
- November 30, 2025
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पाक्षिक ब्लॉग ज़ाहिद ख़ान की कलम से....
मेरा नारा इंक़िलाब-ओ-इंक़िलाब-ओ-इंक़िलाब
उर्दू अदब में जोश मलीहाबादी वह आला नाम है, जो अपने इंक़लाबी कलाम से शायर-ए-इंक़लाब कहलाए। जोश का सिर्फ़ यह एक अकेला शे’र, “काम है मेरा तग़य्युर, नाम है मेरा शबाब/मेरा ना’रा इंक़िलाब ओ इंक़िलाब ओ इंक़िलाब।” यही उनके तआरुफ़ और अज़्मत को बतलाने के लिए काफ़ी है। वर्ना उनके अदबी ख़जाने में ऐसे-ऐसे क़ीमती हीरे-मोती हैं, जिनकी चमक कभी कम नहीं होगी। उत्तर प्रदेश में लखनऊ के नज़दीक मलीहाबाद में 5 दिसम्बर, 1898 में पैदा हुए शब्बीर हसन ख़ां, बचपन से ही शायरी की जानिब अपनी बेपनाह मुहब्बत के चलते, आगे चलकर जोश मलीहाबादी कहलाये।
शायरी उनके ख़ून में थी। उनके अब्बा, दादा सभी को शेर-ओ-शायरी से लगाव था। घर के अदबी माहौल का ही असर था कि वे भी नौ साल की उम्र से ही शायरी कहने लगे थे और महज़ तेईस साल की छोटी उम्र में उनकी ग़ज़लों का पहला मज्मूआ ‘रूहे-अदब’ शाया हो गया था। जोश मलीहाबादी की ज़िन्दगानी का इब्तिदाई दौर, मुल्क की ग़ुलामी का दौर था। ज़ाहिर है कि इस दौर के असरात उनकी शायरी पर भी पड़े। हुब्बुल-वतन (देशभक्ति) और बग़ावत उनके मिज़ाज का हिस्सा बन गई। उनकी एक नहीं, कई ऐसी कई ग़ज़लें-नज़्में हैं, जो वतन-परस्ती के रंग में रंगी हुई हैं। ‘मातमे-आज़ादी’, ‘निज़ामे-लौ’, ‘इंसानियत का कोरस’, ‘जवाले जहां बानी’ के नाम अव्वल नम्बर पर लिये जा सकते हैं। “जूतियां तक छीन ले इंसान की जो सामराज/क्या उसे यह हक़ पहुॅंचता है कि रक्खे सर पै ताज।” इंक़लाब और बग़ावत में डूबी हुई उनकी ये ग़ज़लें-नज़्में, जंग-ए-आज़ादी के दौरान नौजवानों के दिलों में गहरा असर डालती थीं। वे आंदोलित हो उठते थे। यही वजह है कि जोश मलीहाबादी को अपनी इंक़लाबी ग़ज़लों-नज़्मों के चलते कई बार जेल भी जाना पड़ा। लेकिन उन्होंने अपना मिज़ाज और रहगुज़र नहीं बदली।
दूसरी आलमी जंग के दौरान जोश मलीहाबादी ने ‘ईस्ट इंडिया कम्पनी के फरज़ंदों के नाम’, ‘वफ़ादाराने-अजली का पयाम शहंशाहे-हिन्दोस्तॉं के नाम’ और ‘शिकस्ते-ज़िन्दां का ख़्वाब’ जैसी साम्राज्यवाद विरोधी नज़्में लिखीं। “क्या हिन्द का ज़िन्दाँ काँप रहा है गूँज रही हैं तक्बीरें/उकताए हैं शायद कुछ क़ैदी और तोड़ रहे हैं ज़ंजीरें/क्या उनको ख़बर थी होंटों पर जो क़ुफ़्ल लगाया करते थे/इक रोज़ इसी ख़ामोशी से टपकेंगी दहकती तक़रीरें/संभलों कि वो ज़िन्दाँ गूँज उठा झपटो कि वो क़ैदी छूट गए/उट्ठो कि वो बैठीं दीवारें दौड़ो कि वो टूटी ज़ंजीरें।”

जोश मलीहाबादी को लफ़्ज़ों के इस्तेमाल पर महारत हासिल थी। अपनी शायरी में जिस तरह से उन्होंने उपमाओं और अलंकारों का शानदार इस्तेमाल किया है, उर्दू अदब में ऐसी कोई दूसरी मिसाल ढ़ूढें से नहीं मिलती। “सरशार हूँ सरशार है दुनिया मिरे आगे/कौनैन है इक लर्ज़िश-ए-सहबा मिरे आगे….’जोश’ उठती है दुश्मन की नज़र जब मिरी जानिब/खुलता है मोहब्बत का दरीचा मिरे आगे।”
