
- November 14, 2025
- आब-ओ-हवा
- 1
पाक्षिक ब्लॉग मिथलेश राय की कलम से....
मोतीलाल, हिन्दी सिनेमा का पहला नैचुरल अभिनेता
उन दिनों नया बस स्टैंड बन रहा था, कंस्ट्रक्शन साइट पर हम सभी दोस्तों का आना-जाना लगा रहता। उन दिनों बहुत-से नये इंजीनियर आते रहते थे। एक दक्षिण भारतीय इंजीनियर आया था, जो अकेला था अभी उसकी शादी भी नहीं हुई थी। वहीं टीन शेड में रहता था। अकेला होने के कारण उसे हम सभी लोगों का साथ ठीक लगता था, हम सभी मित्र शाम को उससे मिलने ज़रूर जाते, वह हिंदी ठीक से बोल नहीं पाता था, पर हिन्दी समझता ख़ूब था। वह अपने चाचा बनवारी के साथ रहता था, बनवारी चाचा बड़े दिलचस्प आदमी थे, उनका बहुत दिनों तक उत्तरप्रदेश में रहना हुआ था। वे ही रमन (इंजीनियर) के कपड़े धुलने, खाना बनाने तथा टीन शेड के साफ़-सफ़ाई का काम करते थे। उनके पास कोई अपना काम नहीं था पर वे कवि और चित्रकार थे, लेकिन गुलशन नंदा, वेदप्रकाश शर्मा, सुरेन्द्र मोहन के उपन्यास बहुत पढ़ते थे। फ़िल्में भी उन्होंने ख़ूब देख रखी थीं।
अक्सर जब हम लोग रमन के टीन शेड के सामने शाम को या रविवार के दिन क्रिकेट खेलने के बाद बैठते तो बनवारी चाचा चाय बना लाते। कभी-कभी तो मंगौड़ी या भजिया भी, पर जब चाय के साथ कुछ भी देते तो उनकी मंशा कुछ क़िस्से सुनाने की रहती थी। हम सभी जानते थे इसलिए जान-बूझकर उन्हें कुछ क़िस्से कहने को उत्साहित करते, बस क्या था, वह शुरू हो जाते। फ़िल्मी क़िस्से के अलावा भूत, चोरी-डकैती के क़िस्से भी कभी-कभी सुनाते, जिसमें अपनी तरफ़ से बहुत कुछ मिला भी देते थे। जब वे क़िस्से सुनाते, तो उनकी भाव-भंगिमा देखने लायक़ होती।
आज छुट्टी का दिन है हम लोग रमन के टीन शेड के सामने बैठे हैं। तभी चाय के साथ मंगौड़ी बनवारी चाचा लेकर आ गये। रवि ने जान बूझकर कहा, “आज कॉलोनी में एक चोर पकड़ा गया है पर उसके पास कुछ मिला नहीं।” यह बात सुनते ही बनवारी चाचा हंस पड़े, उनकी हंसी में तंज़ था, फिर बोले, वह चोर नहीं होगा।
मैंने पूछा, “आपको कैसे पता?”
“चोरों के बारे में मुझे बहुत कुछ पता है भाई, चोर को पकड़ना मुश्किल होता है और अगर वह बिना सामान के पकड़ा गया है तो इसका मतलब वह कोई भटका हुआ राही होगा या फिर प्रेमी।”
“कैसे?” रवि ने पूछा।
अब तक बनवारी चाचा सामने रखे पत्थर पर आसन जमा कर बैठ चुके हैं। उन्होंने कहा, “आप लोगों ने राजकपूर की फ़िल्म “जागते रहो” देखी है?”
