‘राधा और कृष्ण की आड़ में नैतिकता का हनन आख़िर कैसे हो जाएगा..!’

'राधा और कृष्ण की आड़ में नैतिकता का हनन आख़िर कैसे हो जाएगा..!'
       बहुचर्चित लेखिका उर्मिला शिरीष ने अपने कथा-साहित्य में, प्रेम के विविध रूपों की चर्चा की है। तमाम कथानक इस विषय पर पर्याप्त डिस्कशन प्रस्तुत करते हैं कि ‘प्रेम विमर्श’ का एक नया पाठ हमारे समक्ष स्पष्ट होने लगता है। जिन्हें अब तक स्त्री और पुरुष के बीच काम-विषयक प्रेम या लैंगिक संबंध के रूप में माना जाता था या प्रायः पुरुषवादी या पितृसत्तावादी दृष्टिकोण से जाना, परखा जाता था, प्रयोगधर्मी इस लेखिका ने उन संबंधों को एक जनतांत्रिक रूप देने की चेष्टा की है। प्रेम के प्रायः सभी रूप उर्मिला जी के यहाँ मिलते हैं। एक स्त्री अपने नज़रिये से प्रेम के स्वरूप को कैसे देखती, महसूस करती और कैसा विस्तार देने व्याकुल है? आब-ओ-हवा के लिए विशेष रूप से प्राप्त इस बातचीत में ऐसे कुछ सवालों के ज़रिये प्राध्यापक और लेखक रूपा सिंह की पड़ताल…
 
  • उर्मिला जी, बताएँ प्रेम है क्या? केवल एक भावना है या भावुकता? व्यक्तिगत है या सामाजिक? भौतिक आध्यात्मिक? शाश्वत या आध्यात्मिक? या परिवर्तनशील?

रूपा जी, आपका प्रश्न ही इतना गहरा और शाश्वत भावों से भरा है कि प्रेम के अनेक रूप आपने स्वयं सामने रख दिये हैं। प्रेम इस ब्रह्माण्ड की तरह ही अनन्त है, असीम है, भावनाओं में आता है और किरणों की तरह चारों तरफ़ फैलकर उजास फैला देता है, फूलों में खिलता है और अनेक रंगों के साथ सुगंध बनकर हवा में मिल जाता है… जो कोई भी हो अगर वह भावुक नहीं है तो वह प्रेम कर ही नहीं सकता, उसके हृदय में प्रेम अंकुरित होगा ही नहीं? यह व्यक्तिगत भी है और सामाजिक भी। मीरा का प्रेम व्यक्तिगत है पर शाश्वत है, राधा का प्रेम व्यक्तिगत होकर कब सामाजिक बन जाता है कि हर गोपी उसमें डूब जाती है। प्रेम भौतिक भी है क्योंकि हम देह के रूप में उपस्थित हैं, आध्यात्मिक भी हैं क्योंकि दूर बिछुड़कर भी हम उसे प्रेम कर रहे हैं, उसके प्रेम में जी रहे हैं, उसके प्रेम के सहारे जी रहे हैं; जन्म और मरण जैसे शाश्वत हैं वैसे ही प्रेम भी… जिसे प्रेम करते हैं उसकी हर चीज़, हर भावना, हर मुद्रा हमें प्रिय होती है। अगर वह समय, स्थान और सुविधा के अनुसार परिवर्तनशील हो जाये तो प्रेम ही क्या? कृष्ण चले गये पर राधा का प्रेम नहीं बदला। मीरा ने राज-पाट छोड़ दिया पर प्रेम नहीं छूटा। यदि भौतिक चीज़ों की तरह प्रेम भी बदलने लगे तो उसकी पीड़ा, उसका दर्द, उसका विरह, उसकी प्रेम की प्यास ही क्यों तड़पाती? 

