
- October 30, 2025
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पाक्षिक ब्लॉग ज़ाहिद ख़ान की कलम से....
अख़्तरुल ईमान: उर्दू अदब में जदीद नज़्मों की इब्तिदा
अख़्तरुल ईमान अपने दौर के संजीदा शायर और बेहतरीन डायलॉग राइटर थे। अक्सर लोग उन्हें फ़िल्मी लेखक के तौर पर याद करते हैं, मगर यह भूल जाते हैं कि फ़िल्मों में आने से पहले वो एक नामचीन शायर थे, और ता-उम्र बेहद संजीदगी से शायरी करते रहे। उन्होंने शायरी की, नज़्में लिखीं, मगर फ़िल्मों के लिए कोई गाना नहीं लिखा। नग़मानिगारी से उन्होंने एक दूरी बनाये रखी। जबकि उनके सभी साथी शायर साहिर लुधियानवी, कैफ़ी आज़मी, मजरूह सुल्तानपुरी, जांनिसार अख़्तर वग़ैरह फ़िल्मों के लिए गीत लिख रहे थे। अख़्तरुल ईमान का तरक़्क़ी-पसंद तहरीक से भी वास्ता रहा। वे एक आला नज़्म निगार थे। उर्दू अदब में जदीद नज़्मों की इब्तिदा उन्होंने ही की। उनकी नज़्मों में सीधी-सादी शायरी नहीं, बल्कि उनमें एक मुकम्मल कहानी होती है, जो ख़त्म होते-होते पाठकों के जे़हन में अनगिनत सवाल छोड़ जाती हैं। वे एक यथार्थवादी और आधुनिक शायर थे। उनकी नज़्मों में सिर्फ़ इश्क़-मुहब्बत ही नहीं, आम आदमी की ज़िन्दगी की जद्दोजहद भी साफ़ दिखायी देती है।
अख़्तरुल ईमान ने सत्रह-अठारह साल की उम्र में ही शायरी का आग़ाज़ कर दिया था। थोड़े-से ही अरसे में अपनी रूमानी नज़्मों की बदौलत वे कॉलेज में अलग से पहचाने जाने लगे। उनके ख़ास दोस्त उन्हें ब्लैक जापान अख़्तरुल ईमान कहकर पुकारते। पढ़ाई और शायरी के अलावा अख़्तरुल ईमान की दिलचस्पी सियासत में भी थी। स्टूडेंट पॉलिटिक्स में वे खुलकर हिस्सा लेते थे। आगे चलकर उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी से फारसी में एम.ए. किया। अलीगढ़ यूनीवर्सिटी में ही पढ़ाई के दौरान अख़्तरुल ईमान तरक़्क़ी-पसंद शायरों के संपर्क में आये और उनकी शायरी में एक अलग रुजहान पैदा हुआ। पढ़ाई मुकम्मल करने के बाद, एक बार फिर उनके सामने रोज़ी-रोटी का सवाल था। उन्होंने मेरठ और दिल्ली में छोटी-छोटी नौकरियां कीं। कुछ दिन दिल्ली रेडियो स्टेशन में भी रहे, मगर कहीं भी उनका स्थायी ठिकाना नहीं रहा।
आख़िरकार, अख़्तरुल ईमान का लेखन ही काम आया। दोस्तों की मदद से उन्हें पूना के ‘शालीमार पिक्चर्स’ में बतौर कहानीकार और संवाद लेखक की नौकरी मिल गयी। ‘शालीमार पिक्चर्स’ में उस वक़्त जोश मलीहाबादी, सागर निज़ामी, कृश्न चन्दर और भरत व्यास जैसे आला दर्जे के अदीब पहले ही इकट्ठा थे, अख़्तरुल ईमान भी उस गिरोह का हिस्सा हो गये। ‘शालीमार पिक्चर्स’ के जब सितारे ग़र्दिश में आये, तो वे मुम्बई चले आये। अख़्तरुल ईमान ने बचपन से ही ख़ूब ग़रीबी झेली थी, करियर बनाने के लिए उन्होंने जी-जान लगा दी। कुछ ही दिनों में उन्होंने डायलॉग राइटर के तौर पर अपनी पहचान बना ली। एक ज़माना था, जब हिन्दी सिनेमा के बड़े बैनर की फ़िल्में उन्हें ही मिलती थीं। और इन फ़िल्मों की कामयाबी में भी अख़्तरुल ईमान के धारदार डायलॉग का हाथ होता था। फ़िल्मों में लिखे उनके डायलॉग थिएटर से निकलकर दर्शकों के घर तक जाते थे।