अपनी शानदार ग़ज़लों-नज़्मों-रुबाइयों से जोश मलीहाबादी देखते-देखते पूरे मुल्क में मक़बूल हो गये। उर्दू अदब में मक़बूलियत के लिहाज़ से वे इक़बाल और जिगर मुरादाबादी की टक्कर के शायर हैं। यही नहीं तरक़्क़ी-पसंद तहरीक के वे अहम शायर थे। उन्होंने उर्दू में तरक़्क़ी-पसंद शायरी की दाग़बेल डाली। अपनी किताब ‘जदीद उर्दू शायरी’ में इबादत बरेलवी लिखते हैं,”जोश के साथ-साथ तरक़्क़ी-पसंद शायरी का दौर शुरू होता है, जिसके हाथों जदीद शायरी के समाजी और इमरानी रुजहानात एक नई दुनिया से रू-शनास होते हैं।” यही वजह है कि तरक़्क़ी-पसंद तहरीक में जोश मलीहाबादी की हैसियत एक रहनुमा की है। उनके कलाम में सियासी चेतना साफ़ दिखाई देती है और यह सियासी चेतना मुल्क की आज़ादी के लिए इंक़लाब का आहृान करती है। सामंतवाद, सरमायेदारी और साम्राज्यवाद का उन्होंने पुरज़ोर विरोध किया। पूंजीवाद से समाज में जो आर्थिक विषमता पैदा होती है, वह जोश ने अपने ही मुल्क में देखी थी। अंग्रेज़ हुकूमत में किसानों, मेहनतकशों को अपनी मेहनत की असल क़ीमत नहीं मिलती थी। वहीं सरमायेदार और अमीर होते जा रहे थे। “इन पाप के महलों को गिरा दूंगा मैं एक दिन/इन नाच के रसियों को नचा दूंगा मैं एक दिन/मिट जाएंगे इंसान की सूरत के ये हैवान/भूचाल हूं भूचाल हूं तूफ़ान हूं तूफ़ान।”
जोश मलीहाबादी ने अपनी ग़ज़लों-नज़्मों में हमेशा किसानों-कामगारों-मेहनतकशों की बात की। नज़्म ‘किसान’ में वे लिखते हैं, “झुटपुटे का नर्म-रौ दरिया शफ़क़ का इज़्तिराब/खेतियाँ मैदान ख़ामोशी ग़ुरूब-ए-आफ़्ताब/…..जिस के माथे के पसीने से पए-इज़्ज़-ओ-वक़ार/करती है दरयूज़ा-ए-ताबिश कुलाह-ए-ताजदार।”
उर्दू अदब के बड़े आलोचक एहतिशाम हुसैन, अपनी किताब ‘उर्दू साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ में जोश की शायरी का मूल्यांकन करते हुए लिखते हैं, “जोश को प्राकृतिक, श्रंगार-पूर्ण और राजनीतिक कविताएं लिखने पर समान रूप में अधिकार प्राप्त है। भारत के राजनीतिक जीवन में कदाचित् ही कोई ऐसी घटना हुई होगी, जिस पर उन्होंने कविता न लिखी हो। वह राष्ट्रीयता, हिन्दू-मुसलिम एकता, देश-प्रेम, जनतंत्र, शांति और विचार स्वतंत्रता के उपासक हैं और इन विचारों को उन्होंने अपनी सहस्त्रों कविताओं में बड़ी रोचक और मनोरंजक शैलियों में प्रस्तुत किया है।”
जोश मलीहाबादी ने मुल्क की आज़ादी से पहले ‘कलीम’ और आज़ादी के बाद ‘आजकल’ मैगज़ीन का सम्पादन किया। फ़िल्मों के लिए कुछ गाने लिखे, तो एक शब्दकोश भी तैयार किया। लेकिन उनकी मुख्य पहचान एक शायर की है। जोश मलीहाबादी मज़हबी कट्टरता और फ़िरक़ा-परस्ती के दुश्मन थे। “बाज़ आया मैं तो ऐस ताऊन से/भाईयों के हाथ तर हो भाईयों के ख़ून से।” वह आदमियत को दीन, और इंसानियत को ईमान मानते थे। “आओ वो सूरत निकालें जिसके अंदर जान हो/आदमीयत दीन हो, इंसानियत ईमान हो।”