प्रेम पर हिन्दी साहित्य भरा पड़ा है। इतने उदाहरण, इतनी कहानियाँ… कि पूरी उम्र बीत जाये पढ़ते हुए। प्रेम नित-नूतनता का अहसास करवाता है। इतनी सज़ाएँ, इतनी मौतें, इतने तिरस्कार… इतने कष्ट, उसके बाद भी कभी किसी ने प्रेम करना नहीं छोड़ा। इसमें दोनों ही तरह के प्रेम हैं। दाम्पत्य जीवन का प्रेम और प्रेमी-प्रेमिका के बीच का प्रेम। समाज में भय और बदनामी के डर के कारण हमेशा प्रेम को कुचला जाता रहा है। केवल अपनी जाति में, अपने कुल में, केवल अपने कुल-गोत्र वालों में विवाह की शर्तों ने कितने ही सुन्दर भावनाओं से भरे हृदयों को हमेशा के लिए तोड़ दिया और उसकी जगह प्रेमशून्य जीवन में स्त्री-पुरुष क़ैद होकर रह गये। 
 
  • यदि हम उर्दू शब्दों का सहारा लें तो प्रत्येक शब्द के अर्थ थोड़े बदले हुए हैं। प्यार, मोहब्बत, इश्क़ में क्या फ़र्क़ है उर्मिला जी? 
यदि पारिभाषिक ढंग से बात की जाये तो थोड़ा-बहुत अन्तर है। प्रेम आप किसी से भी कर सकते हैं- इंसान से, प्रकृति से, जानवरों से, वस्तुओं से। किसी भी जड़-चेतन चीज़ से, जीव से आप प्रेम कर सकते हैं और इश्क़,इश्क़ में वही होता है जिसे आप जी-जान से चाहते हैं, जिसकी हर चीज़ आपको अच्छी लगती है, जिसके लिए आप मर मिटते हैं, जिसका अस्तित्व, जिसकी उपस्थिति ही आपके लिए एकमात्र शै होती है, मोहब्बत वो है जिसके प्रति आपका आकर्षण है, जो आपको अच्छा लगता, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने ठीक ही कहा था- ‘मुझसे पहली-सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग।’ और अमीर ख़ुसरो ने कितनी सुन्दर बात कही-
 
‘ख़ुसरो दरिया प्रेम का, उलटी वा की धार
जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार।’
 
…और मैं कहूँ कि मेरे लिए प्यार, मोहब्बत, इश्क़ एक ही है। कबीर के शब्दों में कहूँ तो- 
 
‘लाली मेरे लाल की, जित देखूँ तित लाल
लाली देखन मैं गयी मैं भी हो गयी लाल।’ 
 
तो जिसके इश्क़ में, मोहब्बत में, प्यार में, इंसान रंग जाये, उसके लिए जीने-मरने लगे वही सच्चा प्यार, इश्क़ और मोहब्बत है। और जैसे अलग-अलग भक्ति, प्रेम, साधना का, अलग-अलग धर्मों का मूल एक ही है परमात्मा को पाना।
 