अख़्तरुल ईमान की एक तरफ़ फ़िल्मों में स्टोरी और डायलॉग राइटर के तौर पर धूम मची हुई थी, तो दूसरी ओर वे शायरी में भी मशगूल थे। तमाम मसरूफ़ियत के बाद भी उन्होंने शायरी से किनारा नहीं किया। शायरी में वे फै़ज़ अहमद फै़ज़, मुईन अहसन जज़्बी, मजाज़, मख़दूम और मीराजी से ज़्यादा मुतास्सिर थे। या यूं कहें, मीराजी का ही उन पर ज़्यादा असर था। यही वजह है कि उनकी शायरी भी व्यक्तिवादी और प्रतीकवादी है। आगे चलकर उनकी शायरी ने सामाजिकता को एक अलग एंगल से छुआ। उनकी बेहद चर्चित नज़्मों में से एक ‘एक लड़का’ नज़्म पर नज़र डालिए:
‘‘मैं उस लड़के से कहता हूँ वो शोला मर चुका जिसने/कभी चाहा था इक ख़ाशाक-ए-आलम फूँक डालेगा/ये लड़का मुस्कुराता है ये आहिस्ता से कहता है/ये किज़्ब-ओ-इफ़्तिरा है झूट है देखो मैं ज़िन्दा हूँ।’’
साल 1942 से 1947 तक बम्बई में तरक़्क़ी-पसंद तहरीक अपने उरूज पर थी। अख़्तरुल ईमान भी अक्सर ‘अंजुमन तरक़्क़ी-पसंद मुसन्निफ़ीन’ के जलसों में जो सज्जाद ज़हीर के घर होते, उसमें शरीक होते थे। बहस में हिस्सा लेते, अपनी नज़्में पढ़ते थे। ‘अंजुमन तरक़्क़ी-पसंद मुसन्निफ़ीन’ की 1949 की भिवंडी कॉन्फ्रेंस में भी उन्होंने न सिर्फ़ सरगर्मी से हिस्सा लिया, बल्कि अतिवादी प्रस्ताव का जमकर विरोध किया। अख़्तरुल ईमान ने ग़ज़ल की बजाय नज़्म ही ज़्यादा लिखीं। उर्दू अदब में उनकी पहचान नज़्मनिगार की है। ‘ज़िन्दगी का वक़्फ़ा’, ‘आख़िरी मुलाकात’, ‘डासना स्टेशन का मुसाफ़िर’, ‘बिंत-ए-लम्हात’, ‘यादें’, ‘तन्हाई में’, ‘नया आहंग’, ‘उम्र-ए-गुरेज़ां के नाम’, ‘अहद-ए-वफ़ा’, ‘ज़िन्दगी के दरवाज़े पर’ और ‘मताअ-ए-राएगां’ वग़ैरह उनकी मशहूर नज़्में हैं।
‘‘तुम्हारे लहजे में जो गर्मी ओ हलावत है/उसे भला सा कोई नाम दो वफ़ा की जगह/ग़नीम-ए-नूर का हमला कहो अंधेरों पर/दयार-ए-दर्द में आमद कहो मसीहा की।’’ (‘बिंत-ए-लम्हात’) ‘‘उम्र यूँ मुझसे गुरेज़ाँ है कि हर गाम पे मैं/इसके दामन से लिपटता हूँ मनाता हूँ इसे/वास्ता देता हूँ महरूमी ओ नाकामी का/दास्ताँ आबला-पाई की सुनाता हूँ इसे।’’ (उम्र-ए-गुरेज़ां के नाम)
अख़्तरुल ईमान की शायरी में ज़िन्दगी के छोटे-छोटे लम्हे, तअस्सुरात बड़े ही बारीक़ी से नुमायां होते हैं। कई मर्तबा इन नज़्मों में क़ुदरत का बयान भी तफ़सील से आता है। ‘जाने शीरीं’, ‘मुहब्बत’, ‘अहद-ए-वफ़ा’ आदि अख़्तर-उल-ईमान की नज़्मों में मुहब्बत के नाज़ुक-नाज़ुक एहसास हैं। अख़्तरुल ईमान अपनी शायरी पर खु़द तनक़ीद करते थे। एक किताब की भूमिका में उन्होंने अपनी शायरी के बारे में लिखा है, ‘‘यह शायरी मशीन में नहीं ढली, एक ऐसे इन्सान के ज़ेहन की रचना है, जो दिन-रात बदलती हुई सामाजिक, आर्थिक और नैतिक मूल्यों से दो-चार होता है। जहां इन्सान ज़िन्दगी और समाज के साथ बहुत से समझौते करने पर मजबूर है, जिन्हें वो पसंद नहीं करता। समझौते इसलिए करता है कि उसके बिना ज़िन्दा रहना मुम्किन नहीं और उनके ख़िलाफ़ आवाज़ इसलिए उठाता है कि उसके पास ज़मीर नाम की एक चीज़ है।’’
ज़ाहिर है ये आवाज़ तन्हा अख़्तरुल ईमान के ज़मीर की ही आवाज़ नहीं, बल्कि उनके दौर के हर संवेदनशील शख़्स के ज़मीर की आवाज़ है। समाज में जो उन्होंने महसूस किया, उसे ही अपनी शायरी में ढाल दिया। यही वजह है कि अख़्तरुल ईमान की शायरी यथार्थ की बेहद खुरदुरी ज़मीन पर खड़ी दिखायी देती है। उनकी बाज़ नज़्में बड़ी तवील हैं, जिनमें वे एक कामयाब क़िस्सा-ग़ो की तरह पूरे मंज़र को बयां करते चले जाते हैं। ‘डासना स्टेशन का मुसाफ़िर’, ‘दिल्ली की गलियां तीन मंज़र’ इन नज़्मों की कैटेगरी में शुमार होती हैं।
