
- September 29, 2025
- आब-ओ-हवा
- 6
(विधाओं, विषयों व भाषाओं की सीमा से परे.. मानवता के संसार की अनमोल किताब -धरोहर- को हस्तांतरित करने की पहल। जीवन को नये अर्थ, नयी दिशा, नयी सोच देने वाली किताबों के लिए कृतज्ञता का एक भाव। साप्ताहिक पेशकश हर सोमवार आब-ओ-हवा पर 'शुक्रिया किताब'.. इस बार देश के एक अभिशप्त समाज की अनसुनी कहानी कहती एक चर्चित आत्मकथा की चर्चा -संपादक)
शशि खरे की कलम से....
हर संवेदनशील भारतीय को शर्मसार करती किताब
“नैतिक मूल्य और ईमानदारी की हमारी संकल्पना में ज़बरदस्त विसंगति है”- लेखक के बेहद त्रासदायी जीवन-अनुभवों से जो सार तथ्य निकले हैं, उनमें से यह एक है। ‘उचक्का’ आत्मकथा है, पारिधी जनजाति के लेखक व सामाजिक कार्यकर्ता लक्ष्मण गायकवाड़ की। लेखक ने भूमिका में लिखा है कि यहांँ की वर्ण व्यवस्था, समाज व्यवस्था में रहने वाले सुविधाभोगी मध्यवर्गीय यहाँ तक कि ग़रीब तबक़ा भी मेरे समाज के दुःखों की कल्पना तक नहीं कर सकता। यह पुस्तक उस लोक में ले जाती है, जो बड़े वर्ग के लिए अदेखा है।
लेखक ने अपने बचपन की भूख, चोरी, पढ़ाई की स्थितियों और परिजनों की पुलिस द्वारा पिटाई का जो वर्णन किया है, वह भीषण क्रूरता से भरा हुआ है। दुख, अभाव, भूख तो समझ आती है लेकिन इनमें जन्मे, इनसे आजीवन जूझते रहने वालों की जीवनशैली इतनी जुगुप्सित होगी, इसकी कल्पना तक कठिन है। लेखक ने उस समाज आधारित, भाषा के प्रचलित अंदाज़ में सभी तरह के शब्दों का प्रयोग किया है, अन्य कोई चारा भी न था। लेखक ने भोगा है इसलिए नग्न सत्य के पीछे दुःख, कातरता, कचोट सामने रखने के साथ-साथ अप्रत्यक्ष ग़ुस्सा है, यह भाव भी है कि लो देखो, जानो कि क्या है हमारा जीवन।
लक्ष्मण गायकवाड़ के परिवार और समाज ने जो भोगा, वह तो 1890 के शिकागो के माँस कारखानों में काम करने वालों से कई गुना अधिक क्रूर है, असहनीय, नारकीय है।

भारत में ऐसी कुछ जातियां हैं, जिनके लोगों को जन्म से ही अपराधी घोषित कर दिया जाता है- बंजारा, गाड़िया लोहार, पारिधी, कोली, मीणा, गुज्जर, बावरिया आदि। विश्व के कुछ और देशों में भी ऐसा है जैसे अमेरिका में गैंग, अफ्रीका में बुशमैन, आस्ट्रेलिया में स्टोलेन जेनरेशन अपराधी प्रवृत्ति के माने जाते हैं।
1952 में भारत में अपराधी जनजाति अधिनियम निरस्त किया गया। समाज की, लोगों की अवधारणा बदले, इन सभी भुक्तभोगियों के प्रति तो कुछ अच्छा है। पुष्पा मेत्रैयी का उपन्यास ‘अल्मा कबूतरी’ भी गाड़िया लोहार बंजारों को जन्मजात अपराधी मानने की प्रथा पर है, परन्तु यहाँ (उचक्का) तो लेखक ने जलते अंगारों सा सत्य लिखा है। तेलुगु में इनके लिए एक शब्द है संतामुच्चर-संता यानी बाज़ार और मुच्चर अर्थात चोर। उठाईगीर कहकर लोग काम नहीं देते। जेब काटने की ब्लेड को साक्षात लक्ष्मी के समान पूजा जाता है। कई कई दिन खाने को नहीं, कभी मोटे रद्दी अनाज का घोल, कभी मछली, चूहे, बिल्ली से लेकर कोई भी पशु जो मिला.. स्नान जानते नहीं, कीड़े, चीलर से भरे शरीर, पुलिस की थर्ड डिग्री… बस मनुष्य देहधारी ये लोग और पशु से भी अधिक कष्टों से भरा जीवन!