  • आपकी लिखी प्रेम-कहानी है- ‘परिन्दों का लौटना’। इस कहानी में कांता और कपिल प्रेम करते हैं, बिछुड़ जाते हैं और अपनी अलग गृहस्थी बस जाने के 47 वर्ष बाद पुनः मिलते हैं, फिर उसी नैसर्गिक उछाह को महसूस करते हुए, दुबारा से बिछुड़ जाने के लिए। क्या यह प्रेम की थीम समाज के यथार्थ को प्रतिबिम्बित करने के लिए है या ऐसा निजी मामला, जिसे जीवन के तनावों को दूर करने की दर्दनाशक टिकिया की तरह यदा-कदा प्रयोग किया जाये? 
यह कहानी ‘परिन्दों का लौटना’ जीवन के पाँच दशकों की प्रेमकथा को समेटे हुए हैं। वे जब मिलते हैं, तो समय शून्य हो जाता है क्योंकि वहाँ समय नहीं है, प्रेम है। दुबारा बिछुड़ने में दुःख है, वियोग है पर अधिकार का भाव नहीं है, हस्तक्षेप नहीं है। केवल एहसास है, अनुभूति है। अगर उनके भीतर प्रेम न होता तो क्या वे ख़त सँभालकर रखते, कपिल वो ख़त लेकर आता! जहाँ अधिकार का बोध हो वो प्रेम हो ही नहीं सकता। कपिल और कांता का जीवन, ख़ासकर कांता का जीवन तमाम तरह की कठिनाइयों, दुःखों तथा अकेलेपन से गुज़रता है, तब भी वह कभी भी कपिल से सम्पर्क करने की कोशिश नहीं करती है। यह दर्दनाशक टिकिया की तरह इस्तेमाल होने वाला प्रेम नहीं है जिसे याद करके वह (कांता) खुश हो जाये या कपिल मज़े लेकर उसका इस्तेमाल करे। पूरा गाम्भीर्य दोनों के प्रेम संबंधों में नदी की धारा की तरह प्रवाहित होता रहता है। मिलने की, देखने की चाहत भी स्वाभाविक है। आज से पाँच दशक पहले लड़के-लड़की के प्रेम संबंध वबाल खड़ा कर देते थे… उस माहौल में भी कांता विवाह करके नौकरी में निकल पाती है और जब वर्तमान में कपिल से मिलती है तो ठीक वैसा ही रोमांच, वैसी ही घबराहट महसूसती है जैसी प्रथम बार मिलने पर महसूस की थी।
 
  • आपके यहाँ कई कहानियों और उपन्यासों में भी परकीया प्रेम की अनुभूति और स्वीकार्यता है, जबकि समाज इसे अवैध और समाज विरोधी मानता है। आप इसे किस तरह व्याख्यायित करना चाहेंगी? 
 रूपा जी, मैं जानती हूँ हमारा भारतीय समाज आज भी प्रेम को, सच्चे प्रेम को अवैध, नाजायज़ मानता है क्योंकि उस प्रेम में शादी के सात फेरे नहीं हैं। ये एक लम्बी बहस का विषय है। यहाँ सामाजिक संबंधों की पवित्रता पर प्रश्नचिह्न लगाये जाने लगते हैं पर मैंने अपनी कहानियों, चाहे वो ‘पत्ते झड़ रहे हैं’ हो या ‘बाँधो न नाव इस ठाँव बन्धु’ या ‘परिन्दों का लौटना’ या ‘अँगारों का हँसी’ हो… में प्रेम को पाने की, उसे एक पवित्र रिश्ते में बाँधने की छटपटाहट दिखायी देती है। वे अपने जीवन को प्रेम में डूबकर, जीने की कामना लेकर आगे बढ़ते हैं पर कहीं धर्म आड़े आ जाता है, कहीं परिवार के लिए किये गये कमिटमेंट तो कहीं जाति और सामाजिक स्तर। इन स्तरों पर जब प्रेम-संबंध असफल हो जाते हैं तो प्रेम तो बचा रहता है, संबंध टूट जाते हैं। इन टूटे संबंधों के बीच कहीं न कहीं प्रेम की पीड़ा बची रह जाती है। प्रेम जैसे विषय को व्याख्यायित नहीं किया जा सकता है, उसे तो अनुभव किया जा सकता है। आम लोग, मेरा आशय उन लागों से है जो प्रेम, मोहब्बत या इश्क़ को महसूस ही नहीं करते, उनके लिए तो वो बेकार की चीज़ है, भावना है, संबंध है, मगर मैं मानती हूँ कि इस पृथ्वी पर अगर प्रेम नहीं होगा तो सारी सुन्दरता, सारे रंग, सारी चमक ख़त्म हो जाएगी। लोग संवेदनहीन हो जाएंगे। सृजन और सौन्दर्य, सपने और संघर्ष ख़त्म हो जाएगा। 
 