अख़्तरुल ईमान ने अपने फ़िल्मी करियर की शुरूआत साल 1948 में फ़िल्म ‘झरना’ से की लेकिन ‘कानून’ वह फ़िल्म थी, जिसने उन्हें फ़िल्मी दुनिया में स्थापित कर दिया। डायरेक्टर बी.आर. चोपड़ा की इस फ़िल्म में कोई गाना नहीं था। फ़िल्म की कामयाबी के पीछे इसके शानदार डायलॉग का हाथ था। आगे चलकर उन्होंने बी.आर. चोपड़ा और उनके भाई यश चोपड़ा की अनेक फ़िल्मों के डायलॉग लिखे। अपने पचास साल के फ़िल्मी करियर में अख़्तरुल ईमान ने 100 से ज़्यादा फ़िल्मों के संवाद लिखे। जिनमें नग़मा, रफ़्तार, ज़िन्दगी और तूफ़ान, मुग़ल-ए-आज़म, वक़्त, हमराज़, दाग़, आदमी, पाकीज़ा, पत्थर के सनम, गुमराह, मुजरिम, मेरा साया, आदमी और इंसान, चांदी-सोना, धरमपुत्र, और अपराध जैसी कामयाब फ़िल्में शामिल हैं। ‘वक़्त’ और ‘धरमपुत्र’ के लिए वो बेहतरीन संवाद लेखन के फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड से नवाज़े गये। उन्होंने एक फ़िल्म ‘लहू पुकारेगा’ का डायरेक्शन भी किया, अलबत्ता यह फ़िल्म बॉक्स ऑफ़िस पर ना-कामयाब साबित रही।
अख़्तरुल ईमान साल 1943 में अपनी पहली ही किताब ‘गिर्दाब’ के प्रकाशन के साथ ही सफ़-ए-अव्वल के शायरों में शुमार किये जाने लगे थे। इस किताब का तब्सिरा करते हुए फ़िराक़ गोरखपुरी ने लिखा था, ‘‘नये शायरों में सबसे घायल आवाज़ अख़्तरुल ईमान की है। उसमें जो चुटीलापन, तल्ख़ी और जो दहक और तेज़ धार है, वो ख़ुद बता देगी कि आज हिन्दुस्तान के संवेदनशील नौजवानों की ज़िन्दगी की त्रासदी क्या है?’’ अख़्तरुल ईमान की नज़्मों के अनेक संग्रह प्रकाशित हुए। जिनमें से कुछ ख़ास किताबें हैं- ‘सब रंग’, ‘तारीक सय्यारा’, ‘आब-ए-जू’, ‘यादें’, ‘बिंते लम्हात’, ‘नया आहंग’, ‘सर-ओ-सामाँ’, ‘ज़मीन ज़मीन’ और ‘ज़मिस्ताँ सर्द-मेहरी का’। ‘इस आबाद ख़राबे में’ उनकी आत्मकथा है, तो वहीं ‘सबरंग’ एक गीति-नाट्य है, जिसमें मज़दूरों के शोषण की प्रतीकात्मक कहानी है।
अपनी बेमिसाल तख़्लीकात के लिए अख़्तरुल ईमान कई एज़ाज़ और इनामात से भी नवाजे़ गये। किताब ‘यादें’ पर उन्हें साहित्य अकादेमी अवार्ड, तो ‘बिंते लम्हात’ पर उ.प्र. उर्दू अकादेमी और मीर अकादेमी ने उनको इनाम दिया। महाराष्ट्र उर्दू अकादेमी ने किताब ‘नया आहंग’ को अवार्ड दिया। यही नहीं ‘सर-ओ-सामाँ’ के लिए वो मध्य प्रदेश सरकार के ‘इक़बाल सम्मान’ से नवाज़े गये। इसी किताब पर अख़्तरुल ईमान को दिल्ली उर्दू अकादेमी और ग़ालिब इंस्टीट्यूट ने भी इनामात दिये।

जाहिद ख़ान
इक्कीसवीं सदी के पहले दशक से लेखन की शुरुआत। देश के अहम अख़बार और समाचार एवं साहित्य की तमाम मशहूर मैगज़ीनों में समसामयिक विषयों, हिंदी-उर्दू साहित्य, कला, सिनेमा एवं संगीत की बेमिसाल शख़्सियतों पर हज़ार से ज़्यादा लेख, रिपोर्ट, निबंध,आलोचना और समीक्षा आदि प्रकाशित। यह सिलसिला मुसलसल जारी है। अभी तलक अलग-अलग मौज़ूअ पर पन्द्रह किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक के हमसफ़र’ के लिए उन्हें ‘मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन’ का प्रतिष्ठित पुरस्कार ‘वागीश्वरी पुरस्कार’ मिला है। यही नहीं इस किताब का मराठी और उर्दू ज़बान में अनुवाद भी हुआ है।
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