saleem sarmad
पाक्षिक ब्लॉग सलीम सरमद (03.12.1982) की कलम से....

जंगल की रात और तख़लीक़

           पचमढ़ी की सिम्त पिपरिया नगर के आख़िरी छोर पर चूहे के बिल की तरह रास्ता…. जंगल की गहराई में धंसने लगता है। जंगल के बीचो-बीच शाम के वक़्त काले डांबर पर चलते हुए ऐसा महसूस होता है, मानो काले साँप की पीठ पर चल रहे हैं और जल्द ही उसके फन को छू लेंगे मगर रास्ते में इतने कर्व और उतार-चढ़ाव हैं कि रास्ता ख़त्म ही नहीं होता…

ये रास्ता पचमढ़ी की ओर जाता है तो ज़ाहिर है साँप का फन ऊपर उठा हुआ होगा लेकिन अस्ल चढ़ाई मटकुली से शुरू होती है। पचमढ़ी जिन पहाड़ों पर विराजमान है उनके तली के एक कोने में मटकुली गांव है, जहां पर मैं कुछ महीनों के लिए मुक़ीम था, मेरा घर गांव से अलग था जिसे जंगल की घनी हरी हथेली ने जकड़ के रखा था। एक रात जब लाइट गुल हो गयी तो मेरी आँखों ने जीवन में पहली बार रात के ऐसे अंधेरे का ज़ायका लिया, मैंने रात को इतना काला होते हुए पहले कभी नहीं देखा था। जंगल में रात के अंधेरे ने मेरे घर को चारों तरफ़ से घेर लिया था।

अक्सर अंधेरे में पलकों को दो-चार बार झपकाने के बाद या दिल में किसी ख़याल की क़ंदील से या दूर कहीं किसी घर की चौखट पर दीये की झिलमिल से अंधेरे के सीने में सूराख़ हो ही जाता है मगर वो अंधेरा काजल से भी मज़ीद गाढ़ा होकर मेरी आँखों से होते हुए मेरी रूह में उतरने लगा था। मैं गहरी कालिमा को अपनी आँखों से नोच फेंकना चाहता था, मैं जितना आँखों को मसल के खोलता अंधेरा उतना ही और बढ़ता जाता, उस रात अंधेरा अपने उरूज पर था। जंगल की रात का अंधेरा कितना गहरा, घना और दूर तक फैला हुआ हो सकता है, ये मुझे उस रात को मालूम चला। एक मिसरा मेरे ज़ेह्न में गूंजा-

कोई रात जंगल की पीछे पड़ी है

क्योंकि वो रात मेरे सीने में दाख़िल हो चुकी थी और अंदर-बाहर हर तरफ़ सिर्फ़ अंधेरे की हुकूमत थी। शायद ऊंचे पेड़ों के काले सायों के बीच चांदी के सिक्कों जैसे तारे भी ग़ायब थे और चांद किसी काली बदली को ओढ़ के आसमानी अंधेरे कमरे में जाने किसके साथ औंधा पड़ा हुआ था। मेरे ज़ेह्न में जो मिसरा गूंजा था उसे शेर होते देर न लगी-

कोई रात जंगल की पीछे पड़ी है
मेरे ज़ेह्नो-दिल में उजाले नहीं हैं

ज़ेह्नो-दिल में उजाले न होने का अहसास लफ़्ज़ों में बयान नहीं किया जा सकता, अंधेरा इतना गहन काला हो सकता है, उस कालिमा को अर्थ देने वाली कोई आवाज़ बनी ही नहीं है, काला लफ़्ज़ भी उसके लिए हल्का है। कोई नाबीना बताये भी तो कैसे बताये कि अंधेरा कितना काला है। मेरे इस नये-नये अंधेपन को और अल्फ़ाज़ नहीं मिले… ग़ज़ल फिर नहीं हो सकी।

मैं जब शहर लौटा तो मुझे लगा, मैं उस अंधेरे को अपने साथ ही ले आया हूँ और अब मुझसे वही आशना है। ये शहर भी मुझे भूल-सा गया है। मैंने उस शेर में कुछ मिसरे और जोड़कर एक छोटी सी नज़्म बना दी-

मेरे नाम का चांद डूबा है बादल में
तारों से रग़बत है कम
तीरगी में दीये भी तो मैंने
संभाले नहीं हैं
कोई रात जंगल की पीछे पड़ी है
मेरे ज़हनो-दिल में उजाले नहीं हैं

सलीम सरमद

सलीम सरमद

1982 में इटावा (उ.प्र.) में जन्मे सलीम सरमद की शिक्षा भोपाल में हुई और भोपाल ही उनकी कर्म-भूमि है। वह साहित्य सृजन के साथ सरकारी शिक्षक के तौर पर विद्यार्थियों को भौतिक विज्ञान पढ़ाते हैं। सलीम अपने लेखन में अक्सर प्रयोगधर्मी हैं, उनके मिज़ाज में एकरंगी नहीं है। 'मिट्टी नम' उनकी चौथी किताब है, जो ग़ज़लों और नज़्मों का संकलन है। इससे पहले सरमद की तीन किताबें 'शहज़ादों का ख़ून' (कथेतर) 'दूसरा कबीर' (गद्य/काव्य) और 'तीसरा किरदार' (उपन्यास) प्रकाशित हो चुकी हैं।

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