
- August 1, 2025
- आब-ओ-हवा
- 4
मुंशी प्रेमचंद ने शुरू में (और उसके बाद भी) 'नवाबराय' नाम से उर्दू में विशद लेखन किया। हालांकि अब के हिंदी पाठकों तक उनकी उर्दू कहानियां कम ही पहुंचीं। उनकी यह दिलचस्प उर्दू लघु कहानी यहां लिप्यंतर एवं हिंदी शब्दार्थों सहित देवनागरी के पाठकों के लिए विशेष रूप से प्रस्तुत है...
मुंशी प्रेमचंद की कलम से....
दरवाज़ा
मेरी जान हमेशा आफ़त में रहती है। अव्वल तो घर के लड़के दम नहीं लेने देते। मेरे दोनों पट्टों को ज़ोर से टकराना उनका खेल है। मेरी पसलियां चूर हो जाती हैं। दूसरे हवा के तेज़ झोंके और भी बलाए-जां इस बेरहमी से मुझे ज़ेरो-ज़बर (अस्त-व्यस्त, उथल-पुथल) करते हैं कि अलामान (परमात्मा ख़ैर करे), इस पर तुर्रा ये कि मेरी फ़ुग़ाने-दर्द (दर्दभरी चीख) पर साहबेख़ाना (गृहस्वामी) को भी तरस नहीं आता। वह उल्टे मुझी पर नाराज़ होते हैं। मैं घर का राज़दार हूं और ज़ाहिरदारी (बनावट, दिखावट) को निभाना मेरा काम है। अक्सर घर में साहबेख़ाना के मौजूद होने पर भी मुझे बंद कर दिया जाता है। ख़ासकर किसी चंदे की वूसलियां, बजाज के तक़ाज़े के दिन मुझे बंद कर दिया जाता है और वे अपना-सा मुंह लेकर लौट जाते हैं। मैं सीनासिपर (छाती तानकर) अपने आक़ा को नदामत (लज्जा) और हीलासाज़ी (बहानेबाज़ी, चालबाज़ी) से बचा लेता हूं। मगर पिछले दिनों जब मुझे बंद देखकर डाकिया मनीआर्डर वापिस ले गया तो तो साहबेख़ाना मुझी को कोसने लगे। मेरी नेकियों का कोई भी नाम नहीं लेता, मगर बुराइयों पर सबके सब बरहम (क्रोधित) हो जाते हैं।
ज़माने का अजब ढंग है। मुझे अपने फ़राहिज़े मंसबी (कर्त्तव्यों का पालन) देने में कितनी गालियां खानी पड़ती हैं। मुझे बंद पाकर लुक्माए-लज़ीज़ (स्वादिष्ट भोजन) की ख़्वाहिश से बेताब कुत्ते कितने बरहम हो जाते हैं और कितने मायूस, और चोर तो मेरी जान के गाहक हैं। कभी बग़ली घूंसे मारते हैं, कभी चूल खिसका देते हैं। कभी कुछ हत्ता (जहां तक) के गदागरों (भिखारियों) को भी मुझसे बुग़्ज़ (अप्रकट द्वेष) है। मुझे बंद पाकर कोसते हैं और नाकाम वापिस लौट जाते हैं।
आह! उम्र-रफ़्ता (व्यतीत आयु) की याद कितनी हसरतनाक (दुखपूर्ण) है? मैंने कभी अच्छे दिन देखे हैं। वह दिन नहीं भूलता, जब मलिका (स्वामिनी) नयी-नवेली दुल्हन बनी, गहनों से लदी, शर्म से सर झुकाये पालकी से उतरी थीं। उस वक़्त पहले मैंने ही उनकी रुख़रोशन (मुख-दीप्ति) का नज़ारा किया था और उनके कमल-से नाज़ुक पैरों को बोसा लिया था। एक रोज़ जब बाबूजी शाम को किसी वजह से घर नहीं आये, तो इंतज़ार में बैठे-बैठे उकताकर वह नवेली दुल्हन हया से गर्दन झुकाये, दीवारों से लजाती मेरी गोद में आकर खड़ी हो गयी और कितनी देर तक मेरे पहलुओं में लिपटी हुई सामने के वसीअ मैदान की तरफ़ ताकती रही। उसके दिल में उस वक़्त कैसी धड़क थी और आंखों में कितना फ़िकर आमेज़ इश्तियाक़ (चिंतापूर्ण उत्कंठा)। बाबू साहब को आड़े से आते देखकर वह किस तरह ख़ुशी से उमड़ी हुई जल्दी से घर चली गयी, यह पुरमज़ा (आनंदपूर्ण) बातें कभी भूल सकती हैं? बाबूजी ज्यूं-ज्यूं बूढ़े होते जाते हैं, उन्हें मुझसे उन्स होता जाता है। अब वह अक्सर मेरे पहलुओं में बैठे रहते हैं, शायद उन्हें मेरी जुदाई का ग़म सताया करता है। अभी जब वह बीमार थे तो मालकिन कितनी बार मुझसे लिपट-लिपटकर रोयी थीं, मालूम नहीं क्या!
इस घर में कौन क़दम रखेगा, अगर उसे मालूम हो जाये कि उसे कभी यहां से जाने का अख़्तियार नहीं है। मैं घर और बाहर के बीच की कड़ी हूं। बाहर कितना वसीअ (विस्तृत) मैदान है। कैसे सुहाने, सब्ज़ाज़ार (हरियाली ही हरियाली), कैसी मुस्कराती हुई आबादियां, कितनी वसीअ दुनिया। घर महदूद है, बाहर की कोई इंतिहा नहीं। महदूद (सीमित) और ग़ैरमहदूद (असीमित) के दरमियान रिश्ता-ए-इत्तिसाल (मिलन का संबंध) हूं। क़तरे को बहर से मिलाना मेरा काम है। मैं एक किश्ती हूं, फ़ना (मृत्यु) से बक़ा (जीवन) को ले जाने के लिए।
[‘अलनाज़िर’, उर्दू मासिक पत्रिका, जनवरी 1917 से इसका हिन्दी लिप्यन्तरण कमल किशोर गोयनका ने किया और ‘सारिका’, अक्टूबर 1988 के अंक में प्रकाशित करवाया]
(2005 में प्रकाशित, डॉ. कमलकिशोर गोयनका द्वारा संकलित-संपादित पुस्तक ‘प्रेमचंद की अप्राप्य कहानियां’ से यह कहानी साभार ली गयी है। इस पुस्तक में टंकण एवं प्रूफ़ संबंधी ग़लतियों को यहां सुधारकर प्रस्तुत किया गया है। -संपादक)

मुंशी प्रेमचंद
बस नाम ही काफ़ी है...
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कठिन उर्दू शब्दों के अर्थ हिंदी में लिखे होने के कारण कहानी को पढ़ना और समझना सहज हो गया। प्रेमचंद जी को पहली बार इस तरह पढ़ा,लेकिन वह अपने जैसे एक ही रहे।दरवाजे पर लिखकर दरवाजे को अमर कर दिया। शुक्रिया इस कहानी को पढ़ने के लिये।
बढ़िया कहानी पहली बार पढ़ी। अच्छा हुआ उर्दू के साथ हिंदी के शब्द भी लिख दिए।
एक दरवाज़े की व्यथा कथा अच्छी लगी ।
प्रेमचंद को पढ़ना हमेशा सुखदायक होता है ।
धन्यवाद आबो हवा ।
दरवाज़े जैसी बेजान चीज़ में भी जान डाल दी प्रेमचंद जी की इस कहानी ने।