जोश मलीहाबादी का अदबी सरमाया जितना शानदार है, उतनी ही ज़ानदार-ज़ोरदार उनकी ज़िन्दगी थी। जोश साहब की ज़िन्दगी में गर हमें दाख़िल होना हो, तो सबसे बेहतर तरीक़ा यह होगा कि हम उन्हीं के मार्फ़त उसे देखें-सुने-जाने। क्योंकि जिस दिलचस्प अंदाज़ में उन्होंने ‘यादों की बरात’ किताब में अपनी कहानी बयां की है, उस तरह का कहन बहुत कम देखने-सुनने को मिलता है। बुनियादी तौर पर उर्दू में लिखी गई इस किताब का पहला एडिशन साल 1970 में आया था। तब से इसके कई एडिशन आ चुके हैं, लेकिन पाठकों की इसके जानिब मुहब्बत और बेताबी कम नहीं हुई है। ‘यादों की बरात’ की मक़बूलियत के मद्देनज़र, इस किताब के कई ज़बानों में तजुर्मे हुए और हर ज़बान में इसे पसंद किया गया। अपने बारे में इतनी ईमानदारी और साफ़गोई से शायद ही किसी ने इससे पहले लिखा हो। अपनी ज़िन्दगी के बारे में वे पाठकों से कुछ नहीं छिपाते। यहां तक कि अपने इश्क़ भी, जिसका उन्होंने अपनी किताब में तफ़्सील से ज़िक्र किया है।
जोश मलीहाबादी अपनी ज़िन्दगी में कई इनाम-ओ-इकराम से नवाज़े गये। साल 1954 में भारत सरकार ने उन्हें अपने सर्वोच्च नागरिक सम्मानों में से एक ‘पद्मभूषण’, तो साल 2012 में पाकिस्तान हुकूमत ने उन्हें ‘हिलाल-ए-इम्तियाज़’ पुरस्कार से नवाज़ा, जो पाकिस्तान का दूसरा आला सिटीजन अवॉर्ड है। इस तरह जोश मलीहाबादी वह ख़ुशकिस्मत शख़्स हैं, जिन्हें दोनों मुल्कों की हुकूमत ने अपने आला नागरिक सम्मान से सम्मानित किया।
मुल्क की आज़ादी के बाद जोश मलीहाबादी के कुछ दोस्तों ने उनके दिल में यह बात बैठा दी कि हिन्दुस्तान में उनके बच्चों और उर्दू ज़बान का कोई मुस्तक़बिल नहीं है। साल 1955 में जोश मलीहाबादी पाकिस्तान चले गये। वह पाकिस्तान ज़रूर चले गये, मगर इस बात का पछतावा उन्हें ताउम्र रहा। जिस सुनहरे मुस्तक़बिल के वास्ते उन्होंने हिन्दुस्तान छोड़ा था, वह ख़्वाब चंद दिनों में ही टूट गया। उन्होंने पाकिस्तान में जिस पर भी ऐतबार किया, उससे उन्हें धोखा मिला। और उर्दू की जो पाकिस्तान में हालत है, वह भी सबको मालूम है। पाकिस्तान जाने का फ़ैसला चूॅंकि ख़ुद जोश मलीहाबादी का था, लिहाज़ा वे ख़ामोश रहे। वहां घुट-घुटके जिये, मगर शिकवा किसी से न किया। पाकिस्तान में रहकर वे हिन्दुस्तान की मुहब्बत में डूबे रहते थे। जोश मलीहाबादी चाहकर भी अपने पैदाइशी मुल्क को कभी नहीं भुला पाये। पाकिस्तान में उनकी बाक़ी ज़िन्दगी ना-उम्मीदी और गुमनामी में बीती।

जाहिद ख़ान
इक्कीसवीं सदी के पहले दशक से लेखन की शुरुआत। देश के अहम अख़बार और समाचार एवं साहित्य की तमाम मशहूर मैगज़ीनों में समसामयिक विषयों, हिंदी-उर्दू साहित्य, कला, सिनेमा एवं संगीत की बेमिसाल शख़्सियतों पर हज़ार से ज़्यादा लेख, रिपोर्ट, निबंध,आलोचना और समीक्षा आदि प्रकाशित। यह सिलसिला मुसलसल जारी है। अभी तलक अलग-अलग मौज़ूअ पर पन्द्रह किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक के हमसफ़र’ के लिए उन्हें ‘मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन’ का प्रतिष्ठित पुरस्कार ‘वागीश्वरी पुरस्कार’ मिला है। यही नहीं इस किताब का मराठी और उर्दू ज़बान में अनुवाद भी हुआ है।
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