पुलिसिया कार्रवाई उन्हें अपराध करने पर विवश करती है। लेखक पढ़ाई में अच्छे रहे और कष्टों से ही सही पढ़ाई पूरी की। आत्मकथा में जीवन के इस जुगुप्सित रूप का सामना करना बड़ा दुष्कर है एवं किताब से इन उद्धरणों को रखना भी।
यह पुस्तक मनन करने के लिए विवश करती है कि जिनका अपराध बस यही है कि उन्होंने जन्म लिया… उन मजबूरों को, सामाजिक संस्थाएं, कार्यकर्ता, समाजसेवी ही बराबर का स्थान और विश्वास देकर शिक्षा के द्वारा सही राह दिखा सकते हैं। चुनाव जीतने के लिए मुफ़्त-मुफ़्त का लालच देकर पूरे भारतीय चरित्र को भिखारी घोषित करने वाले नेताओं और राजनीतिक दलों से इन पीड़ित समाजों की भलाई की उम्मीद की जा सकती है?
सियासत का धोखा भी झेला
लक्ष्मण गायकवाड़ ने बीएसपी से प्रभावित होकर चुनाव लड़ने की ठानी। उस पार्टी ने भी धोखा दिया। पचास साठ हज़ार देने की बात की। लेखक के पास जो भी था, उसे ख़र्च करने के बाद उधार चुकता करने और कार्यकर्ताओं को खिलाने के लिए कुछ नहीं बचा। मजबूरी में नाम वापस लिया, तब भी पैसा खाने का झूठा आरोप लगा।
लेखक की तरह दो एक कार्यकर्ता और थे, जो अपने इस समाज के लोगों को मानव होने की पहचान भर दिलाने की इच्छा रखते थे। एक बेहद सामान्य जीवन का दिवास्वप्न देखते हुए, ज्वार की एकाध रोटी खाकर 18-18 घंटे प्रचार करते रहे।
अंतत: नाम वापस लेकर 7000 की उधारी चुकाकर लेखक ने राजनीति से विदा ली।
- यह घटना बतलाती है न धर्म, न जाति, न समाज, न देश… इंसान को विभाजित करता है केवल पैसा। इतना ही नहीं इस पैसे में ऐसा आसुरी चुंबक है कि जिसके पास जितना अधिक होता है, उतनी ही उसकी लिप्सा, लालच बढ़ जाता है।
- अमेरिका में अप्टन सिंक्लेयर के उपन्यास ‘द जंगल’ के प्रभाव से मज़दूरों के हित में दो क़ानून बने थे, जिनका अनुकरण विश्व ने किया। हमारे यहाँ 1990 में यह पुस्तक आयी,
जिसे साहित्य अकादमी का पुरस्कार तो मिला किन्तु हमारे समाज में कोई खलबली नहीं हुई, न राजनीति की कुंभकर्णी नींद पर असर हुआ। क्या लेखन जगत भी वैचारिकता से नहीं सेलिब्रिटी की चमक से प्रभावित होता है?
लक्ष्मण गायकवाड़ की यह आत्मकथा
बिना आत्मदया के एवं अपने समाज के लिए भी भीख नहीं बल्कि न्याय की आशा से, आत्मसम्मान के साथ केवल विचार मंथन करते हुए लिखी गयी यह पुस्तक किसी भी संवेदनशील भारतीय को सिर झुकाने पर विवश कर देती है।
लक्ष्मण गायकवाड़ लिखते हैं- “मैं पहली कक्षा से पढ़ रहा था, प्रत्येक पुस्तक का पहला पृष्ठ घोषणा करता- ‘भारत मेरा देश है। सभी भारतीय मेरे बंधु हैं। मुझे अभिमान है।’ तब फिर हम लोग अलग क्यों? हमें काम नहीं, ज़मीन नहीं, खेती मकान कुछ भी क्यों नहीं? क्यों पुलिस को रिश्वत देने, चोरी करने के लिए मजबूर हैं हम।”
लक्ष्मण गायकवाड़ ने जिस जीवन को आत्मकथा (मूलत: मराठी में, हिंदी और अंग्रेज़ी अनुवाद भी चर्चित) में उजागर किया है, वह रोंगटे खड़े कर देने वाला भयावह विद्रूप चेहरे वाला सामाजिक यथार्थ है।
नगरों में जो दिखायी देती है और अख़बारों, मीडिया में जिस ग़रीबी का ज़िक्र होता है, उसका इतना अर्थ समझ आता है- भूख, ज़रूरी चीज़ों, पैसों का एवं एक छत का अभाव किन्तु लातूर का उठाईगीर वर्ग, जिस पर वंशगत अपराधी होने के साथ साथ, अस्पृश्य होने का ठप्पा लगा होने से रोटी, काम, शिक्षा एवं सिर पर छत पाने के सभी सामाजिक, धार्मिक व न्यायी रास्ते बंद कर दिये गये हैं, भयानक उत्पीड़न द्वारा अपराध के रास्ते पर ठेले जाने और पुनः उत्पीड़न के बाद की नारकीय ग़रीबी झेल रहा है।