“नहीं”
“यह फ़िल्म एक ऐसे ही चोर के बारे में है। वाह क्या फ़िल्म थी… फ़िल्म की शुरूआत में राज कपूर दिखायी देता है। रात का दृश्य है, नल से पानी पीने की कोशिश करता है। इसके बाद एक गाना चालू होता है और मशहूर अभिनेता मोतीलाल का दृश्य में प्रवेश होता है और गाना बजता है “ज़िन्दगी ख़्वाब है, ख़्वाब में, झूठ क्या और भला सच है क्या।”
अचानक गाते हुए बनवारी चाचा रुके और बोले, “सच पूछो बच्चो, तो मोतीलाल जैसा हीरो दुनिया में कभी-कभी आता है।”

“ये कौन था मोतीलाल?” दिनकर ने पूछा
“था भाई, अब आप लोग नहीं जानते होगे, लेकिन वह केवल फ़िल्मी पर्दे का ही हीरो नहीं, तबीयत से भी हीरो था। उसने जो भी फ़िल्में कीं, अपने अभिनय से उन्हें जीवन्त बना दिया। मोतीलाल का जन्म शिमला के एक कायस्थ ज़मींदार परिवार में हुआ था, पिता की मृत्यु हो जाने के कारण परवरिश उसके चाचा जी ने की। मोतीलाल पढ़ाई में, देखने-सुनने, बोलचाल में तो अच्छा था ही, साथ ही साथ वह एक अच्छा पायलट भी था।
तबीयत से हरफ़नमौला इस आदमी का जीवन भी बड़ा अलग रहा। अपने अच्छे लुक और अंदाज़ के चलते निर्देशक काली घोष ने अपनी फ़िल्म ‘शहर का जादू’ के लिए पहली ही मुलाक़ात में मोतीलाल को हीरो चुन लिया। उसके बाद तो मोतीलाल ने पीछे मुड़कर नहीं देखा, कई फ़िल्मों में काम किया, साथ ही उस ज़माने की मशहूर गायक खुर्शीद के साथ गाना भी गाया।
मोतीलाल का नाम प्रेम के मामले में भी नाम कुछ कम ना था। पहले उसका नाम नादिरा के संग जुड़ा, बाद में नूतन की मां साधना समर्थ से उसका बहुत ज़्यादा भावनात्मक साथ रहा, जिसे मोतीलाल ने जीवनपर्यन्त निभाया भी।
मोतीलाल के अभिनय का लोहा इसलिए भी माना जाता रहा है क्योंकि अभिनय उसने किसी से सीखा नहीं था बल्कि वह उसकी तबीयत में ही शामिल था। प्रकृतिदत्त था। बड़ा से बड़ा अभिनेता जिस नैचुरल अभिनय को सीखने में जीवन लगा देता है वह मोतीलाल की दिनचर्या में शामिल था, इसलिए जब वह पर्दे पर शराबी, प्रेमी दोस्त, किसान, जेंटलमैन कोई भी रोल करता दर्शक उसका दीवाना हो जाता। हालांकि मोतीलाल ने कई हिट फ़िल्में दीं, पर फ़िल्म ‘देवदास’ में चुन्नी बाबू का रोल कौन भूल सकता है। तुम लोगों को समय मिले तो बिमल राय निर्देशित फ़िल्म ‘परख’ देखना।”
“क्यों?” मैंने पूछा।
“क्योंकि इस फ़िल्म में मोतीलाल का चरित्र बड़ा अलग है और साधना को सबसे पहले मैंने इसी फ़िल्म में देखा। पहले-पहल तो मैं उसे पहचान ही नहीं पाया था। इसी फ़िल्म का लता जी का गाया गाना “ओ सजना बरखा बहार आई” बहुत चला था। दरअसल 1960 में बनी इस फ़िल्म के मायने इसलिए भी अधिक हैं क्योंकि जिस लोकतंत्र को हमारे देश में आये एक दशक ही बीता था, उस पर यह तीखा व्यंग्य भी थी। फ़िल्म में मोतीलाल मुख्य भूमिका में है, जो राधानगर गांव के पोस्ट मास्टर के यहां काम करता है, नाम है हरधन। असल में हरधन का नाम सर जे.सी. रॉय होता है और गांव की भलाई के लिए 50,000 रुपये ईमानदार हाथों में देना चाहता है। बस कहानी यहीं से रफ़्तार पकड़ती है। गांव का साहूकार, डॉक्टर, ज़मींदार, पुजारी अब उस पैसे को पाने की होड़ में लग जाते हैं। सही आदमी के लिए चुनाव होता है। अंत में सब मरने-मारने पर उतर आते हैं। तब मोतीलाल हरधन (सर जे.सी. रॉय) और उसकी मां (दुर्गा खोटे) आते हैं और गांव के विकास के लिए सही आदमी पोस्टमास्टर को चुना जाता है। फिर सर जे.सी. रॉय और उसकी मां सारा पैसा पोस्टमास्टर को देकर शहर लौट जाते हैं। इस तरह सच्चे और झूठे आदमी की परख पूरी होती है।
इस फ़िल्म में मोतीलाल का ग़रीब लगंडे के रूप में आना और अंत में अमीर के रूप में, लोगों के दिलों को छू गया था, हालांकि मोतीलाल का फ़िल्मी पर्दे पर और निजी जीवन बिल्कुल अलग था। वह शान-शौक़त से तो रहता ही था, उसे घोड़ों की रेस में पैसे लगाने का भी शौक़ था। उसका मानना था वह भारत सरकार पांच साल की योजना से ज़्यादा अच्छी योजना बनाता है। उसके इसी अत्यधिक मनोबल के कारण उसके अंतिम दिन बहुत बुरे बीते और साल 1965 में मोतीलाल ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।”
इतना कहते हुए बनवारी चाचा उठ खड़े हुए और बोले, “आज इतना ही बच्चो, बाक़ी फिर कभी।” जाते हुए मैंने सुना, वे गुनगुना रहे थे, ज़िंदगी ख़्वाब है…

मिथलेश रॉय
पेशे से शिक्षक, प्रवृत्ति से कवि, लेखक मिथिलेश रॉय पांच साझा कविता संग्रहों में संकलित हैं और चार लघुकथा संग्रह प्रकाशित। 'साहित्य की बात' मंच, विदिशा से श्रीमती गायत्री देवी अग्रवाल पुरस्कार 2024 से सम्मानित। साथ ही, साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका "वनप्रिया" के संपादक।
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बहुत अच्छा लेख