  • उर्मिला जी, एक प्रश्न यह है कि हमारे समाज में स्त्री का जो भावुक रूप है, वह प्रेम को सर्वोपरि मानता है जबकि पुरुष ज़्यादा तार्किक और एडजस्टेबल माने गये हैं। जबकि आपके यहाँ पुरुष भी बराबर का प्रेमी है। कपिल लौटता है ‘परिन्दों की तरह’। कांता को उतना ही, वैसी ही ललक से वह चाहता रहा है… क्या यह प्रेम में समता, स्वतंत्रता और बन्धुत्व की सशक्त अभिव्यक्ति नहीं है? आपके लेखन में पुरुष अक्सर बहुत संतुलित और बराबर का प्रेमी दिखता है। क्या आप समाज में आये परिवर्तनों को इस रूप में देख रही हैं या भविष्य में प्रेमियों के ऐसे साहचर्य की कल्पना आंक रही हैं?
बिल्कुल रूपा जी, प्रेम असीम है, समता और स्वाधीनता का पक्षधर है। मेरी कहानियों में जितने भी पुरुष पात्र आये हैं, वे सब प्रेम की गहराई को, गम्भीरता को बराबर महसूस करते हैं, जीते हैं। आपका कहना एकदम ठीक है कि पुरुष ज़्यादा तार्किक होते हैं, ‘पत्ते झड़ रहे हैं’ का डॉक्टर आपने प्रेम को तर्कों के आधार पर ही अस्वीकार करता है वह सीमा के निष्कपट प्रेम को अपने तथा परिवार के भविष्य तथा ज़िम्मेदारियों के आगे त्याग देता है… सीमा पर क्या गुज़रती है आप जानती हैं। प्रेम यदि सच्चा है तो वह जातीय, वर्गीय, अमीरी-गरीबी, धार्मिक जैसी असमानताओं की दीवारों को तोड़ता है। आज के समय में परिवार छोटे होते जा रहे हैं। स्त्री-पुरुष अकेले होते जा रहे हैं। वे अवसाद में जीवन बिताते हैं, ऐसे में अगर उनके बीच प्रेम जैसा कोई एहसास पैदा होता है एक-दूसरे के लिए और उनका जीवन साथ में गुज़रता है तो उसमें बुराई क्या है? इस बारे में सोचा जाना चाहिए। परिवार और समाज को आगे आना चाहिए। जीवन के उत्तरार्द्ध में मनुष्य को साहचर्य की ज़रूरत होती है।
 
        जहाँ तक मेरे उपन्यास ‘चाँद गवाह’ की बात हो तो उसमें भी संदीप नाम का पुरुष, दिशा जैसी स्त्री को उसकी लगभग ख़त्म हो चुकी ज़िंदगी की अँधेरी गुफ़ा से बाहर निकालता है… वह भी कभी उसके पति के बारे में नकारात्मक बात नहीं बोलता है, न ही उन दोनों के संबंधों में हस्तक्षेप करता है। दिशा के परकीया प्रेम को समझते हुए भी वह अपना संबंध पूरे संतुलन के साथ निभाता है। जब तक यह संतुलन रहेगा तब तक संबंधों में कहीं किसी प्रकार की अनैतिकता नहीं आएगी क्योंकि ये संबंध पूरी तरह से मानवीय संवेदनाओं, पवित्रता तथा निश्छलता से भरे संबंध हैं।
 