सत्य तो यह है कि पुस्तक को पढ़ने के बाद कुछ कहने की स्थिति नहीं रह जाती है।
लेखक ने विमुक्त जनजातियों, दलितों, शोषितों के यातनामय जीवनचक्र का आँखों देखा एवं भुक्तभोगा हाल सुना कर कर्तव्य पूरा नहीं समझा। परिवार पालने व अन्यों को भी मदद करने अनेक नौकरियांँ कीं, छोटे-छोटे काम किये। संगठन बनाये, दलित वर्ग के पीड़ितों, मज़दूरों, कर्मचारियों को न्याय दिलाने आंदोलन किये-करवाये। उनके पक्ष में ठोस, सही न्याय दिलाने के लिए मालिकों एवं पुलिस वालों से फिर-फिर पिटाई खायी, आरोप सहे। राजनीति में भी आने का प्रयास इसी उद्देश्य से किया कि इन उपेक्षितों, पीड़ितों के लिए शिक्षा और रोज़गार हो ताकि सामान्य आदमी का जीवन ये भी जी सकें। वे सतत् बेचैन रहे प्रयास करते ही रहे…
पुस्तक ‘उचक्का’ की कथित सफलता यानी साहित्य अकादमी पुरस्कार (जो अर्थाभाव कम न कर सका) की चमक में भी लेखक अपने लक्ष्य, मूल उद्देश्य से भटके नहीं। अपना लक्ष्य भूलो मत- अपने अधिकार की लड़ाई से डिगो मत- ऐसे संदेश देने के लिए भी शुक्रिया किताब।
(क्या ज़रूरी कि साहित्यकार हों, आप जो भी हैं, बस अगर किसी किताब ने आपको संवारा है तो उसे एक आभार देने का यह मंच आपके ही लिए है। टिप्पणी/समीक्षा/नोट/चिट्ठी.. जब भाषा की सीमा नहीं है तो किताब पर अपने विचार/भाव बयां करने के फ़ॉर्म की भी नहीं है। edit.aabohawa@gmail.com पर लिख भेजिए हमें अपने दिल के क़रीब रही किताब पर अपने महत्वपूर्ण विचार/भाव – संपादक)

शशि खरे
ज्योतिष ने केतु की संगत दी है, जो बेचैन रहता है किसी रहस्य को खोजने में। उसके साथ-साथ मैं भी। केतु के पास मात्र हृदय है जिसकी धड़कनें चार्ज रखने के लिए लिखना पड़ता है। क्या लिखूँ? केतु ढूँढ़ता है तो कहानियाँ बनती हैं, ललित लेख, कभी कविता और डायरी के पन्ने भरते हैं। सपने लिखती हूँ, कौन जाने कभी दुनिया वैसी ही बन जाये जिसके सपने हम सब देखते हैं। यों एक कहानी संकलन प्रकाशित हुआ है। 'रस सिद्धांत परम्परा' पुस्तक एक संपादित शोधग्रंथ है, 'रस' की खोज में ही। बस इतना ही परिचय- "हिल-हिलकर बींधे बयार से कांटे हर पल/नहीं निशाजल, हैं गुलाब पर आंसू छल-छल/झर जाएंगी पुहुप-पंखुरी, गंध उड़ेगी/अजर अमर रह जाएगा जीवन का दलदल।
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दिल दहल गया ..
कहने को बराबर पर वास्तव में भेदभाव ..
यही समाज है ।पैसा ही भगवान बना ।
बहुत सही व्यख्या लिखी शशि जी ।
शुक्रिया मधु जी ।आप संवेदनशील हैं।
मन को झकझोरने वाला सत्य, जिसे पढ़कर मन में कहीं गहरे तक वेदना पैठ जाती है। बेहद मार्मिक!
लेखक के संघर्ष से हमें परिचित कराने के लिए आदरेया शशि जी को अशेष साधुवाद।
बेहद त्रासद व दुखद।
किस तरह की वीभत्स जिंदगी जीने के लिए मजबूर है यह लोग। नेता लोग सब बन जाते हैं बस इंसान नहीं बन पाते।
लेखक के हाथ की कलम एक मशाल की तरह होती है जो जागृति का काम करती है ।लेकिन कुछ अपवाद जो इस काम को अंजाम तक नहीं पहुंचने देते जिसमे पैसा सबसे बड़ा है ।राजनीति बड़े अजगर के जैसी है जो हर मजबूर लाचार और सच बोलने वाले को निगल जाती हैं।
सामाजिक वर्गीकरण को कोई नहीं मिटा सकता
इस किताब के बारे में कुछ वक्त गए कहीं पढ़ा था हालांकि इतने तवील और तरतीब से अब इसे जाना। ऐसी किताबों को प्रोमोट करके आप लोग वाक़ई एक इंस्पायरिंग काम कर रहे हैं। हम जैसे पाठक ऐसी चीज़ों से नए जहानों को दरयाफ़्त कर पाते हैं। शुक्रिया लेखक शुक्रिया प्रकाशक