रश्न पूछने की प्रवृत्ति को दबाता है और अंधविश्वास को महिमामंडित करता है, कट्टरता में डूब जाना उसकी नियति ही है…

आज बांग्लादेश स्वतंत्रता समर्थकों और स्वतंत्रता विरोधी ताक़तों के बीच बुरी तरह ध्रुवीकृत और विभाजित दिखायी देता है, जो 1971 के विभाजन की याद दिलाता है।

— क्या इस्लामी ताक़तों ने बंगाली राष्ट्रवाद की जगह प्रभावी रूप से ले ली है? क्या आपको लगता है 1971 वाली धर्मनिरपेक्ष भावना पूरी तरह से नेस्तनाबूद हो चुकी है, और अब इस्लामी तत्व सत्ता पर क़ाबिज़ हो गये हैं? हिंदुओं पर अत्याचार आम बात है और इसे ‘ग़ैर-मुद्दा’ माना जा रहा है? और क्या आपको डर है निकट भविष्य में बांग्लादेश खुलेआम इस्लामवादी, शरिया-संचालित राज्य की ओर बढ़ रहा है?
— बिलकुल, इस्लामी ताक़तें बांग्लादेश की धर्मनिरपेक्ष बांग्ला संस्कृति को इस्लामी संस्कृति से बदलने पर आमादा हैं। उनका लक्ष्य पूरी तरह से सत्ता पर कब्ज़ा करना और सांप्रदायिक विचारधारा के अनुसार देश को नये सिरे से आकार देना है। फिर भी, मुझे विश्वास है कि उम्मीद ख़त्म नहीं हुई है। मुक्ति संग्राम समर्थक और धर्मनिरपेक्ष ताक़तें अभी भी मरी नहीं हैं। वे एकजुट होकर तरक़ीब से काम लें, तो आगामी चुनाव में इस्लामी ताक़तों को हराया जा सकता है।

बांग्लादेश शरिया-संचालित राज्य बनेगा या नहीं, यह इससे तय होगा कि प्रगतिशील राजनेता इस लड़ाई को कितनी कुशलता से लड़ते हैं। ख़तरा बहुत वास्तविक है। अगर इस्लामवादी कामयाब हो गये, तो देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने का सत्यानाश कर देंगे, उदार मूल्यों को मिटा देंगे, महिलाओं को अंधकार युग में धकेल देंगे, उन्हें घरों में क़ैद कर देंगे, उन्हें शिक्षा और नौकरियों से वंचित कर देंगे, महिलाओं को पर्दा पहनने के लिए मजबूर किया जाएगा, सारी आज़ादी छीन ली जाएगी। जब महिलाएं अपनी आज़ादी खो देती हैं, तो पूरा समाज अपनी आत्मा गंवा देता है।

राजनेताओं को वोट के लिए धर्म का इस्तेमाल बंद करना होगा। इसके बजाय, उन्हें इस्लामवादियों का असली और घिनौना चेहरा उजागर करना होगा— आज़ादी से उनकी नफ़रत, महिलाओं से उनका डर और आधुनिकता का उनका खंडन। तभी बांग्लादेश 1971 की भावना को पुनः प्राप्त कर सकेगा।

[शेख़ हसीना (बाएं) और तस्लीमा नसरीन (दाएं)। बीच में वह ​कार्टून (साभार) जो तस्लीमा नसरीन ने पिछले दिनों अपने सोशल मीडिया पर पोस्ट किया।]

भवेश दिलशाद, bhavesh dilshaad

भवेश दिलशाद

क़ुदरत से शायर और पेशे से पत्रकार। ग़ज़ल रंग सीरीज़ में तीन संग्रह 'सियाह', 'नील' और 'सुर्ख़' प्रकाशित। रचनात्मक लेखन, संपादन, अनुवाद... में विशेष दक्षता। साहित्य की चार काव्य पुस्तकों का संपादन। पूर्व शौक़िया रंगमंच कलाकार। साहित्य एवं फ़िल्म समालोचना भी एक आयाम। वस्तुत: लेखन और कला की दुनिया का बाशिंदा। अपनी इस दुनिया के मार्फ़त एक और दुनिया को बेहतर करने के लिए बेचैन।

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