  • ‘चाँद गवाह’ आपका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपन्यास है। ‘इको फेमिनिज़्म’ की जिस थ्योरी को ‘दिशा’, दिशा देती है उसमें संदीप उसका ऐसा सहयात्री है जिसने दिशा को दिशा दी है। ऐसा पुरुष क्या भारतीय समाज में है? या इसे इस प्रकार भी कहें कि जैसे स्त्री को स्त्री बनने की शिक्षा/दीक्षा दी जाती है, पुरुष को भी मनुष्य की अपेक्षा मर्द बनने की शिक्षा/दीक्षा दी जाती है। 
रूपा जी, मुझे प्रसन्नता है कि आपने समाज की उस रग को छुआ है, जो हमारी कमज़ोरी है। स्त्री को परिवार की बड़ी बुज़ुर्ग महिलाएँ तथा पिता इत्यादि हर अवस्था में शिक्षा देते हैं कि कैसे उठना-बैठना है, किसके सामने ज़ोर से हँसना है या नहीं हँसना है, किसके सामने कौन से कपड़े पहनने हैं या किसके सामने कैसा आचरण-व्यवहार करना है, एक-एक क़दम पर सिखाया जाता है पर कभी भी परिवार वाले पुरुषों को नहीं सिखाते कि उन्हें चार लोगों के बीच अपनी पत्नी से, बहिन से या माँ से कैसा व्यवहार करना चाहिए या स्त्री को दी जाने वाली गालियाँ क्यों नहीं देनी चाहिए.. परिवार और समाज समझता है कि पुरुष हर तरह से आचरण-व्यवहार, बोल-चाल के लिए स्वतंत्र है। उसकी कंडीशनिंग इसी रूप में की गयी है कि वो चाहे तो कुछ भी ले सकता है, छीन सकता है, मना करने पर मार सकता है, रौंद सकता है, दीवारों में चिनवा सकता है क्योंकि उसे सिखाया ही नहीं गया है कि एक इंसान के रूप में स्त्री को सम्मान की चाह होती है, स्त्री भी फूल की तरह नाज़ुक हो सकती है, वह भी अपनी तरह से अपना जीवन जीना चाह सकती है। एक पुरुष दूसरी स्त्री को रखकर अपनी शारीरिक-मानसिक इच्छाएँ पूरी कर लेता है पर उसकी पत्नी वह किसी की तरफ़ देखकर मुस्कुरा भी ले तो वह चरित्रहीन हो जाती है। परिवार और समाज उसे लाँछित करने लगता है।
 
      मैं दिशा के माध्यम से यही कहना चाहती हूँ स्त्री के व्यक्तित्व को, उसके चरित्र को, उसके आत्मिक संबंधों को उतने ही खुले दिल-दिमाग़ से देखें-समझें, जैसे आप पुरुषों के संबंधों को देखते हैं। स्त्री यदि स्त्री है तो पुरुष को पुरुष बनाइए मर्द नहीं।
 
  • अंतिम सवाल, बहुत आदर के साथ। क्योंकि समाज को शिक्षित साहित्य करता है और यह समाज को आगे ले चलने वाली मशाल भी है, आप हमें बताएँ कि इस ‘प्रेम’ में नैतिकता का निर्वाह कहाँ है और कितना है? आज बाज़ारवाद और तकनीकी क्रांति ने हमारे मूल्यों को छिन्न-भिन्न कर दिया है। नैतिकता का अभाव उच्छृंखला में तो नहीं परिणत हो जाएगा? कृष्ण और राधा की आड़ में कृष्ण और रुक्मिनी के घर तो नहीं टूट जाएँगे।
प्रेम आज का विषय नहीं पौराणिक साहित्य से लेकर, संस्कृत साहित्य से लेकर आज तक के साहित्य में प्रेम तथा प्रेम से जुड़े पात्रों के जीवन को लेकर महान् काव्य या उपन्यास लिखे गये हैं। विदेशी साहित्य में ‘अन्ना कारेनिना’ को कौन भूल सकता है। कृष्ण और राधा की आड़ लेकर नैतिकता का हनन जब आज तक नहीं हुआ है तो आगे भी क्यों और कैसे होगा। तकनीकी क्रांति और बाज़ारवाद को लेकर हमारी चिंताएँ साझी हैं। इधर मानवीय मूल्यों या नैतिक मूल्यों का जिस तरह से क्षरण हुआ है उसने परिवार तथा समाज को बुरी तरह से हिला दिया है। हमारी ‘कुटुम्ब’ की व्यवस्था ध्वस्त हो चुकी है। युवा पीढ़ी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के बहाने वह सब कर रही है, जो उसे नहीं करना चाहिए इसलिए इस अनैतिकता में और राधा-कृष्ण के प्रेम के बहाने प्रेम के नाम पर स्वच्छन्दता को अपनाने में ज़मीन-आसमान का अन्तर है। प्रेम कभी भी मूल्यों का क्षरण नहीं करता। वह कभी किसी को आहत नहीं करता सिवा स्वयं आहत होने के… आप जिस नैतिकता के निर्वाह की बात कर रही हैं वह उसकी सम्पूर्णता में है। प्रेम जब ‘विवाह’ तक पहुँच जाता है तो उसकी सारी चीज़ें प्रशंसनीय हो जाती हैं और जब अपूर्ण रह जाता है तो वही अनैतिक और अपवित्र हो जाता है।
 
       यदि जातिवाद का इतना कठोर बंधन न हो, अगर वर्गों का इतना विभाजन न हो, अगर इंसान का स्तर देखकर उसे कम-ज़्यादा न आंका जाये तो बहुत सारे प्रेम संबंध सफल हो जाएँगे और अपनी पूर्णता को पा लेंगे तो हमें अपनी सामाजिक संरचना की जटिलताओं को भी समझना और सुधारना होगा। ‘ऑनर किलिंग’ की घटनाएँ बताती हैं कि समाज ‘ख़ानदान’ के नाम पर ‘इज्ज़त’ का हवाला देकर कितना क्रूर और हिंसक हो जाता है। अनैतिकताओं को जन्म देने वाला हमारा समाज ही तो है। 
 
हमने प्रेम जैसे जीवेष्णा, समर्पण, त्याग और निष्छलता से भरे भाव को हिंसक बना दिया है। उसी को हम ‘प्रेम’ कहने लगे हैं जहाँ वर्चस्व है, हिंसा है, एकाधिकार का भाव है, पाने की क्रूर आकांक्षा है… उसे मैं प्रेम मानती ही नहीं हूँ। प्रेम तो वो है जो सदियों तक अपने भीतर उसकी लौ जलाये, अपने ‘उसके’ प्रतीक्षा में पलकें बिछाये रहे और केवल उसके ‘कल्याण’ की, ख़ुशी की कामना में आत्ममग्न रहे। अतीत में जाकर आप देखेंगी, कितनी ही कहानियाँ, कितने उदाहरण भरे पड़े हैं, इतिहास में भी अनोखी कहानियाँ और किरदार आपको मिल जाएँगे। संतों (स्त्री) के जीवन की पराकाष्ठा देखिए कि अपने प्रियतम या परमात्मा की तलाश में उन्होंने घर-परिवार, जाति, समाज सबका त्याग कर दिया था। मैं सतही, झूठे, दिखावटी प्रेम को प्रेम नहीं मानती, भले ही उसे कितना ही महिमामंडित क्यों न किया जाये। 
 
मीराबाई कितनी ईमानदारी और उदात्तता के साथ कहती हैं- 
 
हेरी मैं तो प्रेम दिवानी
मेरो दरद न जाणे कोय
घायल की गति घायल जाणे जो कोई घायल होय
गगन मंडल पर सेज पिया की किस विधि मिलणा होय।
रूपा सिंह

रूपा सिंह

एम.फ़िल., पीएच.डी., जेएनयू, दिल्ली से। डी. लिट्., आगरा विश्वविद्यालय से। पोस्ट डाक्टरेट, कला संकाय, दिल्ली विश्वविद्यालय से। एसोसिएट- IIAS अध्ययन संस्थान, राष्ट्रपति निवास, शिमला से। छह आलोचनात्मक पुस्तकें प्रकाशित। कविताओं और कहानियों का कई भाषाओं में अनुवाद। यू.जी.सी. की कई महत्तर परियोजनाओं में पुरस्कृत। लेखन के लिए राष्ट्रीय तथा अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित। एक कहानी-संग्रह प्रकाशित और हिन्दी, अंग्रेज़ी, मैथिली व पंजाबी भाषाओं की ज्ञाता।

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